1 – बड़े घर की बेटी
(1)
बेनी माधव सिंह मौज़ा गौरीपुर के ज़मींदार नंबरदार थे। उनके बुज़ुर्ग किसी ज़माने में बड़े साहिब-ए-सर्वत थे। पुख़्ता तालाब और मंदिर उन्हीं की यादगार थी। कहते हैं इस दरवाज़े पर पहले हाथी झूमता था। उस हाथी का मौजूदा नेम-उल-बदल एक बूढ़ी भैंस थी जिसके बदन पर गोश्त तो न था मगर शायद दूध बहुत देती थी। क्यूँकि हर वक़्त एक न एक आदमी हाँडी लिए उसके सर पर सवार रहता था। बेनी माधव सिंह ने निस्फ़ से ज़ाइद जायदाद वकीलों की नज़्र की और अब उनकी सालाना आमदनी एक हज़ार से ज़ाइद न थी।
ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम सिरी कंठ सिंह था। उसने एक मुद्दत-ए-दराज़ की जानकाही के बाद बी.ए. की डिग्री हासिल की थी। और अब एक दफ़्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल बिहारी सिंह दोहरे बदन का सजीला जवान था। भरा हुआ चेहरा चौड़ा सीना भैंस का दो सेर ताज़ा दूध का नाश्ता कर जाता था। सिरी कंठ उससे बिल्कुल मुतज़ाद थे। इन ज़ाहिरी ख़ूबियों को उन्होंने दो अंग्रेज़ी हुरूफ़ बी.ए. पर क़ुर्बान कर दिया था। इन्हीं दो हर्फ़ों ने उनके सीने की कुशादगी, क़द की बुलंदी, चेहरे की चमक, सब हज़्म कर ली थी। ये हज़रत अब अपना वक़्त-ए-फ़ुर्सत तिब के मुताले में सर्फ़ करते थे।आयुर्वेदिक दवाओं पर ज़्यादा अक़ीदा था। शाम सवेरे उनके कमरे से अक्सर खरल की ख़ुश-गवार पैहम सदाएँ सुनाई दिया करती थीं। लाहौर और कलकत्ता के वैदों से बहुत ख़त-ओ-किताबत रहती थी।
सिरी कंठ इस अंग्रेज़ी डिग्री के बावजूद अंग्रेज़ी मुआशरत के बहुत मद्दाह न थे। बल्कि इसके बर-अक्स वो अक्सर बड़ी शद्द-ओ-मद से उसकी मज़म्मत किया करते थे। इसी वज्ह से गाँव में उनकी बड़ी इज़्ज़त थी। दसहरे के दिनों में वो बड़े जोश से राम लीला में शरीक होते और ख़ुद हर-रोज़ कोई न कोई रूप भरते, उन्हीं की ज़ात से गौरीपुर में राम लीला का वजूद हुआ। पुराने रस्म-ओ-रिवाज का उनसे ज़्यादा पुर-जोश वकील मुश्किल से होगा। ख़ुसूसन मुशतर्का ख़ानदान के वो ज़बरदस्त हामी थे। आज कल बहुओं को अपने कुन्बे के साथ मिल-जुल कर रहने में जो वहशत होती है, उसे वो मुल्क और क़ौम के लिए फ़ाल-ए-बद ख़याल करते थे। यही वज्ह थी कि गाँव की बहुएँ उन्हें मक़बूलियत की निगाह से न देखती थीं, बाज़-बाज़ शरीफ़-ज़ादियाँ तो उन्हें अपना दुश्मन समझतीं। ख़ुद उन ही की बीवी उनसे इस मसअले पर अक्सर ज़ोर-शोर से बहस करती थीं। मगर इस वज्ह से नहीं कि उसे अपने सास-ससुरे, देवर-जेठ से नफ़रत थी। बल्कि उसका ख़याल था कि अगर ग़म खाने और तरह देने पर भी कुन्बे के साथ निबाह न हो सके तो आए दिन की तकरार से ज़िंदगी तल्ख़ करने के बजाए यही बेहतर है कि अपनी खिचड़ी अलग पकाई जाए।
आनंदी एक बड़े ऊँचे ख़ानदान की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी सी रियासत के तअल्लुक़ेदार थे। आलीशान महल। एक हाथी, तीन घोड़े, पाँच वर्दी-पोश सिपाही। फ़िटन, बहलियाँ, शिकारी कुत्ते, बाज़, बहरी, शिकरे, जर्रे, फ़र्श-फ़रोश शीशा-आलात, ऑनरेरी मजिस्ट्रेटी और क़र्ज़ जो एक मुअ’ज़्ज़ज़ तअल्लुक़ेदार के लवाज़िम हैं। वो उनसे बहरा-वर थे। भूप सिंह नाम था। फ़राख़-दिल, हौसला-मंद आदमी थे, मगर क़िस्मत की ख़ूबी, लड़का एक भी न था। सात लड़कियाँ ही लड़कियाँ हुईं और सातों ज़िंदा रहीं। अपने बराबर या ज़्यादा ऊँचे ख़ानदान में उनकी शादी करना अपनी रियासत को मिट्टी में मिलाना था। पहले जोश में उन्होंने तीन शादियाँ दिल खोल कर कीं। मगर जब पंद्रह-बीस हज़ार के मक़रूज़ हो गए तो आँखें खुलीं। हाथ पैर पीट लिए। आनंदी चौथी लड़की थी। मगर अपनी सब बहनों से ज़्यादा हसीन और नेक, इसी वज्ह से ठाकुर भूप सिंह उसे बहुत प्यार करते थे। हसीन बच्चे को शायद उसके माँ-बाप भी ज़्यादा प्यार करते हैं। ठाकुर साहब बड़े पस-ओ-पेश में थे कि इसकी शादी कहाँ करें। न तो यही चाहते थे कि क़र्ज़ का बोझ बढ़े और न यही मंज़ूर था कि उसे अपने आपको बद-क़िस्मत समझने का मौक़ा मिले। एक रोज़ सिरी कंठ उनके पास किसी चंदे के लिए रुपया माँगने आए। शायद नागरी प्रचार का चंदा था। भूप सिंह उनके तौर-ओ-तरीक़ पर रीझ गए, खींच-तान कर ज़ाइचे मिलाए गए। और शादी धूम-धाम से हो गई।
आनंदी देवी अपने नए घर में आईं तो यहाँ का रंग-ढंग कुछ और ही देखा। जिन दिलचस्पियों और तफ़रीहों की वो बचपन से आदी थी, उनका यहाँ वजूद भी न था। हाथी घोड़ों का तो ज़िक्र क्या, कोई सजी हुई ख़ूबसूरत बहली भी न थी। रेशमी स्लीपर साथ लाई थीं, मगर यहाँ बाग़ कहाँ मकान में खिड़कियाँ तक न थीं। न ज़मीन पर फ़र्श न दीवारों पर तस्वीरें, ये एक सीधा-सादा दहक़ानी मकान था। आनंदी ने थोड़े ही दिनों में इन तब्दीलियों से अपने तईं इस क़दर मानूस बना लिया, गोया उसने तकल्लुफ़ात कभी देखे ही नहीं।
(2)
एक रोज़ दोपहर के वक़्त लाल बिहारी सिंह दो मुरग़ाबियाँ लिए हुए आए और भावज से कहा। जल्दी से गोश्त पका दो। मुझे भूक लगा है। आनंदी खाना पका कर उनकी मुंतज़िर बैठी थी। गोश्त पकाने बैठी मगर हाँडी में देखा तो घी पाव भर से ज़्यादा न था। बड़े घर की बेटी। किफ़ायत-शिआरी का सबक़ अभी अच्छी तरह न पढ़ी थी। उसने सब घी गोश्त में डाल दिया। लाल बिहारी सिंह खाने बैठे तो दाल में घी न था। “दाल में घी क्यूँ नहीं छोड़ा?”
आनंदी ने कहा, “घी सब गोश्त में पड़ गया।”
लाल बिहारी, “अभी परसों घी आया है। इस क़दर जल्द उठ गया।”
आनंदी, “आज तो कुल पाव भर था। वो मैंने गोश्त में डाल दिया।”
जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है। उसी तरह भूक से बावला इंसान ज़रा-ज़रा बात पर तुनक जाता है। लाल बिहारी सिंह को भावज की ये ज़बान-दराज़ी बहुत बुरी मालूम हुई। तीखा हो कर बोला। “मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो।”
औरत गालियाँ सहती है। मार सहती है, मगर मैके की निंदा उससे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली, “हाथी मरा भी तो नौ लाख का। वहाँ इतना घी रोज़ नाई-कहार खा जाते हैं।”
लाल बिहारी जल गया। थाली उठा कर पटक दी। और बोला, “जी चाहता है कि तालू से ज़बान खींच ले।”
आनंदी को भी ग़ुस्सा आ गया। चेहरा सुर्ख़ हो गया। बोली, “वो होते तो आज इसका मज़ा चखा देते।”
अब नौजवान उजड्ड ठाकुर से ज़ब्त न हो सका। उसकी बीवी एक मामूली ज़मींदार की बेटी थी। जब जी चाहता था उस पर हाथ साफ़ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठा कर आनंदी की तरफ़ ज़ोर से फेंकी और बोला, “जिसके गुमान पर बोली हो। उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी।”
आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सर बच गया। मगर उँगली में सख़्त चोट आई। ग़ुस्से के मारे हवा के हिलते हुए पत्ते की तरह काँपती हुई अपने कमरे में आकर खड़ी हो गई। औरत का ज़ोर और हौसला, ग़ुरूर-ओ-इज़्ज़त शौहर की ज़ात से है, उसे शौहर ही की ताक़त और हिम्मत का घमंड होता है। आनंदी ख़ून का घूँट पी कर रह गई।
(3)
सिरी कंठ सिंह हर शंबा को अपने मकान पर आया करते थे। जुमेरात का ये वाक़िआ’ था। दो दिन तक आनंदी ने न कुछ खाया न पिया। उनकी राह देखती रही। आख़िर शंबा को हस्ब-ए-मामूल शाम के वक़्त वो आए और बाहर बैठ कर कुछ मुल्की-ओ-माली ख़बरें, कुछ नए मुक़द्दमात की तज्वीज़ें और फ़ैसले बयान करने लगे। और सिलसिला-ए-तक़रीर दस बजे रात तक जारी रहा। दो-तीन घंटे आनंदी ने बे-इंतिहा इज़्तिराब के आ’लम में काटे। बारे खाने का वक़्त आया। पंचायत उठी। जब तख़्लिया हुआ तो लाल बिहारी ने कहा, “भैया आप ज़रा घर में समझा दीजिएगा कि ज़बान सँभाल कर बात-चीत किया करें। वर्ना नाहक़ एक दिन ख़ून हो जाएगा।”
बेनी माधव सिंह ने शहादत दी, “बहू-बेटियों की ये आदत अच्छी नहीं कि मर्दों के मुँह लगें।”
लाल बिहारी, “वो बड़े घर की बेटी हैं तो हम लोग भी कोई कुर्मी-कहार नहीं हैं।”
सिरी कंठ, “आख़िर बात क्या हुई?”
लाल बिहारी, कुछ भी नहीं, “यूँ ही आप ही आप उलझ पड़ीं, मैके के सामने हम लोगों को तो कुछ समझती ही नहीं।”
सिरी कंठ खा पी कर आनंदी के पास गए। वो भी भरी बैठी थी। और ये हज़रत भी कुछ तीखे थे।
आनंदी ने पूछा, “मिज़ाज तो अच्छा है?”
सिरीकंठ बोले, ”बहुत अच्छा है। ये आजकल तुमने घर में क्या तूफ़ान मचा रक्खा है?”
आनंदी के तेवरों पर बल पड़ गए। और झुँझलाहट के मारे बदन में पसीना आ गया। बोली, “जिसने तुमसे ये आग लगाई है, उसे पाऊँ तो मुँह झुलस दूँ।”
सिरी कंठ, “इस क़दर तेज़ क्यूँ होती हो, कुछ बात तो कहो।”
आनंदी, “क्या कहूँ। क़िस्मत की ख़ूबी है। वर्ना एक गँवार लौंडा जिसे चपरासी-गिरी करने की भी तमीज़ नहीं, मुझे खड़ाऊँ से मार कर यूँ न अकड़ता फिरता। बोटियाँ नुचवा लेती। इस पर तुम पूछते हो कि घर में तूफ़ान क्यूँ मचा रक्खा है।”
सिरी कंठ, “आख़िर कुछ कैफ़ियत तो बयान करो। मुझे तो कुछ मालूम ही नहीं।”
आनंदी, “परसों तुम्हारे लाडले भाई ने मुझे गोश्त पकाने को कहा। घी पाव भर से कुछ ज़्यादा था। मैंने सब गोश्त में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा दाल में घी क्यूँ नहीं। बस उसी पर मेरे मैके को बुरा-भला कहने लगा। मुझसे बर्दाश्त न हो सका। बोली कि वहाँ इतना घी नाई-कहार खा जाते हैं और किसी को ख़बर भी नहीं होती। बस इतनी सी बात पर उस ज़ालिम ने मुझे खड़ाऊँ फेंक मारी। अगर हाथ से न रोकती तो सर फट जाता। उससे पूछो कि मैंने जो कुछ कहा है सच है या झूट?”
