देश को जल, शिक्षा, चिकित्सा, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएँ चाहिए,देश हित हेतु प्रशासनिक अधिकारी, चिकित्सक, अभियंता सैनिक चाहिए परंतु ये आयेंगे कहाँ से?
लोकतांत्रिक सरकार में ये सुविधाएँ उपलब्ध करवाना राज्य व्यवस्था का कार्य है,जब राज्य अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन में असफल हो जाता है तो ये सारे कार्य निजी संस्थाओं के हाथ में चली जाती हैं , फिर निजी संस्थाएँ अपना बाजार बनाती हैं और स्वंय इसका मानक तय करती हैं, यहाँ तक तो ठीक है परंतु जब निजी संस्थाओं पर सरकार लगाम कसना बंद कर देती है तो ये ख़ुद को आका मान लेती हैं, अराजक हो जाती हैं, फिर आय दिन दिल दहलाने वाली घटनाएं अख़बार की सुर्खियाँ बनने लगती हैं जो सुनहरे भविष्य का स्वप्न देख रही आँखों को निराश्य की ओर ले जाती है।
बात शिक्षा व्यवस्था की करते हैं, doctors, engineers, IAS, IPS बनाने वाली संस्थाएँ आजकल सपने बेचने का कार्य कर रही हैं जिसके ग्राहक बन रहे हैं बड़े – बड़े सपने सजाए हुए भोले – भाले मध्यमवर्गीय परिवार के बेटे बेटियाँ, इसका प्रमाण है कि कोटा और मुखर्जी नगर जैसे स्थान डॉक्टर, इंजीनियर, IAS ,IPS बनाने की फैक्ट्री बन चुके हैं जिसमें मज़दूर ही इसके उत्पाद है।खुद के अस्तित्व से जद्दोजहद करते हुए छात्रों के भावनाओं के साथ ये संस्थाएँ इस प्रकार खेलती हैं कि छात्र ये तय नहीं कर पाते हैं कि प्राथमिकता के स्तर पर पहले सपने हैं या जिंदगी और इसका परिणाम यह निकलता है कि परिक्षा उत्तीर्ण न होने पर अपने अस्तित्व को ख़त्म कर लेने को अंतिम विकल्प मान लेते है।
यह दुर्भाग्य है कि ऐसी घटनाओं पर सरकारें कानो में तेल डाल लेती हैं और सरकार के बाहर की प्रखर आवाज़ें भी मूक – बधिर हो जाती हैं
पिछले वर्ष दिल्ली में हुई बेसमेंट वाली घटना का वास्तविक जिम्मेदार कौन है ? सरकार , संस्था , अभिभावक या स्वयं छात्र। सरकार की व्यवस्था ऐसी है कि पीने के लिए पानी खरीदनी पड़ती है और डूबने के लिए पर्याप्त मिल जाती है, शिक्षकों की मुखौटा पहने हुए व्यापरियों की पैसे कमाने की लिप्सा इतनी प्रबल है कि संख्याबल अधिक होने पर कक्षाएँ बेसमेंट में संचालित की जा रही हैं, छात्र द्वारा अनेक बार मना करने के बावजूद भी अभिभावक ये मानने को तैयार नहीं हैं कि उनके पाल्य का मन-मानस उसके अनुरूप नहीं है जिसमें वो अपने बच्चे को निवेश कर रहे हैं ।
यदि हम सुधार की सम्भावनाओं पर ध्यान दें तो सर्वप्रथम सरकार को इस पर ठोस कदम उठाना चाहिए कि व्यापार की शिक्षा हो, शिक्षा का व्यापार न हो, येन येन केन प्रकारेण उन संस्थाओं पर अंकुश लगाए जो अत्याधिक धनोपार्जन के हवस में अपने नैतिकता से विमुख हो रही हैं।
– सीमा सिंघानिया
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