मुझे पहले पहल लगता था ज़ाती मसअला है, मैं फिर समझा मोहब्बत कायनाती मसअला है। एक तारीख़-ए-मुकर्रर पे तू हर माह मिले, जैसे दफ़्तर में किसी शख़्स को तनख़्वाह मिले। निकाल लाया हूं एक पिंजरे से एक परिंदा, अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है। तमाम दिन इस दुआ में कटता है कुछ दिनों से, मैं जाऊँ कमरे में तो उदासी निकल गई हो। ये तीस बरसों से कुछ बरस पीछे चल रही है, मुझे घड़ी का ख़राब पुर्ज़ा निकालना है। - उमैर नज्मी
लेखनशाला पर उमैर नज्मी के चुनिंदा शेर
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