सिरी कंठ की आँखें लाल हो गईं। बोले, “यहाँ तक नौबत पहुँच गई। ये लौंडा तो बड़ा शरीर निकला।”
आनंदी रोने लगी। जैसे औरतों का क़ायदा है। क्यूँकि आँसू उनकी पल्कों पर रहता है। औरत के आँसू मर्द के ग़ुस्से पर रोग़न का काम करते हैं। सिरी कंठ के मिज़ाज में तहम्मुल बहुत था। उन्हें शायद कभी ग़ुस्सा आया ही न था। मगर आनंदी के आँसूओं ने आज ज़हरीली शराब का काम किया। रात-भर करवटें बदलते रहे। सवेरा होते ही अपने बाप के पास जा कर बोले, “दादा अब मेरा निबाह इस घर में न होगा।”
ये और इस मा’नी के दूसरे जुमले ज़बान से निकालने के लिए सिरी कंठ सिंह ने अपने कई हम-जोलियों को बारहा आड़े हाथों लिया था। जब उनका कोई दोस्त उनसे ऐसी बातें कहता तो वो मज़हका उड़ाते और कहते, तुम बीवियों के ग़ुलाम हो। उन्हें क़ाबू में रखने के बजाए ख़ुद उनके क़ाबू में हो जाते हो। मगर हिन्दू मुश्तरका ख़ानदान का यह पुर-जोश वकील आज अपने बाप से कह रहा था, “दादा! अब मेरा निबाह इस घर में न होगा।” नासेह की ज़बान उसी वक़्त तक चलती है। जब तक वो इश्क़ के करिश्मों से बे-ख़बर रहता है। आज़माइश के बीच में आ कर ज़ब्त और इल्म रुख़्सत हो जाते हैं।
बेनी माधव सिंह घबरा कर उठ बैठे और बोले, “क्यूँ।”
सिरी कंठ, “इसलिए कि मुझे भी अपनी इज़्ज़त का कुछ थोड़ा बहुत ख़याल है। आपके घर में अब हट-धर्मी का बर्ताव होता है। जिनको बड़ों का अदब होना चाहिए, वो उनके सर चढ़ते हैं। मैं तो दूसरे का ग़ुलाम ठहरा, घर पर रहता नहीं और यहाँ मेरे पीछे औरतों पर खड़ाऊँ और जूतों की बौछाड़ होती है। कड़ी बात तक मुज़ाइक़ा नहीं, कोई एक की दो कह ले। यहाँ तक मैं ज़ब्त कर सकता हूँ। मगर ये नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात और घूँसे पड़े और मैं दम न मारूँ।”
बेनी माधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। सिरी कंठ हमेशा उनका अदब करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर ला-जवाब हो गया। सिर्फ़ इतना बोला, “बेटा तुम अक़्ल-मंद हो कर ऐसी बातें करते हो। औरतें इसी तरह घर तबाह कर देती हैं। उनका मिज़ाज बढ़ाना अच्छी बात नहीं।”
सिरी कंठ, “इतना मैं जानता हूँ। आपकी दुआ से ऐसा अहमक़ नहीं हूँ। आप ख़ुद जानते हैं कि इस गाँव के कई ख़ानदानों को मैंने अलहदगी की आफ़तों से बचा दिया है। मगर जिस औरत की इज़्ज़त-ओ-आबरू का मैं ईश्वर के दरबार में ज़िम्मेदार हूँ, उस औरत के साथ ऐसा ज़ालिमाना बरताव मैं नहीं सह सकता। आप यक़ीन मानिए मैं अपने ऊपर बहुत जब्र कर रहा हूँ कि लाल बिहारी की गोशमाली नहीं करता।”
अब बेनी माधव भी गरमाए। ये कुफ़्र ज़्यादा न सुन सके बोले, “लाल बिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल-चूक हो। तुम उसके कान पकड़ो। मगर…”
सिरी कंठ, “लाल बिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।”
बेनी माधव, “औरत के पीछे।”
सिरी कंठ, “जी नहीं! उसकी गुस्ताख़ी और बे-रहमी के बाइस।”
दोनों आदमी कुछ देर तक ख़ामोश रहे। ठाकुर साहब लड़के का ग़ुस्सा धीमा करना चाहते थे। मगर ये तस्लीम करने को तैयार न थे कि लाल बिहारी से कोई गुस्ताख़ी या बे-रहमी वक़ूअ में आई। इसी अस्ना में कई और आदमी हुक़्क़ा तंबाकू उड़ाने के लिए आ बैठे। कई औरतों ने जब सुना कि सिरी कंठ बीवी के पीछे बाप से आमादा-ए-जंग हैं तो उनका दिल बहुत ख़ुश हुआ और तरफ़ैन की शिकवा-आमेज़ बातें सुनने के लिए उनकी रूहें तड़पने लगीं।
कुछ ऐसे हासिद भी गाँव में थे जो इस ख़ानदान की सलामत-रवी पर दिल ही दिल में जलते थे। सिरी कंठ बाप से दबता था। इसलिए वो ख़तावार है। उसने इतना इल्म हासिल किया। ये भी उसकी ख़ता है। बेनी माधव सिंह बड़े बेटे को बहुत प्यार करते हैं। ये बुरी बात है। वो बिला उसकी सलाह के कोई काम नहीं करते। ये उनकी हिमाक़त है। इन ख़यालात के आदमियों की आज उम्मीदें भर आईं। हुक़्क़ा पीने के बहाने से, कोई लगान की रसीद दिखाने के हीले से आ-आ कर बैठ गए। बेनी माधव सिंह पुराना आदमी था। समझ गया कि आज ये हज़रात फूले नहीं समाते। उसके दिल ने ये फ़ैसला किया कि उन्हें ख़ुश न होने दूँगा। ख़्वाह अपने ऊपर कितना ही जब्र हो। यका-य़क लहजा-ए-तक़रीर नर्म कर के बोले, “बेटा! मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ। तुम्हारा जो ची चाहे करो। अब तो लड़के से ख़ता हो गई।”
इलहाबाद का नौजवान, झल्लाया हुआ ग्रेजुएट… इस घात को न समझा। अपने डिबेटिंग क्लब में उसने अपनी बात पर अड़ने की आदत सीखी थी। मगर अमली मुबाहिसों के दाँव-पेच से वाक़िफ़ न था। इस मैदान में वो बिल्कुल अनाड़ी निकला। बाप ने जिस मतलब से पहलू बदला था, वहाँ तक उसकी निगाह न पहुँची। बोला, “मैं लाल बिहारी सिंह के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता।”
बाप, “बेटा! तुम अक़्लमंद हो और अक़्लमंद आदमी गँवारों की बात पर ध्यान नहीं देता। वो बे-समझ लड़का है, उससे जो कुछ ख़ता हुई है उसे तुम बड़े हो कर मुआफ़ कर दो।”
बेटा, “उसकी ये हरकत मैं हरगिज़ मुआफ़ नहीं कर सकता। या तो वही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगा। आपको अगर उससे ज़्यादा मोहब्बत है तो मुझे रुख़्सत कीजिए। मैं अपना बोझ आप उठा लूँगा। अगर मुझे रखना चाहते हो तो उससे कहिए, जहाँ चाहे चला जाए। बस ये मेरा आख़िरी फ़ैसला है।”
लाल बिहारी सिंह दरवाज़े की चौखट पर चुप-चाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था। वो उनका बहुत अदब करता था। उसे कभी इतनी जुर्रत न हुई थी कि सिरी कंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाए या हुक़्क़ा पी ले या पान खा ले। अपने बाप का भी इतना पास-ओ-लिहाज़ न करता था। सिरी कंठ को भी उससे दिली-मोहब्बत थी। अपने होश में उन्होंने कभी उसे घुड़का तक न था। जब इलहाबाद से आते तो ज़रूर उसके लिए कोई न कोई तोहफ़ा लाते। मुगदर की जोड़ी उन्होंने ही बनवा कर दी थी। पिछले साल जब उसने अपने से डेवढ़े जवान को नाग-पंचमी के दंगल में पछाड़ दिया तो उन्होंने ख़ुश हो कर अखाड़े ही में जा कर उसे गले से लगा लिया था। और पाँच रुपये के पैसे लुटाए थे। ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी जिगर-दोज़ बातें सुनकर लाल बिहारी सिंह को बड़ा मलाल हुआ। उसे ज़रा भी ग़ुस्सा न आया। वो फूटकर रोने लगा। इसमें कोई शक नहीं कि वो अपने फे़ल पर आप नादिम था।
भाई के आने से एक दिन पहले ही से उसका दिल हर दम धड़कता था कि देखूँ भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सामने कैसे जाऊँगा। मैं उनसे कैसे बोलूँगा। मेरी आँखें उनके सामने कैसे उट्ठेंगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुला कर समझा देंगे। इस उम्मीद के ख़िलाफ़ आज वो उन्हें अपनी सूरत से बे-ज़ार पाता था। वो जाहिल था मगर उसका दिल कहता था कि भैया मेरे साथ ज़्यादती कर रहे हैं। अगर सिरी कंठ उसे अकेला बुला कर दो-चार मिनट सख़्त बातें कहते बल्कि दो-चार तमाँचे भी लगा देते तो शायद उसे इतना मलाल न होता। मगर भाई का ये कहना कि अब मैं उसकी सूरत से नफ़रत रखता हूँ। लाल बिहारी से न सहा गया।
वो रोता हुआ घर में आया और कोठरी में जा कर कपड़े पहने। फिर आँखें पोंछीं, जिससे कोई ये न समझे कि रोता था। तब आनंदी देवी के दरवाज़े पर आ कर बोला, “भाबी! भैया ने ये फ़ैसला किया है कि वो मेरे साथ इस घर में न रहेंगे। वह अब मेरा मुँह देखना नहीं चाहते। इसलिए अब मैं जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊँगा। मुझसे जो ख़ता हुई है उसे मुआफ़ करना।”
ये कहते-कहते लाल बिहारी की आवाज़ भारी हो गई।
(4)
जिस वक़्त लाल बिहारी सिंह सर झुकाए आनंदी के दरवाज़े पर खड़ा था। उसी वक़्त सिरी कंठ भी आँखें लाल किए बाहर से आए। भाई को खड़ा देखा तो नफ़रत से आँखें फेर लीं और कतरा कर निकल गए। गोया उसके साये से भी परहेज़ है।
आनंदी ने लाल बिहारी सिंह की शिकायत तो शौहर से की। मगर अब दिल में पछता रही थी। वो तबअन नेक औरत थी। और उसके ख़याल में भी न था कि ये मुआ’मला इस क़दर तूल खींचेगा। वो दिल ही दिल में अपने शौहर के ऊपर झुँझला रही थी कि इस क़दर गर्म क्यूँ हो रहे हैं। ये ख़ौफ़ कि कहीं मुझे इलाहबाद चलने को न कहने लगें, तो फिर मैं क्या करूँगी। उसके चेहरे को ज़र्द किए हुए थे। इसी हालत में जब उसने लाल बिहारी को दरवाज़े पर खड़े ये कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ। मुझसे जो कुछ ख़ता हुई है मुआफ़ करना तो उसका रहा सहा ग़ुस्सा भी पानी हो गया। वो रोने लगी। दिलों का मैल धोने के लिए आँसू से ज़्यादा कारगर कोई चीज़ नहीं है।
सिरी कंठ को देखकर आनंदी ने कहा, “लाला बाहर खड़े हैं, बहुत रो रहे हैं।”
सिरी कंठ, “तो मैं क्या करूँ?”
आनंदी, “अंदर बुला लो। मेरी ज़बान को आग लगे। मैंने कहाँ से वो झगड़ा उठाया।”
सिरी कंठ, “मैं नहीं बुलाने का।”
आनंदी, “पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि आ गई है। ऐसा न हो, कहीं चल दें।”
सिरी कंठ न उठे। इतने में लाल बिहारी ने फिर कहा, “भाबी! भैया से मेरा सलाम कह दो। वो मेरा मुँह नहीं देखना चाहते। इसलिए मैं भी अपना मुँह उन्हें न दिखाऊँगा।”
लाल बिहारी सिंह इतना कह कर लौट पड़ा। और तेज़ी से बाहर के दरवाज़े की तरफ़ जाने लगा। यका-यक आनंदी अपने कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लाल बिहारी ने पीछे की तरफ़ ताका और आँखों में आँसू भर कर बोला, “मुझको जाने दो।”
आनंदी, “कहाँ जाते हो?”
