1 – अलग्योझा
1
भोला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने बाद दूसरी सगाई की, तो उसके लड़के रग्घू के लिए बुरे दिन आ गए। रग्घू की उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी। चैने से गाँव में गुल्ली-डंडा खेलता फिरता था। माँ के आते ही चक्की में जुतना पड़ा। पन्ना रुपवती स्त्री थी और रुप और गर्व में चोली-दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई काम न करती। गोबर रग्घू निकालता, बैलों को सानी रग्घू देता। रग्घू ही जूठे बरतन माँजता। भोला की आंखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे रग्घू में सब बुराइयाँ-ही-बुराइयाँ नजर आतीं। पन्ना की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आंखें बंद करके मान लेता था। रग्घू की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि रग्घू ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोए? बाप ही नहीं, सारा गाँव उसका दुश्मन था। बड़ा जिद्दी लड़का है, पन्ना को तो कुद समझता ही नहीं: बेचारी उसका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती हैं यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो निबाह न होता। वह तो कहा, पन्ना इतनी सीधी-सादी है कि निबाह होता जाता है। सबल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद भी कोई नहीं सुनता! रग्घू का हृदय माँ की ओर से दिन-दिन फटता जाता था। यहां तक कि आठ साठ गुजर गए और एक दिन भोला के नाम भी मृत्यु का सन्देश आ पहुँचा।
पन्ना के चार बच्चे थे-तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ खर्च और कमानेवाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पूछने लगा? यह मानी हुई बात थी। अपनी स्त्री लाएगा और अलग रहेगा। स्त्री आकर और भी आग लगाएगी। पन्ना को चारों ओर अंधेरा ही दिखाई देता था: पर कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरैत बनकर घर में रहेगी। जिस घर में उसने राज किया, उसमें अब लौंडी न बनेगी। जिस लौंडे को अपना गुलाम समझा, उसका मुंह न ताकेगी। वह सुन्दर थीं, अवस्था अभी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकती? यहीं न होगा, लोग हँसेंगे। बला से! उसकी बिरादरी में क्या ऐसा होता नहीं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ही थी कि नाक कट जायगी। यह तो उन्ही ऊँची जातों में होता है कि घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे। वह तो संसार को दिखाकर दूसरा घर कर सकती है, फिर वह रग्घू कि दबैल बनकर क्यों रहे?
भोला को मरे एक महीना गुजर चुका था। संध्या हो गई थी। पन्ना इसी चिन्ता में पड़ हुई थी कि सहसा उसे ख्याल आया, लड़के घर में नहीं हैं। यह बैलों के लौटने की बेला है, कहीं कोई लड़का उनके नीचे न आ जाए। अब द्वार पर कौन है, जो उनकी देखभाल करेगा? रग्घू को मेरे लड़के फूटी ऑंखों नहीं भाते। कभी हँसकर नहीं बोलता। घर से बाहर निकली, तो देखा, रग्घू सामने झोपड़े में बैठा ऊख की गँडेरिया बना रहा है, लड़के उसे घेरे खड़े हैं और छोटी लड़की उसकी गर्दन में हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की चेष्टा कर रही है। पन्ना को अपनी ऑंखों पर विश्वास न आया। आज तो यह नई बात है। शायद दुनिया को दिखाता है कि मैं अपने भाइयों को कितना चाहता हूँ और मन में छुरी रखी हुई है। घात मिले तो जान ही ले ले! काला सांप है, काला सांप! कठोर स्वर में बोली-तुम सबके सब वहाँ क्या करते हो? घर में आओ, सॉँझ की बेला है, गोरु आते होंगे।
रग्घू ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा—मैं तो हूँ ही काकी, डर किस बात का है?
बड़ा लड़का केदार बोला-काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाड़ियाँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुन्नू बैठेंगे, दूसरी पर लछमन और झुनियाँ। दादा दोनों गाड़ियाँ खींचेंगे।
यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाड़ियाँ निकाल लाया। चार-चार पहिए लगे थे। बैठने के लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।
पन्ना ने आश्चर्य से पूछा-ये गाड़ियाँ किसने बनाई?
