शृंगार अपूरित है मेरा, हिंदी कविता – गरिमा मिश्रा

मुझे एक तुम बन्धन दे दो,

शृंगार अपूरित है मेरा।

 

मेरे पांवों में पड़ी दिखें ,

बस अनुशासन की जंजीरें।

मेरी पर्ण-कुटी के बाहर,

खींचो सब अभिजात्य लकीरें।

 

निर्मलता को वन्दन दे दो,

शृंगार अपूरित है मेरा।

 

स्वर्ण-युक्त आभूषण सारे,

मैं निर्जन में टाँग रही हूँ।

मुझे न अणिमा की आभा दो,

मैं बस चंदन मांग रही हूँ।

 

मुझे माथ का चन्दन दे दो,

शृंगार अपूरित है मेरा।

 

मुझे न कृत्रिम सौंप उजाले,

देदीप्यमान मेरी मणियाँ।

सौंप न नूपुर चतुर-बटोही,

लौटा दे मेरी प्रतिध्वनियाँ।

 

मुझे मौन का रंजन दे दो,

शृंगार अपूरित है मेरा।

 

तुम मुझे न सौंपो सम्मोहन,

उच्चाटन की क्रिया जगा दो।

ओ तंत्र-विज्ञ यह दृष्टि- बाँध ,

मुझे महज निर्वात दिखा दो।

 

मुझे मात्र यह अंजन दे दो,

शृंगार अपूरित है मेरा।

‏- गरिमा मिश्रा

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