लाल बिहारी, “जहाँ कोई मेरा मुँह न देखे।”
आनंदी, “मैं न जाने दूँगी।”
लाल बिहारी, “मैं लोगों के साथ रहने के क़ाबिल नहीं हूँ।”
आनंदी, “तुम्हें मेरी क़सम अब एक क़दम भी आगे न बढ़ाना।”
लाल बिहारी, “जब तक मुझे ये न मालूम हो जाएगा कि भैया के दिल में मेरी तरफ़ से कोई तकलीफ़ नहीं तब तक मैं इस घर में हरगिज़ न रहूँगा।”
आनंदी, “मैं ईश्वर की सौगंध खा कर कहती हूँ कि तुम्हारी तरफ़ से मेरे दिल में ज़रा भी मैल नहीं है।”
अब सिरी कंठ का दिल पिघला। उन्होंने बाहर आ कर लाल को गले लगा लिया। और दोनों भाई ख़ूब फूट-फूटकर रोए। लाल बिहारी ने सिसकते हुए कहा, “भैया! अब कभी न कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूँगा। इसके सिवा जो सज़ा आप देंगे वो मैं ख़ुशी से क़ुबूल करूँगा।”
सिरी कंठ ने काँपती हुई आवाज़ से कहा, “लल्लू इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा तो अब ऐसी बातों का मौक़ा न आएगा।”
बेनी माधव सिंह बाहर से ये देख रहे थे। दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर ख़ुश हो गए और बोल उठे, “बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं।”
गाँव में जिसने ये वृतांत’ सुना, इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा, “बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।”
2 – सद् गति
दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने काम से फुर्सत पा चुके थे, तो चमारिन ने कहा, ‘तो जाके पंडित बाबा से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जायँ।‘
दुखी –‘ हाँ जाता हूँ, लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज पर ?’
झुरिया –‘ क़हीं से खटिया न मिल जायगी ? ठकुराने से माँग लाना।‘
दुखी –‘ तू तो कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुरानेवाले मुझे खटिया देंगे ! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे ! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला खटिया कौन देगा ! हमारे उपले, सेंठे, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहे उठा ले जायँ। ले अपनी खटोली धोकर रख दे। गरमी के तो दिन हैं। उनके आते-आते सूख जायगी।‘
झुरिया –‘वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेम-धरम से रहते हैं।‘
दुखी ने जरा चिंतित होकर कहा, ‘हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाय। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं। वह पवित्तर है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ।‘
झुरिया –‘पत्तल मैं बना लूँगी, तुम जाओ। लेकिन हाँ, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ ?’
दुखी –‘क़हीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाय और थाली भी फूटे ! बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी विरोध चढ़ आता है। किरोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं, लड़के को ऐसा पीटा कि आज
तक टूटा हाथ लिये फिरता है। पत्तल में सीधा भी देना, हाँ। मुदा तू छूना मत।‘
झूरी –‘ गोंड़ की लड़की को लेकर साह की दूकान से सब चीजें ले आना। सीधा भरपूर हो। सेर भर आटा, आधा सेर चावल, पाव भर दाल, आधा पाव घी, नोन, हल्दी और पत्तल में एक किनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड़ की लड़की न मिले तो भुर्जिन के हाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, नहीं गजब हो जायगा।‘
इन बातों की ताकीद करके दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से अर्ज करने चला। खाली हाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता। नजराने के लिए उसके पास घास के सिवाय और क्या था। उसे खाली देखकर तो बाबा दूर ही से दुत्कारते। पं. घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे। नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते। मुँह-हाथ धोते आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती, जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आधा घण्टे तक चन्दन रगड़ते, फिर आईने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच में लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती पर, बाहों पर चन्दन की गोल-गोल मुद्रिकाएं बनाते। फिर ठाकुरजी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते। दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते ! ईशोपासन का तत्काल फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी। आज वह पूजन-गृह से निकले, तो देखा दुखी चमार घास का एक गट्ठा लिये बैठा है। दुखी उन्हें देखते ही उठ खड़ा हुआ और उन्हें साष्टांग दंडवत् करके हाथ बाँधकर खड़ा हो गया। यह तेजस्वी मूर्ति देखकर उसका ह्रदय श्रृद्धा से परिपूर्ण हो गया ! कितनी दिव्य मूर्ति थी। छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, चिकना सिर, फूले गाल, ब्रह्मतेज से प्रदीप्त आँखें। रोरी और चंदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी। दुखी को देखकर श्रीमुख से बोले – ‘आज कैसे चला रे दुखिया ?’
दुखी –‘ने सिर झुकाकर कहा, बिटिया की सगाई कर रहा हूँ महाराज। कुछ साइत-सगुन विचारना है। कब मर्जी होगी ?’
घासी –‘आज मुझे छुट्टी नहीं। हाँ साँझ तक आ जाऊँगा।‘
दुखी –‘नहीं महराज, जल्दी मर्जी हो जाय। सब सामान ठीक कर आया हूँ। यह घास कहाँ रख दूँ ?
घासी –‘इस गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर जरा आराम करके चलूँगा। हाँ, यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार खाँची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना।‘
दुखी फौरन हुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब बारह बज गये। पंडितजी भोजन करने चले गये। दुखी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उसे भी जोर की भूख लगी; पर वहाँ खाने को क्या धारा था। घर यहाँ से मील भर था। वहाँ खाने चला जाय, तो पंडितजी बिगड़ जायँ। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाँठ थी; जिस पर पहले कितने ही भक्तों ने अपना जोर आजमा लिया था। वह उसी दम-खम के साथ लोहे से लोहा लेने के लिए तैयार थी। दुखी घास छीलकर बाजार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपे के सामने सिर झुका देती थी। यहाँ कस-कसकर कुल्हाड़ी का भरपूर हाथ लगाता; पर उस गाँठ पर निशान तक न पड़ता था। कुल्हाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, हाँफता था, थककर बैठ जाता था, फिर उठता था। हाथ उठाये न उठते थे, पाँव काँप रहे थे, कमर न सीधी होती थी, आँखों तले अँधेरा हो रहा था, सिर में चक्कर आ रहे थे, तितलियाँ उड़ रही थीं, फिर भी अपना काम किये जाता था। अगर एक चिलम तम्बाकू पीने को मिल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।
उसने सोचा, यहाँ चिलम और तम्बाकू कहाँ मिलेगी। बाह्मनों का पूरा है। बाह्मन लोग हम नीच जातों की तरह तम्बाकू थोड़े ही पीते हैं। सहसा उसे याद आया कि गाँव में एक गोंड़ भी रहता है। उसके यहाँ जरूर चिलम-तमाखू होगी। तुरत उसके घर दौड़ा। खैर मेहनत सुफल हुई। उसने तमाखू भी दी और चिलम भी दी; पर आग वहाँ न थी। दुखी ने कहा, आग की चिन्ता न करो भाई। मैं जाता हूँ, पंडितजी के घर से आग माँग लूँगा। वहाँ तो अभी रसोई बन रही थी। यह कहता हुआ वह दोनों चीज़ें लेकर चला आया और पंडितजी के घर में बरौठे के द्वार पर खड़ा होकर बोला, ‘मालिक, रचिके आग मिल जाय, तो चिलम पी लें।‘
पंडितजी भोजन कर रहे थे। पंडिताइन ने पूछा, ‘यह कौन आदमी आग माँग रहा है ?’
पंडित –‘अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा, है थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।‘
पंडिताइन ने भॅवें चढ़ाकर कहा, ‘तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रो के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि ही नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार से चला जाय, नहीं तो इस लुआठे से मुँह झुलस दूँगी। आग माँगने चले हैं।‘
पंडितजी ने उन्हें समझाकर कहा, ‘भीतर आ गया, तो क्या हुआ। तुम्हारी कोई चीज तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। जरा-सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लोनिया यही लकड़ी फाड़ता, तो कम-से-कम चार आने लेता।‘
पंडिताइन ने गरजकर कहा, ‘वह घर में आया क्यों !’
पंडित ने हारकर कहा, ‘ससुरे का अभाग था और क्या !’
पंडिताइन–‘अच्छा, इस बखत तो आग दिये देती हूँ, लेकिन फिर जो इस तरह घर में आयेगा, तो उसका मुँह ही जला दूँगी।‘
दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार कैसे चला आये। बड़े पवित्तर होते हैं यह लोग, तभी तो संसार पूजता है, तभी तो इतना मान है। भर-चमार थोड़े ही हैं। इसी गाँव में बूढ़ा हो गया; मगर मुझे इतनी अकल भी न आई। इसलिए जब पंडिताइन आग लेकर निकलीं, तो वह मानो स्वर्ग का वरदान पा गया। दोनों हाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता हुआ बोला, ‘पड़ाइन माता, मुझसे बड़ी भूल हुई कि घर में चला आया। चमार की अकल ही तो ठहरी। इतने मूरख न होते, तो लात क्यों खाते।‘
पंडिताइन चिमटे से पकड़कर आग लाई थीं। पाँच हाथ की दूरी से घूँघट की आड़ से दुखी की तरफ आग फेंकी। आग की बड़ी-सी चिनगारी दुखी के सिर पर पड़ गयी। जल्दी से पीछे हटकर सिर के झोटे देने लगा। उसने मन में कहा, यह एक पवित्तर बाह्मन के घर को अपवित्तर करने का फल है। भगवान ने कितनी जल्दी फल दे दिया। इसी से तो संसार पंडितों से डरता है। और सबके रुपये मारे जाते हैं बाह्मन के रुपये भला कोई मार तो ले ! घर भर का सत्यानाश हो जाय, पाँव गल-गलकर गिरने लगे। बाहर आकर उसने चिलम पी और फिर कुल्हाड़ी लेकर जुट गया। खट-खट की आवाजें आने लगीं। उस पर आग पड़ गई, तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडितजी भोजन करके उठे, तो बोलीं –‘इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।‘
पंडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से दूर समझकर पूछा, ‘रोटियाँ हैं ?’
पंडिताइन –‘दो-चार बच जायँगी।‘
पंडित –‘दो-चार रोटियों में क्या होगा ? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जायगा।‘
पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोलीं, ‘अरे बाप रे ! सेर भर ! तो फिर रहने दो।‘
पंडितजी ने अब शेर बनकर कहा, ‘क़ुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो ठो लिट्टा ठोंक दो। साले का पेट भर जायगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लिट्टा चाहिए।‘
पंडिताइन ने कहा, ‘अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।‘
दुखी ने चिलम पीकर फिर कुल्हाड़ी सँभाली। दम लेने से जरा हाथों में ताकत आ गई थी। कोई आधा घण्टे तक फिर कुल्हाड़ी चलाता रहा। फिर बेदम होकर वहीं सिर पकड़ के बैठ गया। इतने में वही गोंड़ आ गया। बोला, ‘क्यों जान देते हो बूढ़े दादा, तुम्हारे फाड़े यह गाँठ न फटेगी। नाहक हलाकान होते हो।‘
दुखी ने माथे का पसीना पोंछकर कहा, ‘अभी गाड़ी भर भूसा ढोना है भाई !’
गोंड़ –‘क़ुछ खाने को मिला कि काम ही कराना जानते हैं। जाके माँगते क्यों नहीं ?’
दुखी –‘क़ैसी बात करते हो चिखुरी, बाह्मन की रोटी हमको पचेगी !’