केदार ने चिढ़कर कहा-रग्घू दादा ने बनाई हैं, और किसने! भगत के घर से बसूला और रुखानी माँग लाए और चटपट बना दीं। खूब दौड़ती हैं काकी! बैठ खुन्नू मैं खींचूँ।
खुन्नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर शोर हुआ मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शरीक है। लछमन ने दूसरी गाड़ी में बैठकर कहा-दादा, खींचो।
रग्घू ने झुनियाँ को भी गाड़ी में बिठा दिया और गाड़ी खींचता हुआ दौड़ा। तीनों लड़के तालियाँ बजाने लगे। पन्ना चकित नेत्रों से यह दृश्य देख रही थी और सोच रही थी कि य वही रग्घू है या कोई और।
थोड़ी देर के बाद दोनों गाड़ियाँ लौटीं: लड़के घर में जाकर इस यानयात्रा के अनुभव बयान करने लगे। कितने खुश थे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ आये हों।
खुन्नू ने कहा-काकी सब पेड़ दौड़ रहे थे।
लछमन-और बछियाँ कैसी भागीं, सबकी सब दौड़ीं!
केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों गाड़ियाँ एक साथ खींच ले जाते हैं।
झुनियाँ सबसे छोटी थी। उसकी व्यंजना-शक्ति उछल-कूद और नेत्रों तक परिमित थी-तालियाँ बजा-बजाकर नाच रही थी।
खुन्नू-अब हमारे घर गाय भी आ जाएगी काकी! रग्घू दादा ने गिरधारी से कहा है कि हमें एक गाय ला दो। गिरधारी बोला, कल लाऊँगा।
केदार-तीन सेर दूध देती है काकी! खूब दूध पीएंगे।
इतने में रग्घू भी अंदर आ गया। पन्ना ने अवहेलना की दृष्टि से देखकर पूछा-क्यों रग्घू तुमने गिरधारी से कोई गाय माँगी है?
रग्घू ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा-हाँ, माँगी तो है, कल लाएगा।
पन्ना-रुपये किसके घर से आऍंगे, यह भी सोचा है?
रग्घू-सब सोच लिया है काकी! मेरी यह मुहर नहीं है। इसके पच्चीस रुपये मिल रहे हैं, पाँच रुपये बछिया के मुजा दे दूँगा! बस, गाय अपनी हो जाएगी।
पन्ना सन्नाटे में आ गई। अब उसका अविश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम और सज्जनता को अस्वीकार न कर सका। बोली-मुहर को क्यों बेचे देते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है? हाथ में पैसे हो जाएँ, तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न लगेगा। इतने दिनों गाय नहीं रही, तो क्या लड़के नहीं जिए?
रग्घू दार्शनिक भाव से बोला-बच्चों के खाने-पीने के यही दिन हैं काकी! इस उम्र में न खाया, तो फिर क्या खाऍंगे। मुहर पहनना मुझे अच्छा भी नही मालूम होता। लोग समझते होंगे कि बाप तो गया। इसे मुहर पहनने की सूझी है। भोला महतो गाय की चिंता ही में चल बसे। न रुपये आए और न गाय मिली। मजबूर थे। रग्घू ने यह समस्या कितनी सुगमता से हल कर दी। आज जीवन में पहली बार पन्ना को रग्घू पर विश्वास आया, बोली-जब गहना ही बेचना है, तो अपनी मुहर क्यों बेचोगे? मेरी हँसुली ले लेना।
रग्घू-नहीं काकी! वह तुम्हारे गले में बहुत अच्छी लगती है। मर्दो को क्या, मुहर पहनें या न पहनें।
पन्ना-चल, मैं बूढ़ी हुई। अब हँसुली पहनकर क्या करना है। तू अभी लड़का है, तेरा गला अच्छा न लगेगा?
