ग़ज़ल
मुझको नसीब प्यार जो मेरा नहीं हुआ,
फिर जिंदगी का पूर्ण भी किस्सा नहीं हुआ।
अपने अमल पे पहले नज़र डालिए ज़रा,
फिर कहिए मेरे साथ अच्छा नहीं हुआ।
था, अपने बीच जात का हायल जो मसअला,
उस शोख़ से रिश्ता मेरा पक्का नहीं हुआ।
जो दूसरों के घर के बुझाता रहा दिये,
पैदा फिर उसके घर में भी, लड़का नहीं हुआ।
चेहरे, दिखाए वक्त ने कुछ इस कदर मुझे,
फिर मुझको किसी पर भी भरोसा नहीं हुआ।
सर पे है मेरे बाप का साया अभी तलक,
अब तक कठिन हयात का रस्ता नहीं हुआ।
कर दे जो पस्त हौसला प्यारे मुझे कहीं,
अब तक बशर वो कोई भी पैदा नहीं हुआ।
– प्रदीप प्यारे ( संयोजक )