गोंड़ –‘पचने को पच जायगी, पहले मिले तो। मूँछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। जमींदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है, तो थोड़ी बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये, उस पर धर्मात्मा बनते हैं।‘
दुखी –‘धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें तो आफत आ जाय। ‘यह कहकर दुखी फिर सँभल पड़ा और कुल्हाड़ी की चोट मारने लगा। चिखुरी को उस पर दया आई। आकर कुल्हाड़ी उसके हाथ से छीन ली और कोई आधा घंटे खूब कस-कसकर कुल्हाड़ी चलाई; पर गाँठ में एक दरार भी न पड़ी। तब उसने कुल्हाड़ी फेंक दी और यह कहकर चला गया तुम्हारे फाड़े यह न फटेगी, जान भले निकल जाय। ‘
दुखी सोचने लगा, बाबा ने यह गाँठ कहाँ रख छोड़ी थी कि फाड़े नहीं फटती। कहीं दरार तक तो नहीं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता रहूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़े हैं। कार-परोजन का घर है, एक-न-एक चीज घटी ही रहती है; पर इन्हें इसकी क्या चिंता। चलूँ जब तक भूसा ही उठा लाऊँ। कह दूँगा, बाबा, आज तो लकड़ी नहीं फटी, कल आकर फाड़ दूँगा। उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खलिहान यहाँ से दो फरलांग से कम न था। अगर झौवा खूब भर-भर कर लाता तो काम जल्द खत्म हो जाता; फि र झौवे को उठाता कौन। अकेले भरा हुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसलिए थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे कहीं भूसा खत्म हुआ। पंडितजी की नींद भी खुली। मुँह-हाथ धोया, पान खाया और बाहर निकले। देखा, तो दुखी झौवा सिर पर रखे सो रहा है। जोर से बोले –‘अरे, दुखिया तू सो रहा है ? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या रहा ? मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी ! उस पर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल। तुझसे जरा-सी लकड़ी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना ! इसी से कहा, है कि नीच के घर में खाने को हुआ और उसकी आँख बदली। ‘दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई। जो बातें पहले से सोच रखी थीं, वह सब भूल गईं। पेट पीठ में धॉसा जाता था, आज सबेरे जलपान तक न किया था। अवकाश ही न मिला। उठना ही पहाड़ मालूम होता था। जी डूबा जाता था, पर दिल को समझाकर उठा। पंडित हैं, कहीं साइत ठीक न विचारें, तो फिर सत्यानाश ही हो जाय। जभी तो संसार में इतना मान है। साइत ही का तो सब खेल है। जिसे चाहे बिगाड़ दें। पंडितजी गाँठ के पास आकर खड़े हो गये और बढ़ावा देने लगे हाँ, मार कसके, और मार क़सके मार अबे जोर से मार तेरे हाथ में तो जैसे दम ही नहीं है लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता है हाँ बस फटा ही चाहती है ! दे उसी दरार में ! दुखी अपने होश में न था। न-जाने कौन-सी गुप्तशक्ति उसके हाथों को चला रही थी। वह थकान, भूख, कमजोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बाहुबल पर स्वयं आश्चर्य हो रहा था। एक-एक चोट वज्र की तरह पड़ती थी। आधा घण्टे तक वह इसी उन्माद की दशा में हाथ चलाता रहा, यहाँ तक कि लकड़ी बीच से फट गई और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी। इसके साथ वह भी चक्कर खाकर गिर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका हुआ शरीर जवाब दे गया।
पंडितजी ने पुकारा, ‘उठके दो-चार हाथ और लगा दे। पतली-पतली चैलियाँ हो जायँ। दुखी न उठा। पंडितजी ने अब उसे दिक करना उचित न समझा। भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गये, स्नान किया और पंडिताई बाना पहनकर बाहर निकले ! दुखी अभी तक वहीं पड़ा हुआ था। जोर से पुकारा –‘अरे क्या पड़े ही रहोगे दुखी, चलो तुम्हारे ही घर चल रहा हूँ। सब सामान ठीक-ठीक है न ? दुखी फिर भी न उठा।‘
अब पंडितजी को कुछ शंका हुई। पास जाकर देखा, तो दुखी अकड़ा पड़ा हुआ था। बदहवास होकर भागे और पंडिताइन से बोले, ‘दुखिया तो जैसे मर गया।‘
पंडिताइन हकबकाकर बोलीं—‘वह तो अभी लकड़ी चीर रहा था न ?’
पंडित –‘हाँ लकड़ी चीरते-चीरते मर गया। अब क्या होगा ?’
पंडिताइन ने शान्त होकर कहा, ‘होगा क्या, चमरौने में कहला भेजो मुर्दा उठा ले जायँ।‘
एक क्षण में गाँव भर में खबर हो गई। पूरे में ब्राह्मनों की ही बस्ती थी। केवल एक घर गोंड़ का था। लोगों ने इधर का रास्ता छोड़ दिया। कुएं का रास्ता उधर ही से था, पानी कैसे भरा जाय ! चमार की लाश के पास से होकर पानी भरने कौन जाय। एक बुढ़िया ने पण्डितजी से कहा, अब मुर्दा फेंकवाते क्यों नहीं ? कोई गाँव में पानी पीयेगा या नहीं। इधर गोंड़ ने चमरौने में जाकर सबसे कह दिया ख़बरदार, मुर्दा उठाने मत जाना। अभी पुलिस की तहकीकात होगी। दिल्लगी है कि एक गरीब की जान ले ली। पंडितजी होंगे, तो अपने घर के होंगे। लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़ जाओगे। इसके बाद ही पंडितजी पहुँचे; पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठा लाने को तैयार न हुआ, हाँ दुखी की स्त्री और कन्या दोनों हाय-हाय करती वहाँ चलीं और पंडितजी के द्वार पर आकर सिर पीट-पीटकर रोने लगीं। उनके साथ दस-पाँच और चमारिनें थीं। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पण्डितजी ने चमारों को बहुत धामकाया, समझाया, मिन्नत की; पर चमारों के दिल पर पुलिस का रोब छाया हुआ था, एक भी न मिनका। आखिर निराश होकर लौट आये।
आधी रात तक रोना-पीटना जारी रहा। देवताओं का सोना मुश्किल हो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मन चमार की लाश कैसे उठाते ! भला ऐसा किसी शास्त्र-पुराण में लिखा है ? कहीं कोई दिखा दे। पंडिताइन ने झुँझलाकर कहा, ‘इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली। सभों का गला भी नहीं पकता। पंडित ने कहा, रोने दो चुड़ैलों को, कब तक रोयेंगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था। मर गया, तो कोलाहल मचाने के लिए सब की सब आ पहुँचीं।‘
पंडिताइन –‘चमार का रोना मनहूस है।‘
पंडित –‘हाँ, बहुत मनहूस।‘
पंडिताइन –‘अभी से दुर्गन्ध उठने लगी।‘
पंडित –‘चमार था ससुरा कि नहीं। साध-असाध किसी का विचार है इन सबों को।‘
पंडिताइन –‘इन सबों को घिन भी नहीं लगती।‘
पंडित—‘ भ्रष्ट हैं सब।‘
रात तो किसी तरह कटी; मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमारिनें भी रो-पीटकर चली गईं। दुर्गन्ध कुछ-कुछ फैलने लगी। पंडितजी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फन्दे को खींचकर कस दिया। अभी कुछ-कुछ धुँधलका था। पंडितजी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गाँव के बाहर घसीट ले गये। वहाँ से आकर तुरन्त स्नान किया, दुर्गापाठ पढ़ा और घर में गंगाजल छिड़का।
उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे। यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।
3 – निमंत्रण
पंडित मोटेराम शास्त्री ने अंदर जा कर अपने विशाल उदर पर हाथ फेरते हुए यह पद पंचम स्वर में गया,
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये, सबके दाता राम !
सोना ने प्रफुल्लित हो कर पूछा, ‘ कोई मीठी ताजी खबर है क्या ? ‘
शास्त्री जी ने पैंतरे बदल कर कहा, ‘ मार लिया आज। ऐसा ताक कर मारा कि चारों खाने चित्त। सारे घर का नेवता ! सारे घर का। वह बढ़-बढ़कर हाथ मारूँगा कि देखने वाले दंग रह जाएेंगे। उदर महाराज अभी से अधीर
हो रहे हैं।’
सोना – ‘’ कहीं पहले की भाँति अब की भी धोखा न हो। पक्का-पोढ़ा कर लिया है न ? ‘
मोटेराम ने मूँछें ऐंठते हुए कहा, ‘ ऐसा असगुन मुँह से न निकालो। बड़े जप-तप के बाद यह शुभ दिन आया है। जो तैयारियाँ करनी हों, कर लो।’
सोना – ‘वह तो करूँगी ही। क्या इतना भी नहीं जानती ? जन्म भर घास थोड़े ही खोदती रही हूँ; मगर है घर भर का न ? ‘
मोटेराम – ‘अब और कैसे कहूँ; पूरे घर भर का है। इसका अर्थ समझ में न आया हो, तो मुझसे पूछो। विद्वानों की बात समझना सबका काम नहीं।’ मगर उनकी बात सभी समझ लें, तो उनकी विद्वत्ता का महत्त्व ही क्या रहे; बताओ, क्या समझीं ? मैं इस समय बहुत ही सरल भाषा में बोल रहा हूँ; मगर तुम नहीं समझ सकीं। बताओ, विद्वत्ताा किसे कहते हैं ? महत्त्व ही का अर्थ बताओ। घर भर का निमंत्रण देना क्या दिल्लगी है ? हाँ, ऐसे अवसर पर विद्वान लोग राजनीति से काम लेते हैं और उसका वही आशय निकालते हैं, जो अपने अनुकूल हो। मुरादापुर की रानी साहब सात ब्राह्मणों को इच्छापूर्ण भोजन कराना चाहती हैं। कौन-कौन महाशय मेरे साथ जाएेंगे, यह निर्णय करना मेरा काम है। अलगूराम शास्त्री, बेनीराम शास्त्री, छेदीराम शास्त्री, भवानीराम शास्त्री, फेकूराम शास्त्री, मोटेराम शास्त्री आदि जब इतने आदमी अपने घर ही में हैं, तब बाहर कौन ब्राह्मणों को खोजने जाएे।
सोना – ‘और सातवाँ कौन है ? ‘
मोटे.-’’बुद्धि दौड़ाओ।’
सोना – ‘एक पत्तल घर लेते आना।’
मोटे.-’फिर वही बात कही, जिसमें बदनामी हो। छि: छि: ! पत्तल घर लाऊँ। उस पत्तल में वह स्वाद कहाँ जो जजमान के घर पर बैठ कर भोजन करने में है। सुनो, सातवें महाशय हैं, पंडित सोनाराम शास्त्री।’
सोना – ‘चलो, दिल्लगी करते हो। भला, कैसे जाऊँगी ? ‘
मोटे.-’ऐसे ही कठिन अवसरों पर तो विद्या की आवश्यकता पड़ती है। विद्वान आदमी अवसर को अपना सेवक बना लेता है, मूर्ख अपने भाग्य को रोता है। सोनादेवी और सोनाराम शास्त्री में क्या अंतर है, जानती हो ? केवल परिधान का। परिधान का अर्थ समझती हो ? परिधान ‘पहनाव’ को कहते हैं। इसी साड़ी को मेरी तरह बाँधा लो, मेरी मिरजई पहन लो, ऊपर से चादर ओढ़ लो। पगड़ी मैं बाँधा दूँगा। फिर कौन पहचान सकता है ?
सोना ने हँसकर कहा, ‘मुझे तो लाज लगेगी।’
मोटे.-’तुम्हें करना ही क्या है ? बातें तो हम करेंगे।’
सोना ने मन ही मन आनेवाले पदार्थों का आनंद ले कर कहा, ‘बड़ा मजा होगा ! ‘
मोटे.-’बस, अब विलम्ब न करो। तैयारी करो, चलो।’
सोना – ‘कितनी फंकी बना लूँ ?’
मोटे.-’यह मैं नहीं जानता। बस, यही आदर्श सामने रखो कि अधिक से अधिक लाभ हो।
सहसा सोनादेवी को एक बात याद आ गयी। बोली, अच्छा, इन बिछुओं को क्या करूँगी ? ‘
मोटेराम ने त्योरी चढ़ा कर कहा, ‘इन्हें उठाकर रख देना, और क्या करोगी ? ‘
सोना – ‘हाँ जी, क्यों नहीं। उतार कर रख क्यों न दूँगी ?
मोटे.-’तो क्या तुम्हारे बिछुए पहने ही से मैं जी रहा हूँ ? जीता हूँ पौष्टिक पदार्थों के सेवन से। तुम्हारे बिछुओं के पुण्य से नहीं जीता।’
सोना – ‘नहीं भाई, मैं बिछुए न उतारूँगी।’
मोटेराम ने सोच कर कहा, ‘अच्छा, पहने चलो, कोई हानि नहीं। गोवर्धनधारी यह बाधा भी हर लेंगे। बस, पाँव में बहुत-से कपड़े लपेट लेना। मैं कह दूँगा, इन पंडित जी को फीलपाँव हो गया। क्यों, कैसी सूझी ? ‘
पंडिताइन ने पतिदेव को प्रशंसा-सूचक नेत्रों से देख कर कहा, ‘जन्म भर पढ़ा नहीं है ?’