रग्घू मुस्कराकर बोला—तुम अभी से कैसे बूढ़ी हो गई? गाँव में है कौन तुम्हारे बराबर?
रग्घू की सरल आलोचना ने पन्ना को लज्जित कर दिया। उसके रुखे-मुरछाए मुख पर प्रसन्नता की लाली दौड़ गई।
2
पाँच साल गुजर गए। रग्घू का-सा मेहनती, ईमानदार, बात का धनी दूसरा किसान गाँव में न था। पन्ना की इच्छा के बिना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब 23 साल की हो गई थी। पन्ना बार-बार कहती, भइया, बहू को बिदा करा लाओ। कब तक नैह में पड़ी रहेगी? सब लोग मुझी को बदनाम करते हैं कि यही बहू को नहीं आने देती: मगर रग्घू टाल देता था। कहता कि अभी जल्दी क्या है? उसे अपनी स्त्री के रंग-ढंग का कुछ परिचय दूसरों से मिल चुका था। ऐसी औरत को घर में लाकर वह अपनी शॉँति में बाधा नहीं डालना चाहता था।
आखिर एक दिन पन्ना ने जिद करके कहा-तो तुम न लाओगे?
‘कह दिया कि अभी कोई जल्दी नहीं।’
‘तुम्हारे लिए जल्दी न होगी, मेरे लिए तो जल्दी है। मैं आज आदमी भेजती हूँ।’
‘पछताओगी काकी, उसका मिजाज अच्छा नहीं है।’
‘तुम्हारी बला से। जब मैं उससे बोलूँगी ही नहीं, तो क्या हवा से लड़ेगी? रोटियाँ तो बना लेगी। मुझसे भीतर-बाहर का सारा काम नहीं होता, मैं आज बुलाए लेती हूँ।’
‘बुलाना चाहती हो, बुला लो: मगर फिर यह न कहना कि यह मेहरिया को ठीक नहीं करता, उसका गुलाम हो गया।’
‘न कहूँगी, जाकर दो साड़ियाँ और मिठाई ले आ।’
तीसरे दिन मुलिया मैके से आ गई। दरवाजे पर नगाड़े बजे, शहनाइयों की मधुर ध्वनि आकाश में गूँजने लगी। मुँह-दिखावे की रस्म अदा हुई। वह इस मरुभूमि में निर्मल जलधारा थी। गेहुआँ रंग था, बड़ी-बड़ी नोकीली पलकें, कपोलों पर हल्की सुर्खी, ऑंखों में प्रबल आकर्षण। रग्घू उसे देखते ही मंत्रमुग्ध हो गया।
प्रात:काल पानी का घड़ा लेकर चलती, तब उसका गेहुआँ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुन्दन हो जाता, मानों उषा अपनी सारी सुगंध, सारा विकास और उन्माद लिये मुस्कराती चली जाती हो।
3
मुलिया मैके से ही जली-भुनी आयी थी। मेरा शौहर छाती फाड़कर काम करे, और पन्ना रानी बनी बैठी रहे, उसके लड़े रईसजादे बने घूमें। मुलिया से यह बरदाश्त न होगा। वह किसी की गुलामी न करेगी। अपने लड़के तो अपने होते ही नहीं, भाई किसके होते हैं? जब तक पर नहीं निकते हैं, रग्घू को घेरे हुए हैं। ज्यों ही जरा सयाने हुए, पर झाड़कर निकल जाएँगे, बात भी न पूछेंगे।
एक दिन उसने रग्घू से कहा—तुम्हें इस तरह गुलामी करनी हो, तो करो, मुझसे न होगी।
रग्घू—तो फिर क्या करुँ, तू ही बता? लड़के तो अभी घर का काम करने लायक भी नहीं हैं।
मुलिया—लड़के रावत के हैं, कुछ तुम्हारे नहीं हैं। यही पन्ना है, जो तुम्हें दाने-दाने को तरसाती थी। सब सुन चुकी हूँ। मैं लौंडी बनकर न रहूँगी। रुपये-पैसे का मुझे हिसाब नहीं मिलता। न जाने तुम क्या लाते हो और वह क्या करती है। तुम समझते हो, रुपये घर ही में तो हैं: मगर देख लेना, तुम्हें जो एक फूटी कौड़ी भी मिले।
रग्घू—रुपये-पैसे तेरे हाथ में देने लगूँ तो दुनिया कया कहेगी, यह तो सोच।
मुलिया—दुनिया जो चाहे, कहे। दुनिया के हाथों बिकी नहीं हूँ। देख लेना, भाड़ लीपकर हाथ काला ही रहेगा। फिर तुम अपने भाइयों के लिए मरो, मैं क्यों मरुँ?
