वर्षा सक्सेना जी की सात सुप्रसिद्ध हिंदी कविताएं

दूसरी लड़की

1-

लक्ष्मी आई घर में है फिर,

खुशियाँ छाई मन में हैं फिर,

फूल खिला इक जीवन में फिर,

 महक उठा घर आंगन यह फिर।

 

अरे दूसरी भी है लड़की,

किसने सहसा वार किया,

खिलते उस उजियारे में यूँ,

किसने था अंधकार किया।

 

कैसे होगा लालन – पालन,

कैसे होगी शिक्षा – दीक्षा,

कैसे होगी शादी – वादी,

कैसे हो दहेज व्यवस्था।

 

क्यों ये भयावह दृश्य दिखाया,

क्यों भविष्य दर्शन करवाया,

क्या बेटी है इतनी भारी ?

दूसरी नही क्या जिम्मेदारी?

 

वह अपना लाई है संग में,

ले जाएगी अपना संग में,

भाग्य उजल हो जाये उसका,

ऐसी आशा रखे मन में।

 

अभी तो सुंदर सजल वह प्यारी,

घर की रौनक राज दुलारी,

चिड़िया बन वो उड़ जाएगी,

तुमसे न कुछ ले जाएगी।

 

स्पर्श

2-

सुनो लड़कियों इस दुनिया में,

स्पर्श हमेशा प्यार नही,

छूने से कोई अपना हो,

है ऐसा कोई दुलार नही।

 

बहुत हो गया पर्दा – वर्दा,

बहुत हो गई लाज लोक की,

बहुत हो गया त्याग समर्पण,

बहुत हो गई हंसी ठिठोली।

 

हो चेतन अब समय आ गया,

कर तलवार उठाने का,

स्वयं की रक्षा खुद के हाथों,

खुद ही आंख उठाने का।

 

क्या अच्छा और क्या है बुरा अब ?

हर इंसान पहचानो तुम,

समझदार हो खुद में इतना,

हर स्पर्श को जानो तुम।

 

तुम चाहो तो छू न पाए,

हवा भी तुम्हें गुलशन की,

तुम चाहो तो बन सकती हो

ज्वाला खुद में अग्नि की।

 

हाँ मैं इक गृहणी हूँ

3-

हाँ मैं इक गृहणी हूँ इसका

भान मुझे, अभिमान मुझे है

औरों की तरह इसका न,

ग्लान मुझे या मलाल मुझे है।

 

उनसे, जो बाहर जाती हैं

खुद को  मैं कम न पाती हूँ

उनके जितना काम काज मैं,

घर में ही कर जाती हूँ।

 

उन जितनी ही मुझको चिंता,

समय पे लक्ष्य को पाने की,

राशन,पानी, कपड़े, भोजन,

सबको उपलब्ध कराने की।

 

वो पाती हैं वेतन रुपया

पदोन्नति और पदवी सुंदर

मैं पाती हूँ हंसते चेहरे,

संतुष्टि और घर मेरा सुंदर।

 

कहती हूँ मैं सखियों से जो

गृहणी हैं आधार हैं घर की

कुशल और सक्षम हैं खुद में,

आन हैं घर की, शान हैं घर की।

 

तुमसे चार दीवारे और छत

हंसती और जी जाती हैं,

तुमसे ही है हस्ती इनकी,

घर को मंदिर कर जाती हैं।

 

नारी की परिभाषा

4-

बावन अक्षर की वर्णमाला

कम पड़ जाती भाषा में

नारी महिमा पूर्ण न होती,

शब्दों की परिभाषा से।

 

मां की ममता सबसे ऊपर

माँ सी मौसी करे दुलार

बुआ लुटाये प्यार अम्बर सा,

बलिहारी ले बारम्बार।

 

भाभी , मामी, चाची , ताई से

दोस्ती अच्छी खासी है

बहन बड़ी या छोटी हो ,

पर करती दूर उदासी है।

 