संध्या-समय पंडित जी ने पाँचों पुत्रों को बुलाया और उपदेश देने लगे, ‘पुत्रो, कोई काम करने के पहले खूब सोच-समझ लेना चाहिए कि कैसा क्या होगा। मान लो, रानी साहब ने तुम लोगों का पता-ठिकाना पूछना आरम्भ किया, तो तुम लोग क्या उत्तर दोगे ? यह तो महान् मूर्खता होगी कि तुम सब मेरा नाम लो। सोचो, कितने कलंक और लज्जा की बात होगी कि मुझ-जैसा विद्वान् केवल भोजन के लिए इतना बड़ा कुचक्र रचे। इसलिए तुम सब थोड़ी देर के लिए भूल जाओ कि मेरे पुत्र हो। कोई मेरा नाम न बतलाये। संसार में नामों की कमी नहीं, कोई अच्छा-सा नाम चुन कर बता देना। पिता का नाम बदल देने से कोई गाली नहीं लगती। यह कोई अपराध नहीं।’
अलगू. – ’आप ही बता दीजिए।’
मोटे.-’अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है। हाँ, इतने महत्त्व का काम मुझे स्वयं करना चाहिए। अच्छा सुनो, अलगूराम के पिता का नाम है पंडित केशव पाँडे, खूब याद कर लो। बेनीराम के पिता का नाम पंडित मंगरू ओझा, खूब याद रखना। छेदीराम के पिता हैं पंडित दमड़ी तिवारी, भूलना नहीं। भवानी, तुम गंगू पाँडे बतलाना, खूब याद कर लो। अब रहे फेकूराम, तुम बेटा बतलाना सेतूराम पाठक। हो गये सब ! हो गया सबका नामकरण ! अच्छा अब मैं परीक्षा लूँगा। होशियार रहना। बोलो अलगू, तुम्हारे पिता का क्या नाम है ? ’
अलगू. – ’पंडित केशव पाँडे।’
‘बेनीराम, तुम बताओ।’
‘दमड़ी तिवारी।’
छेदी. – ’यह तो मेरे पिता का नाम है।’
बेनी.- ’ मैं तो भूल गया।’
मोटे.-’ भूल गये ! पंडित के पुत्र हो कर तुम एक नाम भी नहीं याद कर सकते। बड़े दु:ख की बात है। मुझे पाँचों नाम याद हैं, तुम्हें एक नाम भी याद नहीं ? सुनो, तुम्हारे पिता का नाम है पंडित मँगरू ओझा। पंडित जी लड़कों की परीक्षा ले ही रहे थे कि उनके परम मित्र पंडित चिंतामणि ने द्वार पर आवाज दी। पंडित मोटेराम ऐसे घबराये कि सिर-पैर की सुधि न रही। लड़कों को भगाना ही चाहते थे कि पंडित चिंतामणि अंदर
चले आये। दोनों सज्जनों में बचपन से गाढ़ी मैत्री थी। दोनों बहुधा साथ-साथ भोजन करने जाएा करते थे, और यदि पंडित मोटेराम अव्वल रहते, तो पंडित चिंतामणि के द्वितीय पद में कोई बाधाक न हो सकता था; पर आज मोटेराम जी अपने मित्र को साथ नहीं ले जाना चाहते थे। उनको साथ ले जाना, अपने घरवालों में से किसी एक को छोड़ देना था और इतना महान् आत्मत्याग करने के लिए वे तैयार न थे।
चिंतामणि ने यह समारोह देखा, तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘क्यों भाई, अकेले ही अकेले ! मालूम होता है, आज कहीं गहरा हाथ मारा है।’
मोटेराम ने मुँह लटका कर कहा, ‘कैसी बातें करते हो, मित्र ! ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि मुझे कोई अवसर मिला हो और मैंने तुम्हें सूचना न दी हो। कदाचित् कुछ समय ही बदल गया, या किसी ग्रह का फेर है।
कोई झूठ को भी नहीं बुलाता।’
पंडित चिंतामणि ने अविश्वास के भाव से कहा, ‘कोई न कोई बात तो मित्र अवश्य है, नहीं तो ये बालक क्यों जमा हैं ? ‘
मोटे.-’तुम्हारी इन्हीं बातों पर मुझे क्रोध आता है। लड़कों की परीक्षा ले रहा हूँ। ब्राह्मण के लड़के हैं, चार अक्षर पढ़े बिना इनको कौन पूछेगा ? ‘
चिंतामणि को अब भी विश्वास न आया। उन्होंने सोचा, लड़कों से ही इस बात का पता लग सकता है। फेकूराम सबसे छोटा था। उसी से पूछा, क्या पढ़ रहे हो बेटा ! हमें भी सुनाओ। मोटेराम ने फेकूराम को बोलने
का अवसर न दिया। डरे कि यह तो सारा भंडा फोड़ देगा। बोले, अभी यह क्या पढ़ेगा। दिन भर खेलता है। फेकूराम इतना बड़ा अपराध अपने नन्हे-से सिर पर क्यों लेता। बाल-सुलभ गर्व से बोला, ‘हमको तो याद है, पंडित सेतूराम पाठक। हम याद भी कर लें, तिसपर भी कहते हैं, हरदम खेलता है ! ‘ यह कहते हुए रोना शुरू किया।
चिंतामणि ने बालक को गले लगा लिया और बोले, ‘नहीं बेटा, तुमने अपना पाठ सुना दिया है। तुम खूब पढ़ते हो। यह सेतूराम पाठक कौन है, बेटा ?
मोटेराम ने बिगड़ कर कहा, ‘तुम भी लड़कों की बातों में आते हो। सुन लिया होगा किसी का नाम। (फेकू से) ‘जा, बाहर खेल।’
चिंतामणि अपने मित्र की घबराहट देख कर समझ गये कि कोई न कोई रहस्य अवश्य है। बहुत दिमाग लड़ाने पर भी सेतूराम पाठक का आशय उनकी समझ में न आया। अपने परम मित्र की इस कुटिलता पर मन में
दुखित होकर बोले, अच्छा, ‘आप पाठ पढ़ाइये और परीक्षा लीजिए। मैं जाता हूँ। तुम इतने स्वार्थी हो, इसका मुझे गुमान तक न था। आज तुम्हारी मित्रता की परीक्षा हो गयी।’
पंडित चिंतामणि बाहर चले गये। मोटेरामजी के पास उन्हें मनाने के लिए समय न था। फिर परीक्षा लेने लगे।
सोना ने कहा, ‘मना लो, मना लो। रूठे जाते हैं। फिर परीक्षा लेना। मोटे.-’जब कोई काम पड़ेगा, मना लूँगा। निमंत्रण की सूचना पाते ही इनका सारा क्रोध शान्त हो जायगा ! हाँ भवानी, तुम्हारे पिता का क्या नाम
है, बोलो।’
भवानी. – ‘गंगू पाँडे।’
मोटे.-’और तुम्हारे पिता का नाम, फेकू ? ‘
फेकू, – ‘बता तो दिया, उस पर कहते हैं, पढ़ता नहीं ! ‘
मोटे.-’हमें भी बता दो।’
फेकू, – ‘सेतूराम पाठक तो है।’
मोटे.-’बहुत ठीक, हमारा लड़का बड़ा राजा है। आज तुम्हें अपने साथ बैठायेंगे और सबसे अच्छा माल तुम्हीं को खिलायेंगे।’
सोना – ‘हमें भी कोई नाम बता दो।’
मोटेराम ने रसिकता से मुसकरा कर कहा, ‘तुम्हारा नाम है पंडित मोहनसरूप सुकुल।’ सोनादेवी ने लजा कर सिर झुका दिया।
सोनादेवी तो लड़कों को कपड़े पहनाने लगीं। उधर फेकू आनंद की उमंग में घर से बाहर निकला। पंडित चिंतामणि रूठ कर तो चले थे; पर कुतूहलवश अभी तक द्वार पर दुबके खड़े थे। इन बातों की भनक इतनी देर में उनके कानों में पड़ी, उससे यह तो ज्ञात हो गया कि कहीं निमंत्रण है; पर कहाँ है, कौन-कौन से लोग निमंत्रित हैं, यह ज्ञात न हुआ था। इतने में फेकू बाहर निकला, तो उन्होंने उसे गोद में उठा लिया और बोले, कहाँ नेवता है, बेटा ? अपनी जान में तो उन्होंने बहुत धीरे से पूछा था; पर न-जाने कैसे पंडित
मोटेराम के कान में भनक पड़ गयी। तुरन्त बाहर निकल आये। देखा, तो चिंतामणि जी फेकू को गोद में लिये कुछ पूछ रहे हैं। लपक कर लड़के का हाथ पकड़ लिया और चाहा कि उसे अपने मित्र की गोद से छीन लें; मगर चिंतामणि जी को अभी अपने प्रश्न का उत्तर न मिला था। अतएव वे लड़के का हाथ छुड़ा कर उसे लिये हुए अपने घर की ओर भागे। मोटेराम भी यह कहते हुए उनके पीछे दौड़े , ‘उसे क्यों लिये जाते हो ? धूर्त कहीं का, दुष्ट ! चिंतामणि, मैं कहे देता हूँ, इसका नतीजा अच्छा न होगा; फिर कभी किसी निमंत्रण में न ले जाऊँगा। भला चाहते हो, तो उसे उतार दो…। ‘
मगर चिंतामणि ने एक न सुनी। भागते ही चले गये। उनकी देह अभी सँभाल के बाहर न हुई थी; दौड़ सकते थे; मगर मोटेराम जी को एक-एक पग आगे बढ़ना दुस्तर हो रहा था। भैंसे की भाँति हाँफते थे और नाना प्रकार के विशेषणों का प्रयोग करते दुलकी चाल से चले जाते थे। और यद्यपि प्रतिक्षण अंतर बढ़ता जाता
था; और पीछा न छोड़ते थे। अच्छी घुड़दौड़ थी। नगर के दो महात्मा दौड़ते हुए ऐसे जान पड़ते थे, मानो दो गैंडे चिड़ियाघर से भाग आये हों। सैकड़ों आदमी तमाशा देखने लगे। कितने ही बालक उनके पीछे तालियाँ बजाते हुए दौड़े। कदाचित् यह दौड़ पंडित चिंतामणि के घर पर ही समाप्त होती; पर पंडित मोटेराम धोती के ढीली हो जाने के कारण उलझ कर गिर पड़े। चिंतामणि ने पीछे फिर कर यह दृश्य देखा, तो रुक गये और फेकूराम से पूछा , ‘क्यों बेटा, कहाँ नेवता है ? ‘
फेकू. – ‘- ‘बता दें, तो हमें मिठाई दोगे न ? ‘
चिंता. – ‘हाँ, दूँगा; बताओ।’
फेकू. – ‘रानी के यहाँ।’-
चिंता. – कहाँ की रानी।
फेकू. – यह मैं नहीं जानता। कोई बड़ी रानी है।
नगर में कई बड़ी-बड़ी रानियाँ थीं। पंडित जी ने सोचा, सभी रानियों के द्वार पर चक्कर लगाऊँगा। जहाँ भोज होगा, वहाँ कुछ भीड़-भाड़ होगी ही, पता चल जायगा। यह निश्चय करके वे लौट पड़े। सहानुभूति प्रकट करने
में अब कोई बाधा न थी। मोटेराम जी के पास आये, तो देखा कि वे पड़े कराह रहे हैं। उठने का नाम नहीं लेते। घबरा कर पूछा , ‘गिर कैसे पड़े मित्र, यहाँ कहीं गढ़ा भी तो नहीं है ! ‘
मोटे – ‘तुमसे क्या मतलब ! तुम लड़के को ले जाओ, जो कुछ पूछना चाहो, पूछो।’
चिंता. – ‘मैं यह कपट-व्यवहार नहीं करता। दिल्लगी की थी, तुम बुरा मान गये। ले उठ तो बैठ राम का नाम लेके। मैं सच कहता हूँ, मैंने कुछ नहीं पूछा।’
मोटे.- ‘चल झूठा।’
चिंता. – ‘जनेऊ हाथ में ले कर कहता हूँ।’
मोटे – ‘तुम्हारी शपथ का विश्वास नहीं।’
चिंता. – ‘तुम मुझे इतना धूर्त समझते हो ? ‘
मोटे – ‘इससे कहीं अधिक। तुम गंगा में डूब कर शपथ खाओ, तो भी मुझे विश्वास न आये।’
चिंता. – ‘दूसरा यह बात कहता, तो मूँछ उखाड़ लेता।’
मोटे – ‘ तो फिर आ जाओ ! ‘
चिंता. – ‘पहले पंडिताइन से पूछ आओ।’
मोटेराम यह भस्मक व्यंग्य न सह सके। चट उठ बैठे और पंडित चिंतामणि का हाथ पकड़ लिया। दोनों मित्रों में मल्ल-युद्ध होने लगा। दोनों हनुमान जी की स्तुति कर रहे थे और इतने जोर से गरज-गरजकर मानो सिंह
दहाड़ रहे हों। बस ऐसा जान पड़ता था, मानो दो पीपे आपस में टकरा रहे हों।’
मोटे – ’महाबली विक्रम बजरंगी।’
चिंता. –’भूत-पिशाच निकट नहिं आवे।’
मोटे – ’जय-जय-जय हनुमान गोसाईं।’
चिंता. –’प्रभु, रखिए लाज हमारी।’
मोटे – ’(बिगड़कर) यह हनुमान-चालीसा में नहीं है।’
चिंता. –’यह हमने स्वयं रचा है। क्या तुम्हारी तरह की यह रटंत विद्या है ! जितना कहो, उतना रच दें।’
मोटे – ’अबे, हम रचने पर आ जाएँ तो एक दिन में एक लाख स्तुतियाँ रच डालें; किन्तु इतना अवकाश किसे है।’
दोनों महात्मा अलग खड़े होकर अपने-अपने रचना-कौशल की डींगें मार रहे थे। मल्ल-युद्ध शास्त्रार्थ का रूप धारण करने लगा, जो विद्वानों के लिए उचित है ! इतने में किसी ने चिंतामणि के घर जा कर कह दिया कि पंडित मोटेराम और चिंतामणि जी में बड़ी लड़ाई हो रही है। चिंतामणि जी तीन महिलाओं के स्वामी थे। कुलीन ब्राह्मण थे, पूरे बीस बिस्वे। उस पर विद्वान् भी उच्चकोटि के, दूर-दूर तक यजमानी थी। ऐसे पुरुषों को सब अधिकार है। कन्या के साथ-साथ जब प्रचुर दक्षिणा भी मिलती हो, तब कैसे इनकार किया जाए। इन तीनों महिलाओं का सारे मुहल्ले में आतंक छाया हुआ था। पंडित जी ने उनके नाम बहुत ही रसीले रखे थे। बड़ी स्त्री को ‘अमिरती’, मँझली को ‘गुलाबजामुन’ और छोटी को ‘मोहनभोग’ कहते थे; पर मुहल्ले वालों के लिए तीनों महिलाएँ त्रायताप से कम न थीं। घर में नित्य आँसुओं की नदी बहती रहती , खून की नदी तो पंडित जी ने भी कभी नहीं बहायी, अधिक से अधिक शब्दों की ही नदी बहायी थी; पर मजाल न थी कि बाहर का आदमी किसी को कुछ कह जाए। संकट के समय तीनों एक हो जाती थीं। यह पंडित जी के नीति-चातुर्य का सुफल था। ज्यों ही खबर मिली कि पंडित चिंतामणि पर संकट पड़ा हुआ है, तीनों त्रिदोष की भाँति कुपित हो
कर घर से निकलीं और उनमें जो अन्य दोनों-जैसी मोटी नहीं थी, सबसे पहले समरभूमि में जा पहुँची। पंडित मोटेराम जी ने उसे आते देखा, तो समझ गये कि अब कुशल नहीं। अपना हाथ छुड़ा कर बगटुट भागे, पीछे फिर कर भी न देखा। चिंतामणि जी ने बहुत ललकारा; पर मोटेराम के कदम न रुके।
चिंता. –’अजी, भागे क्यों ? ठहरो, कुछ मजा तो चखते जाओ।’
मोटे – ’मैं हार गया, भाई, हार गया।’
चिंता. –’अभी, कुछ दक्षिणा तो लेते जाओ।’
मोटेराम ने भागते हुए कहा , द’या करो, भाई, दया करो।’
आठ बजते-बजते पंडित मोटेराम ने स्नान और पूजा करके कहा , ‘अब विलम्ब नहीं करना चाहिए, फंकी तैयार है न ?