रग्घू—ने कुछ जवाब न दिया। उसे जिस बात का भय था, वह इतनी जल्द सिर आ पड़ी। अब अगर उसने बहुत तत्थो-थंभो किया, तो साल-छ:महीने और काम चलेगा। बस, आगे यह डोंगा चलता नजर नहीं आता। बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी?
एक दिन पन्ना ने महुए का सुखावन डाला। बरसाल शुरु हो गई थी। बखार में अनाज गीला हो रहा था। मुलिया से बोली-बहू, जरा देखती रहना, मैं तालाब से नहा आऊँ?
मुलिया ने लापरवाही से कहा-मुझे नींद आ रही है, तुम बैठकर देखो। एक दिन न नहाओगी तो क्या होगा?
पन्ना ने साड़ी उतारकर रख दी, नहाने न गयी। मुलिया का वार खाली गया।
कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोपकर लौटी, अँधेरा हो गया था। दिन-भर की भूखी थी। आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी: मगर देखा तो यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। मुलिया से आहिस्ता से पूछा-आज अभी चूल्हा नहीं जला?
केदार ने कहा—आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी! भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।
पन्ना—तो तुम लोगों ने खाया क्या?
केदार—कुछ नहीं, रात की रोटियाँ थीं, खुन्नू और लछमन ने खायीं। मैंने सत्तू खा लिया।
पन्ना—और बहू?
केदार—वह पड़ी सो रह है, कुछ नहीं खाया।
पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गई। आटा गूँधती थी और रोती थी। क्या नसीब है? दिन-भर खेत में जली, घर आई तो चूल्हे के सामने जलना पड़ा।
केदार का चौदहवॉँ साल था। भाभी के रंग-ढंग देखकर सारी स्थित समझ् रहा था। बोला—काकी, भाभी अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती।
पन्ना ने चौंककर पूछा—क्या कुछ कहती थी?
केदार—कहती कुछ नहीं थी: मगर है उसके मन में यही बात। फिर तुम क्यों नहीं उसे छोड़ देतीं? जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान् है?
पन्ना ने दाँतों से जीभ दबाकर कहा—चुप, मरे सामने ऐसी बात भूलकर भी न कहना। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप है। मुलिया से कभी बोलोगे तो समझ लेना, जहर खा लूँगी।
4
दशहरे का त्यौहार आया। इस गाँव से कोस-भर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई: मगर पैसे कहाँ से आऍं? कुंजी तो मुलिया के पास थी।
रग्घू ने आकर मुलिया से कहा—लड़के मेले जा रहे हैं, सबों को दो-दो पैसे दे दो।
मुलिया ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा—पैसे घर में नहीं हैं।
रग्घू—अभी तो तेलहन बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गए?
मुलिया—हाँ, उठ गए?
रग्घू—कहाँ उठ गए? जरा सुनूँ, आज त्योहार के दिन लड़के मेला देखने न जाएँगे?
मुलिया—अपनी काकी से कहो, पैसे निकालें, गाड़कर क्या करेंगी?