दादी से झट पट मिल जाता

शंका का हर समाधान यूँ

दुनिया भर का सारा ज्ञान,

भर गया हो उनकी झोली में ज्यों।

 

नानी के घर चली छुट्टियां

मस्ती मौज मनाने को

एक महीना कम पड़ जाता,

मन भर मन भर जाने को।

 

पुत्री-बहु के रूप में लक्ष्मी

पत्नी अर्धांगी कहलाये

नारी की महिमा में माँ ही,

तुझको परिभाषित कर पाए।

 

मेरा आसमान

 

मैं मेरी हद में रहूं,

ये मेरा आसमान है ,

जहां तक उम्मीदों के पंख जाएं ,

 वो मेरा जहान है।

 

मेरी पलकों में ठहरे समंदर कई,

गहराई से ये दुनिया अनजान है,

हकीकत से हों रूबरू सपने मेरे,

ये मेरे हौसलों की उड़ान है ।

 

राह चलते गिर पडूँ,

ये हिम्मत का इम्तहान है,

सम्भल कर फिर क्यों ना चलूँ,

ये मेरी मंजिलों का पायदान है ।

 

वक्त रुकता नही किसी के लिए,

चलता यूँ ही सुबह ओ शाम है,

चंद लम्हों में बुन लूं मुकद्दर अपना,

हर पल में मेरा मुकाम है।

 

ग़ुरूर में अपने ग़ुम है दुनिया,

मुझे अपने दिल पे नाज़ है,

पूरा नही अधूरा हूँ अब भी,

मेरी हर कोशिश इक रियाज़ है।

नारी

6-

सृष्टि की स्रष्टा है नारी,

आपद में द्रष्टा है नारी,

टूटे मन का संबल नारी,

पौरुष का हर बल है नारी।

सीता का संयम है नारी,

राधा का सच प्रेम है नारी,

मीरा का विश्वास है नारी,

पांचाली की आस है नारी।

यशोमति की ममता नारी,

पद्मा की अस्मिता है नारी,

संबंधों की जननी नारी,

दुर्गा के नौ रूप है नारी।

नारी है कमजोर नही,

गर मन से शक्तिशाली है,

निर्भर है सब उसके मन पर ,

मन से ही कल्याणी है।

मन चाहे तो बदले मंजर,

मन आये तो हांथ ले खंजर,

मन झूमे तो झूमे हर घर,

मन से मन्दिर बना दे हर दर ।

बिन स्त्री संसार अधूरा,

स्त्री बिन हर ख्वाब अधूरा,

नारी से है पूर्ण पुरुष और,

नारीत्व से परिपूर्ण है नारी ।

स्त्री-मन

7-

इक मन पीहर, इक मन पिय घर,

मन में दो मन रखती है,

लड़की से औरत बनने तक,

मन से भर मन लड़ती है।

पीहर बंधन, पिय घर बंधन,

बंधन में वह बाध्य हुई,

पीहर साधे, पिय घर साधे,

साधे – साधे साध्य हुई।

पीहर मन की आस न जागी,

पिय घर मन की प्यास बैरागी,

मन से मन का मेल न पाया,

मन दुविधा से निकल न पाया,

किन्तु मन की मनः स्थिति ,

कोई मन से समझ ना पाया,

भर पूरे जीवन में हरदम ,

मन को सदा अकेला पाया।

पर स्त्री है अद्भुत रचना,

रच के जिसे वो भी भरमाया,

खुद पर जीत दिखाई उसने,

मन को मन का मीत बनाया।

दुःख हो सुख हो या कोई पल हो,

जी भर के मन रो लेता है,

खुश हो उठता है जी भर के,

खुद से अपनी कह लेता है ।

यूँ इक स्त्री, जी जाती है,

घूंट कई

वो पी जाती है,

पर, मन की शक्ति से बनकर,

‘अपराजिता’ वो कहलाती है।

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Saket Saxena

बहुत सुंदर, बेहतरीन