सोना – टफंकी लिये तो कब से बैठी हूँ, तुम्हें तो जैसे किसी बात की सुधि ही नहीं रहती। रात को कौन देखता है कि कितनी देर तक पूजा करते हो।’
मोटे – ’मैं तुमसे एक नहीं, हजार बार कह चुका कि मेरे कामों में मत बोला करो। तुम नहीं समझ सकतीं कि मैंने इतना विलम्ब क्यों किया। तुम्हें ईश्वर ने इतनी बुद्धि ही नहीं दी। जल्दी जाने से अपमान होता है। जमान
समझता है, लोभी है, भुक्खड़ है। इसलिए चतुर लोग विलम्ब किया करते हैं, जिसमें यजमान समझे कि पंडित जी को इसकी सुधि ही नहीं है, भूल गये होंगे। बुलाने को आदमी भेजें। इस प्रकार जाने में जो मान-महत्त्व है,
वह मरभुखों की तरह जाने में क्या कभी हो सकता है ? मैं बुलाने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कोई न कोई आता ही होगा। लाओ थोड़ी फंकी। बालकों को खिला दी है न ? ‘
सोना – ‘उन्हें तो मैंने साँझ ही को खिला दी थी।’
मोटे – ’कोई सोया तो नहीं ? ‘
सोना – ‘आज भला कौन सोयेगा ? सब भूख-भूख चिल्ला रहे थे, तो मैंने एक पैसे का चबेना मँगवा दिया। सब के सब ऊपर बैठे खा रहे हैं। सुनते नहीं हो, मार-पीट हो रही है।’
मोटेराम ने दाँत पीस कर कहा , ‘जी चाहता है कि तुम्हारी गरदन पकड़ कर ऐंठ दूँ। भला, इस बेला चबेना मँगाने का क्या काम था? चबेना खा लेंगे, तो वहाँ क्या तुम्हारा सिर खायेंगे ? छि: छि:! जरा भी बुद्धि नहीं! ‘
सोना ने अपराध स्वीकार करते हुए कहा , ‘हाँ, भूल तो हुई; पर सब के सब इतना कोलाहल मचाये हुए थे कि सुना नहीं जाता था।’
मोटे – ’रोते ही थे न, रोने देती। रोने से उनका पेट न भरता; बल्कि और भूख खुल जाती।’
सहसा एक आदमी ने बाहर से आवाज दी , ‘पंडित जी, महारानी बुला रही हैं, और लोगों को ले कर जल्दी चलो।’
पंडित जी ने पत्नी की ओर गर्व से देख कर कहा , ‘देखा, इसे निमंत्रण कहते हैं। अब तैयारी करनी चाहिए।
बाहर आ कर पंडित जी ने उस आदमी से कहा , तुम एक क्षण और न आते, तो मैं कथा सुनाने चला गया होता। मुझे बिलकुल याद न थी। चलो, हम बहुत शीघ्र आते हैं।’
नौ बजते-बजते पंडित मोटेराम बाल-गोपाल सहित रानी साहब के द्वार पर जा पहुँचे। रानी बड़ी विशालकाय एवं तेजस्विनी महिला थीं। इस समय वे कारचोबीदार तकिया लगाये तख्त पर बैठी हुई थीं। दो आदमी हाथ बाँधे
पीछे खड़े थे। बिजली का पंखा चल रहा था। पंडित जी को देखते ही रानी ने तख्त से उठ कर चरण-स्पर्श किया और इस बालक-मंडल को देखकर मुस्कराती हुई बोलीं , ‘इन बच्चों को आप कहाँ से पकड़ लाये ? ‘
मोटे – ’करता क्या ? सारा नगर छान मारा; किसी पंडित ने आना स्वीकार न किया। कोई किसी के यहाँ निमंत्रित है, कोई किसी के यहाँ। तब तो मैं बहुत चकराया। अंत में मैंने उनसे कहा , ‘अच्छा, आप नहीं चलते तो हरि इच्छा; लेकिन ऐसा कीजिए कि मुझे लज्जित न होना पड़े। तब जबरदस्ती प्रत्येक के घर से जो बालक मिला, उसे पकड़ लाना पड़ा। क्यों फेकूराम, तुम्हारे पिता जी का क्या नाम है ? ‘
फेकूराम ने गर्व से कहा , ‘पंडित सेतूराम पाठक।’
रानी – ‘बालक तो बड़ा होनहार है।’
और बालकों को भी उत्कंठा हो रही थी कि हमारी भी परीक्षा ली जाए; लेकिन जब पंडित जी ने उनसे कोई प्रश्न न किया और उधार रानी ने फेकूराम की प्रशंसा कर दी, तब तो वे अधीर हो उठे। भवानी बोला , ‘मेरे पिता का नाम है पंडित गंगू पाँडे।’
छेदी बोला , ‘मेरे पिता का नाम है दमड़ी तिवारी ! ‘
बेनीराम ने कहा , ‘मेरे पिता का नाम है पंडित मँगरू ओझा।’
अलगूराम समझदार था। चुपचाप खड़ा रहा। रानी ने उससे पूछा , ‘तुम्हारे पिता का क्या नाम है, जी ? ‘
अलगूराम को इस वक्त पिता का निर्दिष्ट नाम याद न आया। न यही सूझा कि कोई और नाम ले ले। हतबुद्धि-सा खड़ा रहा। पंडित मोटेराम ने जब उसकी ओर दाँत पीस कर देखा, तब रहा-सहा हवास भी गायब हो गया।
फेकूराम ने कहा , ‘हम बता दें। भैया भूल गये।’
रानी ने आश्चर्य से पूछा , क्या अपने पिता का नाम भूल गया ? यह तो विचित्र बात देखी। मोटेराम ने अलगू के पास जाकर कहा , ‘क से है।’ अलगूराम बोल उठा , ‘केशव पाँडे।’
रानी – ‘तो अब तक क्यों चुप था ? ‘
मोटे – ’कुछ ऊँचा सुनता है, सरकार।’
रानी – ‘मैंने सामान तो बहुत-सा मँगवाया है। सब खराब होगा। लड़के क्या खायेंगे ! ‘
मोटे – ’सरकार इन्हें बालक न समझें। इनमें जो सबसे छोटा है, यह दो पत्तल खा कर उठेगा।’
जब सामने पत्तलें पड़ गयीं और भंडारी चाँदी की थालों में एक से एक उत्तम पदार्थ ला-ला कर परसने लगा, तब पंडित मोटेराम जी की आँखें खुल गयीं। उन्हें आये-दिन निमंत्रण मिलते रहते थे। पर ऐसे अनुपम पदार्थ कभी सामने न आये थे। घी की ऐसी सोंधी सुगन्ध उन्हें कभी न मिली थी। प्रत्येक वस्तु से केवड़े और गुलाब की लपटें उड़ रही थीं। घी टपक रहा था। पंडित जी ने सोचा , ऐसे पदार्थों से कभी पेट भर सकता है ! मनों खा जाऊँ, फिर भी और खाने को जी चाहे। देवतागण इनसे उत्तम और कौन-से पदार्थ खाते होंगे ? इनसे उत्तम पदार्थों की तो कल्पना भी नहीं हो सकती। पंडित जी को इस वक्त अपने परममित्र पंडित चिंतामणि की याद आयी। अगर वे होते, तो रंग जम जाता। उनके बिना रंग फीका रहेगा। यहाँ दूसरा कौन है जिससे लाग-डॉग करूँ। लड़के दो-दो पत्तालों में चें बोल जाएँगे। सोना कुछ साथ देगी; मगर कब तब ! चिंतामणि के बिना रंग न गठेगा। वे मुझे ललकारेंगे, मैं उन्हें ललकारूँगा। उस उमंग में पत्तलों की कौन गिनती। हमारी देखा-देखी लड़के भी डट जाएँगे। ओह, बड़ी भूल हो गयी। यह खयाल मुझे पहले न आया। रानी साहब से कहूँ, बुरा तो न मानेंगी। उँह ! जो कुछ हो, एक बार जोर तो लगाना ही चाहिए। तुरंत खड़े हो कर रानी साहब से बोले , ‘सरकार ! आज्ञा हो, तो कुछ कहूँ।
रानी – ‘कहिए, कहिए महाराज, क्या किसी वस्तु की कमी है ? ‘
मोटे – ’नहीं सरकार, किसी बात की नहीं। ऐसे उत्तम पदार्थ तो मैंने कभी देखे भी न थे। सारे नगर में आपकी कीर्ति फैल जायगी। मेरे एक परममित्र पंडित चिंतामणि जी हैं, आज्ञा हो तो उन्हें भी बुला लूँ। बड़े विद्वान् कर्मनिष्ठ ब्राह्मण हैं। उनके जोड़ का इस नगर में दूसरा नहीं है। मैं उन्हें निमंत्रण देना भूल गया। अभी सुधि आयी। ‘
रानी – ‘आपकी इच्छा हो, तो बुला लीजिए, मगर आने-जाने में देर होगी और भोजन परोस दिया गया है। ‘
मोटे – ’मैं अभी आता हूँ, सरकार, दौड़ता हुआ जाऊँगा। ‘
रानी –टमेरी मोटर ले लीजिए। ‘
जब पंडितजी चलने को तैयार हुए, तब सोना ने कहा, ‘तुम्हें आज क्या हो गया है,जी! उसे क्यों बुला रहे हो?’