खूँटी पर कुंजी हाथ पकड़ लिया और बोली—कुंजी मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने-पहने को भी चाहिए, कागज-किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिए नहीं है कि दूसरे खाऍं और मूँछों पर ताव दें।
पन्ना ने रग्घू से कहा—भइया, पैसे क्या होंगे! लड़के मेला देखने न जाएँगे।
रग्घू ने झिड़ककर कहा—मेला देखने क्यों न जाएँगे? सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के न जाएँगे?
यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकालकर लड़कों को दे दिये: मगर कुंजी जब मुलिया को देने लगा, तब उसने उसे आंगन में फेंक दिया और मुँह लपेटकर लेट गई! लड़के मेला देखने न गए।
इसके बाद दो दिन गुजर गए। मुलिया ने कुछ नहीं खाया और पन्ना भी भूखी रही रग्घू कभी इसे मनाता, कभी उसे:पर न यह उठती, न वह। आखिर रग्घू ने हैरान होकर मुलिया से पूछा—कुछ मुँह से तो कह, चाहती क्या है?
मुलिया ने धरती को सम्बोधित करके कहा—मैं कुछ नहीं चाहती, मुझे मेरे घर पहुँचा दो।
रग्घू—अच्छा उठ, बना-खा। पहुँचा दूँगा।
मुलिया ने रग्घू की ओर आंखें उठाई। रग्घू उसकी सूरत देखकर डर गया। वह माधुर्य, वह मोहकता, वह लावण्य गायब हो गया था। दॉँत निकल आए थे, आंखें फट गई थीं और नथुने फड़क रहे थे। अंगारे की-सी लाल ऑंखों से देखकर बोली—अच्छा, तो काकी ने यह सलाह दी है, यह मंत्र पढ़ाया है? तो यहाँ ऐसी कच्चे नहीं हूँ। तुम दोनों की छाती पर मूंग दलूंगी। हो किस फेर में?
रग्घू—अच्छा, तो मूंग ही दल लेना। कुछ खा-पी लेगी, तभी तो मूंग दल सकेगी।
मुलिया—अब तो तभी मुँह में पानी डालूंगी, जब घर अलग हो जाएगा। बहुत झेल चुकी, अब नहीं झेला जाता। रग्घू सन्नाटे में आ गया। एक दिन तक उसके मुँह से आवाज ही न निकली। अलग होने की उसने स्वप्न में भी कल्पना न की थी। उसने गाँव में दो-चार परिवारों को अलग होते देखा था। वह खूब जानता था, रोटी के साथ लोगों के हृदय भी अलग हो जाते हैं। अपने हमेशा के लिए गैर हो जाते हैं। फिर उनमें वही नाता रह जाता है, जो गाँव के आदमियों में। रग्घू ने मन में ठान लिया था कि इस विपत्ति को घर में न आने दूँगा: मगर होनहार के सामने उसकी एक न चली। आह! मेरे मुँह में कालिख लगेगी, दुनिया यही कहेगी कि बाप के मर जाने पर दस साल भी एक में निबाह न हो सका। फिर किससे अलग हो जाऊँ? जिनको गोद में खिलाया, जिनको बच्चों की तरह पाला, जिनके लिए तरह-तरह के कष्ठ झेले, उन्हीं से अलग हो जाऊँ? अपने प्यारों को घर से निकाल बाहर करुँ? उसका गला फँस गया। कॉँपते हुए स्वर में बोला—तू क्या चाहती है कि मैं अपने भाइयों से अलग हो जाऊँ? भला सोच तो, कहीं मुँह दिखाने लायक रहूँगा?
मुलिया—तो मेरा इन लोगों के साथ निबाह न होगा।
रग्घू—तो तू अलग हो जा। मुझे अपने साथ क्यों घसीटती है?
मुलिया—तो मुझे क्या तुम्हारे घर में मिठाई मिलती है? मेरे लिए क्या संसार में जगह नहीं है?
