मुझे एक तुम बन्धन दे दो,
शृंगार अपूरित है मेरा।
मेरे पांवों में पड़ी दिखें ,
बस अनुशासन की जंजीरें।
मेरी पर्ण-कुटी के बाहर,
खींचो सब अभिजात्य लकीरें।
निर्मलता को वन्दन दे दो,
शृंगार अपूरित है मेरा।
स्वर्ण-युक्त आभूषण सारे,
मैं निर्जन में टाँग रही हूँ।
मुझे न अणिमा की आभा दो,
मैं बस चंदन मांग रही हूँ।
मुझे माथ का चन्दन दे दो,
शृंगार अपूरित है मेरा।
मुझे न कृत्रिम सौंप उजाले,
देदीप्यमान मेरी मणियाँ।
सौंप न नूपुर चतुर-बटोही,
लौटा दे मेरी प्रतिध्वनियाँ।
मुझे मौन का रंजन दे दो,
शृंगार अपूरित है मेरा।
तुम मुझे न सौंपो सम्मोहन,
उच्चाटन की क्रिया जगा दो।
ओ तंत्र-विज्ञ यह दृष्टि- बाँध ,
मुझे महज निर्वात दिखा दो।
मुझे मात्र यह अंजन दे दो,
शृंगार अपूरित है मेरा।
- गरिमा मिश्रा