मोटे – ’कोई साथ देनेवाला भी तो चाहिए ? ‘
सोना – ‘मैं क्या तुमसे दब जाती ? ‘
पंडित जी ने मुस्करा कर कहा , ‘तुम जानतीं नहीं, घर की बात और है; दंगल की बात और है। पुराना खिलाड़ी मैदान में जा कर जितना नाम करेगा, उतना नया पट्ठा नहीं कर सकता। वहाँ बल का काम नहीं, साहस का काम है। बस, यहाँ भी वही हाल समझो। झंडे गाड़ दूँगा। समझ लेना। ‘
सोना – ‘कहीं लड़के सो जाएँ तो ? ‘
मोटे – ’और भूख खुल जायगी। जगा तो मैं लूँगा। ‘
सोना- ‘देख लेना, आज वह तुम्हें पछाड़ देगा। उसके पेट में तो शनीचर है। ‘
मोटे – ’बुद्धि की सर्वत्रा प्रधानता रहती है। यह न समझो कि भोजन करने की कोई विद्या ही नहीं। इसका भी एक शास्त्र है, जिसे मथुरा के शनिचरानंद महाराज ने रचा है। चतुर आदमी थोड़ी-सी जगह में गृहस्थी का
सब सामान रख देता है। अनाड़ी बहुत-सी जगह में भी यही सोचता है कि कौन वस्तु कहाँ रखूँ। गँवार आदमी पहले से ही हबक-हबक कर खाने लगता है और चट एक लोटा पानी पी कर अफर जाता है। चतुर आदमी बड़ी सावधानी से खाता है, उसको कौर नीचे उतारने के लिए पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती। देर तक भोजन करते रहने से वह सुपाच्य भी हो जाता है। चिंतामणि मेरे सामने क्या ठहरेगा। ‘
चिंतामणि जी अपने आँगन में उदास बैठे हुए थे। जिस प्राणी को वह अपना परमहितैषी समझते थे, जिसके लिए वे अपने प्राण तक देने को तैयार रहते थे, उसी ने आज उनके साथ बेवफाई की। बेवफाई ही नहीं की, उन्हें उठा कर दे मारा। पंडित मोटेराम के घर से तो कुछ जाता न था। अगर वे चिंतामणि जी को साथ ले जाते, तो क्या रानी साहब उन्हें दुत्कार देतीं ? स्वार्थ के आगे कौन किसको पूछता है ? उन अमूल्य पदार्थों की कल्पना करके चिंतामणि के मुँह से लार टपकी पड़ती थी। अब सामने पत्तर आ गयी होगी ! अब थालों में अमिरतियाँ लिये भंडारी जी आये होंगे ! ओहो। कितनी सुन्दर, कोमल, कुरकुरी, रसीली अमिरतियाँ होंगी ! अब बेसन के लड्डू आये होंगे। ओहो, कितने सुडौल, मेवों से भरे हुए, घी से तरातर लड्डू होंगे, मुँह में रखते ही
घुल जाते होंगे, जीभ भी न डुलानी पड़ती होगी। अहा ! अब मोहनभोग आया होगा ! हाय रे दुर्भाग्य ! मैं यहाँ पड़ा सड़ रहा हूँ और वहाँ यह बहार ! बड़े निर्दयी हो मोटेराम – ‘तुमसे इस निष्ठुरता की आशा न थी।
अमिरतीदेवी बोलीं , ‘तुम इतना दिल छोटा क्यों करते हो ? पितृपक्ष तो आ ही रहा है, ऐसे-ऐसे न जाने कितने आयेंगे। ‘
चिंतामणि – ‘आज किसी अभागे का मुँह देखकर उठा था। लाओ तो पत्रा, देखूँ, कैसा मुहूर्त है। अब नहीं रहा जाता। सारा नगर छान डालूँगा, कहीं तो पता चलेगा, नासिका तो दाहिनी चल रही है। ‘
एकाएक मोटर की आवाज आयी। उसके प्रकाश से पंडित जी का सारा घर जगमगा उठा। वे खिड़की से झाँकने लगे, तो मोटेराम को मोटर से उतरते देखा। एक लम्बी साँस लेकर चारपाई पर गिर पड़े। मन में कहा कि दुष्ट
भोजन करके अब यहाँ मुझसे बखान करने आया है। अमिरतीदेवी ने पूछा , ‘कौन है डाढ़ीजार, इतनी रात को जगावत है ? ‘
मोटे – ’हम हैं हम ! गाली न दो ! ‘
अमिरती- ‘अरे दुर मुँहझौंसे, तैं कौन है ! कहते हैं, हम हैं हम ! को जाने तैं कौन है ? ‘
मोटे – ’अरे हमारी बोली नहीं पहचानती हो ? खूब पहचान लो। हम हैं, तुम्हारे देवर। ‘
अमिरती – ‘ऐ दुर, तोरे मुँह में का लागे। तोर लहास उठे। हमार देवर बनत है, डाढ़ीजार। ‘
मोटे – ’अरे हम हैं मोटेराम शास्त्री। क्या इतना भी नहीं पहचानती ? चिंतामणि घर में हैं ? ‘
अमिरती ने किवाड़ खोल दिया और तिरस्कार-भाव से बोली , ‘अरे तुम थे, तो नाम क्यों नहीं बताते थे ? जब इतनी गालियाँ खा लीं, तो बोल निकला। क्या है, क्या ? ‘
मोटे – ’कुछ नहीं; चिंतामणि जी को शुभ-संवाद देने आया हूँ। रानी साहब ने उन्हें याद किया है। ‘
अमिरती – ‘भोजन के बाद बुला कर क्या करेंगी ? ‘
मोटे – ’अभी भोजन कहाँ हुआ है ! मैंने जब इनकी विद्या, कर्मनिष्ठा, सद्विचार की प्रशंसा की, तब मुग्ध हो गयीं। मुझसे कहा कि उन्हें मोटर पर लाओ ! क्या सो गये ? ‘
चिंतामणि चारपाई पर पड़े-पड़े सुन रहे थे। जी में आता था, चल कर मोटेराम के चरणों पर गिर पड़ूँ। उनके विषय में अब तक जितने कुत्सित विचार उठे थे, सब लुप्त हो गये। ग्लानि का आविर्भाव हुआ। रोने लगे। ‘अरे भाई, आते हो या सोते ही रहोगे !’ , यह कहते हुए मोटेराम उनके सामने जा कर खड़े हो गये।
चिंता. –’तब क्यों न ले गये ? जब इतनी दुर्दशा कर लिये; तब आये। अभी तक पीठ में दर्द हो रहा है। ‘
मोटे – ’अजी, वह तर-माल खिलाऊँगा कि सारा दर्द-वर्द भाग जायगा, तुम्हारे यजमानों को भी ऐसे पदार्थ मयस्सर न हुए होंगे ! आज तुम्हें बद कर पछाड़ूँगा ? ‘
चिंता. –’तुम बेचारे मुझे क्या पछाड़ोगे। सारे शहर में तो कोई ऐसा माई का लाल दिखायी नहीं देता। हमें शनीचर का इष्ट है। ‘
मोटे – ’अजी, यहाँ बरसों तपस्या की है। भंडारे का भंडारा साफ कर दें और इच्छा ज्यों की त्यों बनी रहे। बस, यही समझ लो कि भोजन करके हम खड़े नहीं रह सकते। चलना तो दूसरी बात है। गाड़ी पर लद कर आते
हैं। ‘
चिंता. –’तो यह कौन बड़ी बात है। यहाँ तो टिकटी पर उठा कर लाये जाते हैं। ऐसी-ऐसी डकारें लेते हैं कि जान पड़ता है, बम-गोला छूट रहा है। एक बार खोपिया पुलिस ने बम-गोले के संदेह में घर की तलाशी तक ली
। ‘
मोटे – ’झूठ बोलते हो। कोई इस तरह नहीं डकार सकता। ‘
चिंता. –’अच्छा, तो आ कर सुन लेना। डर कर भाग न जाओ, तो सही। ‘
एक क्षण में दोनों मित्र मोटर पर बैठे और मोटर चली। रास्ते में पंडित चिंतामणि को शंका हुई कि कहीं ऐसा न हो कि मैं पंडित मोटेराम का पिछलग्गू समझा जाऊँ और मेरा यथेष्ट सम्मान न हो। उधर पंडित मोटेराम को भी भय हुआ कि कहीं ये महाशय मेरे प्रतिद्वंद्वी न बन जाएँ और रानी साहब पर अपना रंग जमा लें।
दोनों अपने-अपने मंसूबे बाँधाने लगे। ज्यों ही मोटर रानी के भवन में पहुँची दोनों महाशय उतरे। अब मोटेराम चाहते थे कि पहले मैं रानी के पास पहुँच जाऊँ और कह दूँ कि पंडित को ले आया, और चिंतामणि चाहते थे
कि पहले मैं रानी के पास पहुँचूँ और अपना रंग जमा दूँ। दोनों कदम बढ़ाने लगे। चिंतामणि हल्के होने के कारण जरा आगे बढ़ गये, तो पंडित मोटेराम दौड़ने लगे। चिंतामणि भी दौड़ पड़े। घुड़दौड़-सी होने लगी। मालूम होता था कि दो गैंडे भागे जा रहे हैं। अंत में मोटेराम ने हाँफते हुए कहा , ‘राजसभा में दौड़ते हुए जाना उचित नहीं। ‘
चिंता. –’तो तुम धीरे-धीरे आओ न, दौड़ने को कौन कहता है। ‘
मोटे – ’जरा रुक जाओ, मेरे पैर में काँटा गड़ गया है। ‘
चिंता. –’तो निकाल लो, तब तक मैं चलता हूँ। ‘
मोटे – ’मैं न कहता, तो रानी तुम्हें पूछती भी न ! ‘
मोटेराम ने बहुत बहाने किये, पर चिंतामणि ने एक न सुना। भवन में पहुँचे। रानी साहब बैठी कुछ लिख रही थीं और रह-रहकर द्वार की ओर ताक लेती थीं कि सहसा पंडित चिंतामणि उनके सामने आ खड़े हुए और
यों स्तुति करने लगे , ‘हे हे यशोदे, तू बालकेशव, मुरारनामा…’
रानी – ‘ क्या मतलब ? अपना मतलब कहो ? ‘
चिंता. –’सरकार को आशीर्वाद देता हूँ सरकार ने इस दास चिंतामणि को निमंत्रित करके कितना अनुग्रसित (अनुगृहीत) किया है, उसका बखान शेषनाग अपनी सहस्त्र जिह्ना द्वारा भी नहीं कर सकते। ‘
रानी – ‘तुम्हारा ही नाम चिंतामणि है ? वे कहाँ रह गये , पंडित मोटेराम शास्त्री ? ‘
चिंता. –’पीछे आ रहा है, सरकार। मेरे बराबर आ सकता है, भला ! मेरा तो शिष्य है। ‘
रानी – ‘ अच्छा, तो वे आपके शिष्य हैं ! ‘
चिंता. –’मैं अपने मुँह से अपनी बड़ाई नहीं करना चाहता सरकार ! विद्वानों को नम्र होना चाहिए; पर जो यथार्थ है, वह तो संसार जानता है। सरकार, मैं किसी से वाद-विवाद नहीं करता; यह मेरा अनुशीलन (अभीष्ट)
नहीं। मेरे शिष्य भी बहुधा मेरे गुरु बन जाते हैं; पर मैं किसी से कुछ नहीं कहता। जो सत्य है, वह सभी जानते हैं। ‘
इतने में पंडित मोटेराम भी गिरते-पड़ते हाँफते हुए आ पहुँचे और यह देख कर कि चिंतामणि भद्रता और सभ्यता की मूर्ति बने खड़े हैं, वे देवोपम शान्ति के साथ खड़े हो गये।
रानी – ‘पंडित चिंतामणि बड़े साधु प्रकृति एवं विद्वान् हैं। आप उनके शिष्य हैं, फिर भी वे आपको अपना शिष्य नहीं कहते हैं। ‘
मोटे – ’सरकार, मैं इनका दासानुदास हूँ। ‘
चिंता. –’जगतारिणी, मैं इनका चरण-रज हूँ। ‘
मोटे – ’रिपुदलसंहारिणी, मैं इनके द्वार का कूकर हूँ। ‘
रानी – ‘ आप दोनों सज्जन पूज्य हैं। एक से एक बढ़े हुए। चलिए, भोजन कीजिए।
