तुम हमारे हो
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया,
ठोकरें खाते हुए दिन बीते।
उठा तो पर न सँभलने पाया,
गिरा व रह गया आँसू पीते।
ताब बेताब हुई हठ भी हटी,
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया।
देखा तो थी माया की डोर कटी,
सुना वह कहते हैं, हाँ खूब किया।
पर अहो पास छोड़ आते ही,
वह सब भूत फिर सवार हुए।
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही,
फिर वही पहले के से वार हुए।
एक भी हाथ सँभाला न गया,
और कमज़ोरों का बस क्या है।
कहा – निर्दय, कहाँ है तेरी दया,
मुझे दुख देने में जस क्या है।
रात को सोते यह सपना देखा,
कि वह कहते हैं “तुम हमारे हो।
भला अब तो मुझे अपना देखा,
कौन कहता है कि तुम हारे हो।
अब अगर कोई भी सताये तुम्हें,
तो मेरी याद वहीं कर लेना।
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें,
प्रेम के भाव तुरत भर लेना।
– सूर्यकांत त्रिपाठी ” निराला “