सोनारानी बैठी पंडित मोटेराम की राह देख रही थीं। पति की इस मित्र-भक्ति पर उन्हें बड़ा क्रोध आ रहा था। बड़े लड़कों के विषय में तो कोई चिंता न थी, लेकिन छोटे बच्चों के सो जाने का भय था। उन्हें किस्से-कहानियाँ सुना-सुना कर बहला रही थी कि भंडारी ने आकर कहा , महाराज चलो। दोनों पंडित जी आसन पर बैठ गये। फिर क्या था, बच्चे कूद-कूद कर भोजनशाला में जा पहुँचे। देखा, तो दोनों पंडित दो वीरों की भाँति आमने-सामने डटे बैठे हैं। दोनों अपना-अपना पुरुषार्थ दिखाने के लिए अधीर हो रहे थे।
चिंता. –’भंडारी जी, तुम परोसने में बड़ा विलम्ब करते हो ! क्या भीतर जा कर सोने लगते हो ? ‘
भंडारी , ‘चुपाई मारे बैठे रहो, जौन कुछ होई, सब आय जाई। घबड़ाये का नहीं होत। तुम्हारे सिवाय और कोई जिवैया नहीं बैठा है। ‘
मोटे – ’भैया, भोजन करने के पहले कुछ देर सुगंध का स्वाद तो लो। ‘
चिंता. –’अजी, सुगंध गया चूल्हे में, सुगंध देवता लोग लेते हैं। अपने लोग तो भोजन करते हैं। ‘
मोटे – ’अच्छा बताओ, पहले किस चीज पर हाथ फेरोगे ? ‘
चिंता. –’मैं जाता हूँ भीतर से सब चीजें एक साथ लिये आता हूँ। ‘
मोटे – ’धीरज धारो भैया, सब पदार्थों को आ जाने दो। ठाकुर जी का भोग तो लग जाए। ‘
चिंता. –’तो बैठे क्यों हो, तब तक भोग ही लगाओ। एक बाधा तो मिटे। नहीं तो लाओ, मैं चटपट भोग लगा दूँ। व्यर्थ देर करोगे। ‘
इतने में रानी आ गयीं। चिंतामणि सावधान हो गये। रामायण की चौपाइयों का पाठ करने लगे ,
‘रहा एक दिन अवध अधारा। समुझत मन दुख भयउ अपारा॥
कौशलेश दशरथ के जाएे। हम पितु बचन मानि बन आये॥
उलटि पलटि लंका कपि जारी। कूद पड़ा तब सिंधु मझारी॥
जेहि पर जा कर सत्य सनेहू। सो तेहि मिले न कछु संदेहू॥
जामवंत के वचन सुहाये। सुनि हनुमान हृदय अति भाये॥
पंडित मोटेराम ने देखा कि चिंतामणि का रंग जमता जाता है तो वे भी अपनी विद्वत्ता प्रकट करने को व्याकुल हो गये। बहुत दिमाग लड़ाया, पर कोई श्लोक, कोई मंत्रा, कोई कविता याद न आयी तब उन्होंने सीधे-सीधे राम-नाम का पाठ आरंभ कर दिया , ‘राम भज, राम भज, राम भज रे मन’ , इन्होंने इतने ऊँचे स्वर से जाप करना शुरू किया कि चिंतामणि को भी अपना स्वर ऊँचा करना पड़ा। मोटेराम और जोर से गरजने लगे। इतने में भंडारी ने कहा , ‘महाराज, अब भोग लगाइये। यह सुन कर उस प्रतिस्पर्धा का अंत हुआ। भोग की तैयारी हुई। बाल-वृंद सजग हो गया। किसी ने घंटा लिया, किसी ने घड़ियाल, किसी ने शंख, किसी ने करताल और चिंतामणि ने आरती उठा ली। मोटेराम मन में ऐंठ कर रह गये। रानी के समीप जाने का यह अवसर उनके हाथ से निकल गया। पर यह किसे मालूम था कि विधि-वाम उधार कुछ और ही कुटिल-क्रीड़ा कर रहा है। आरती समाप्त हो गयी थी, भोजन शुरू होने को ही था कि एक कुत्ता न-जाने किधर से आ निकला। पंडित चिंतामणि के हाथ से लड्डू थाल में गिर पड़ा। पंडित मोटेराम अचकचा कर रह गये। सर्वनाश !
चिंतामणि ने मोटेराम से इशारे में कहा , ‘अब क्या कहते हो, मित्र ? कोई उपाय निकालो, यहाँ तो कमर टूट गयी। ‘
मोटेराम ने लम्बी साँस खींचकर कहा , ‘अब क्या हो सकता है ? यह ससुर आया किधर से ? ‘
रानी पास ही खड़ी थीं, उन्होंने कहा , अरे, कुत्ता किधर से आ गया ? यह रोज बँधा रहता था, आज कैसे छूट गया ? अब तो रसोई भ्रष्ट हो गयी। ‘
चिंता. –’सरकार, आचार्यों ने इस विषय में… ‘
मोटे – ’कोई हर्ज नहीं है, सरकार, कोई हर्ज नहीं है ! ‘
सोना- ‘ भाग्य फूट गया। जोहत-जोहत आधी रात बीत गयी, तब ई विपत्ता फाट परी। ‘
चिंता. –’सरकार स्वान के मुख में अमृत. ‘..
मोटे – ’तो अब आज्ञा हो तो चलें। ‘
रानी – ‘’हाँ और क्या। मुझे बड़ा दु:ख है कि इस कुत्ते ने आज इतना बड़ा अनर्थ कर डाला। तुम बड़े गुस्ताख हो गये, टामी। भंडारी, ये पत्तर उठा कर मेहतर को दे दो। ‘
चिंता. –’(सोना से) ‘छाती फटी जाती है। ‘ सोना को बालकों पर दया आयी। बेचारे इतनी देर देवोपम धैर्य के
साथ बैठे थे। बस चलता, तो कुत्तो का गला घोंट देती। बोली , लरकन का तो दोष नहीं परत है। इन्हें काहे नहीं खवाय देत कोऊ। ‘
चिंता. –’मोटेराम महादुष्ट है। इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है। ‘
सोना – ‘ऐसे तो बड़े विद्वान बने रहैं। अब काहे नाहीं बोलत बनत। मुँह में दही जम गया, जीभै नहीं खुलत है। ‘
चिंता. –’सत्य कहता हूँ, रानी को चकमा दे देता। उस दुष्ट के मारे सब खेल बिगड़ गया। सारी अभिलाषाएँ मन में रह गयीं। ऐसे पदार्थ अब कहाँ मिल सकते हैं ?
सोना – ‘सारी मनुसई निकल गयी। घर ही में गरजै के सेर हैं।’
रानी ने भंडारी को बुला कर कहा , ‘इन छोटे-छोटे तीनों बच्चों को खिला दो। ये बेचारे क्यों भूखों मरें। क्यों फेकूराम, मिठाई खाओगे ! ‘
फेकू. – ‘इसीलिए तो आये हैं। ‘
रानी – ‘कितनी मिठाई खाओगे ? ‘
फेकू. – बहुत-सी (हाथों से बता कर) इतनी ! ‘
रानी – ‘अच्छी बात है। जितनी खाओगे उतनी मिलेगी; पर जो बात मैं पूछूँ, वह बतानी पड़ेगी। बताओगे न? ‘
फेकू. – ‘हाँ बताऊँगा, पूछिए ! ‘
रानी – ‘झूठ बोले, तो एक मिठाई न मिलेगी। समझ गये। ‘
फेकू. – ‘मत दीजिएगा। मैं झूठ बोलूँगा ही नहीं। ‘
रानी – ‘अपने पिता का नाम बताओ। ‘
मोटे – ’बालकों को हरदम सब बातें स्मरण नहीं रहतीं। उसने तो आते ही आते बता दिया था। ‘
रानी – ‘मैं फिर पूछती हूँ, इसमें आपकी क्या हानि है ? ‘
चिंता. –’नाम पूछने में कोई हर्ज नहीं।
मोटे – ’तुम चुप रहो चिंतामणि, नहीं तो ठीक न होगा। मेरे क्रोध को अभी तुम नहीं जानते। दबा बैठूँगा, तो रोते भागोगे। ‘
रानी – ‘आप तो व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हैं। बोलो फेकूराम, चुप क्यों हो, फिर मिठाई न पाओगे।
चिंता. –’महारानी की इतनी दया-दृष्टि तुम्हारे ऊपर हैं, बता दो बेटा ! ‘
मोटे – ’चिंतामणि जी, मैं देख रहा हूँ, तुम्हारे अदिन आये हैं। वह नहीं बताता, तुम्हारा साझा , आये वहाँ से बड़े खैरख्वाह बन के। ‘
सोना – ‘अरे हाँ, लरकन से ई सब पँवारा से का मतलब। तुमका धरम परे मिठाई देव, न धरम परे न देव। ई का कि बाप का नाम बताओ तब मिठाई देव। ‘
फेकूराम ने धीरे से कोई नाम लिया। इस पर पंडित जी ने उसे इतने जोर से डॉटा कि उसकी आधी बात मुँह में ही रह गयी।
रानी – ‘क्यों डॉटते हो, उसे बोलने क्यों नहीं देते ? बोलो बेटा ! ‘
मोटे – ’आप हमें अपने द्वार पर बुला कर हमारा अपमान कर रही हैं। ‘
चिंता. –’इसमें अपमान की तो कोई बात नहीं है, भाई ! ‘
मोटे – ’अब हम इस द्वार पर कभी न आयेंगे। यहाँ सत्पुरुषों का अपमान किया जाता है। ‘
अलगू , कहिए तो मैं चिंतामणि को एक पटकन दूँ।
मोटे – ’नहीं बेटा, दुष्टों को परमात्मा स्वयं दंड देता है। चलो, यहाँ से चलें। अब भूल कर यहाँ न आयेंगे। खिलाना न पिलाना, द्वार पर बुला कर ब्राह्मणों का अपमान करना। तभी तो देश में आग लगी हुई है। ‘
चिंता. –’मोटेराम , ‘महारानी के सामने तुम्हें इतनी कटु बातें न करनी चाहिए। ‘
मोटे – ’बस चुप ही रहना, नहीं तो सारा क्रोध तुम्हारे ही सिर जायगा। माता-पिता का पता नहीं, ब्राह्मण बनने चले हैं। तुम्हें कौन कहता है ब्राह्मण ? ‘
चिंता. –’जो कुछ मन चाहे, कह लो। चन्द्रमा पर थूकने से थूक अपने ही मुँह पर पड़ता है। जब तुम धर्म का एक लक्षण नहीं जानते, तब तुमसे क्या बातें करूँ ? ब्राह्मण को धैर्य रखना चाहिए। ‘
मोटे – ’पेट के गुलाम हो। ठकुरसोहाती कर रहे हो कि एकाध पत्तल मिल जाए। यहाँ मर्यादा का पालन करते हैं !
चिंता – ‘ कह तो दिया भाई कि तुम बड़े, मैं छोटा, अब और क्या कहूँ। तुम सत्य कहते होगे, मैं ब्राह्मण नहीं शूद्र हूँ। ‘
रानी – ‘ऐसा न कहिए चिंतामणि जी। ‘
‘इसका बदला न लिया तो कहना ! ‘ यह कहते हुए पंडित मोटेराम बालक-वृंद के साथ बाहर चले आये और भाग्य को कोसते हुए घर को चले। बार-बार पछता रहे थे कि दुष्ट चिंतामणि को क्यों बुला लाया।
सोना ने कहा, ‘भंडा फूटत-फूटत बच गया। फेकुआ नाँव बताय देता। काहे रे, अपने बाप केर नाँव बताय देते! ‘
फेकू. – ‘और क्या। वे तो सच-सच पूछती थीं ! ‘
मोटे – ’चिंतामणि ने रंग जमा लिया, अब आनंद से भोजन करेगा। ‘
सोना – ‘तुम्हार एको विद्या काम न आयी। ऊँ तौन बाजी मार लैगा। ‘
मोटे – ’मैं तो जानता हूँ, रानी ने जान-बूझ कर कुत्ते को बुला लिया। ‘
सोना – ‘मैं तो ओकरा मुँह देखत ताड़ गयी कि हमका पहचान गयी। ‘
इधर तो ये लोग पछताते चले जाते थे, उधार चिंतामणि की पाँचों अँगुली घी में थीं। आसन मारे भोजन कर रहे थे। रानी अपने हाथों से मिठाइयाँ परोस रही थीं; वार्त्तालाप भी होता जाता था।
रानी – ‘बड़ा धूर्त्त है ? मैं बालकों को देखते ही समझ गयी। अपनी स्त्री को भेष बदल कर लाते उसे लज्जा न आयी।‘
चिंता. –’मुझे कोस रहे होंगे ! ‘
रानी – ‘मुझसे उड़ने चला था। मैंने भी कहा था , बचा, तुमको ऐसी शिक्षा दूँगी कि उम्र भर याद करोगे। टामी को बुला लिया।’
चिंता. –’सरकार की बुद्धि धन्य है।