रग्घू—तेरी जैसी मर्जी, जहाँ चाहे रह। मैं अपने घर वालों से अलग नहीं हो सकता। जिस दिन इस घर में दो चूल्हें जलेंगे, उस दिन मेरे कलेजे के दो टुकड़े हो जाएँगे। मैं यह चोट नहीं सह सकता। तुझे जो तकलीफ हो, वह मैं दूर कर सकता हूँ। माल-असबाब की मालकिन तू है ही: अनाज-पानी तेरे ही हाथ है, अब रह क्या गया है? अगर कुछ काम-धंधा करना नहीं चाहती, मत कर। भगवान ने मुझे समाई दी होती, तो मैं तुझे तिनका तक उठाने न देता। तेरे यह सुकुमार हाथ-पांव मेहनत-मजदूरी करने के लिए बनाए ही नहीं गए हैं: मगर क्या करुँ अपना कुछ बस ही नहीं है। फिर भी तेरा जी कोई काम करने को न चाहे, मत कर: मगर मुझसे अलग होने को न कह, तेरे पैरों पड़ता हूँ।
मुलिया ने सिर से अंचल खिसकाया और जरा समीप आकर बोली—मैं काम करने से नहीं डरती, न बैठे-बैठे खाना चाहती हूँ: मगर मुझ से किसी की धौंस नहीं सही जाती। तुम्हारी ही काकी घर का काम-काज करती हैं, तो अपने लिए करती हैं, अपने बाल-बच्चों के लिए करती हैं। मुझ पर कुछ एहसान नहीं करतीं, फिर मुझ पर धौंस क्यों जमाती हैं? उन्हें अपने बच्चे प्यारे होंगे, मुझे तो तुम्हारा आसरा है। मैं अपनी ऑंखों से यह नहीं देख सकती कि सारा घर तो चैन करे, जरा-जरा-से बच्चे तो दूध पीऍं, और जिसके बल-बूते पर गृहस्थी बनी हुई है, वह मट्ठे को तरसे। कोई उसका पूछनेवाला न हो। जरा अपना मुंह तो देखो, कैसी सूरत निकल आई है। औरों के तो चार बरस में अपने पट्ठे तैयार हो जाएँगे। तुम तो दस साल में खाट पर पड़ जाओगे। बैठ जाओ, खड़े क्यों हो? क्या मारकर भागोगे? मैं तुम्हें जबरदस्ती न बॉँध लूँगी, या मालकिन का हुक्म नहीं है? सच कहूँ, तुम बड़े कठ-कलेजी हो। मैं जानती, ऐसे निर्मोहिए से पाला पड़ेगा, तो इस घर में भूल से न आती। आती भी तो मन न लगाती, मगर अब तो मन तुमसे लग गया। घर भी जाऊँ, तो मन यहाँ ही रहेगा और तुम जो हो, मेरी बात नहीं पूछते।
मुलिया की ये रसीली बातें रग्घू पर कोई असर न डाल सकीं। वह उसी रुखाई से बोला—मुलिया, मुझसे यह न होगा। अलग होने का ध्यान करते ही मेरा मन न जाने कैसा हो जाता है। यह चोट मुझ से न सही जाएगी।
मुलिया ने परिहास करके कहा—तो चूड़ियाँ पहनकर अन्दर बैठो न! लाओ मैं मूँछें लगा लूं। मैं तो समझती थी कि तुममें भी कुछ कल-बल है। अब देखती हूँ, तो निरे मिट्टी के लौंदे हो।
पन्ना दालान में खड़ी दोनों की बातचीत सुन नहीं थी। अब उससे न रहा गया। सामने आकर रग्घू से बोली—जब वह अलग होने पर तुली हुई है, फिर तुम क्यों उसे जबरदस्ती मिलाए रखना चाहते हो? तुम उसे लेकर रहो, हमारे भगवान् ने निबाह दिया, तो अब क्या डर? अब तो भगवान् की दया से तीनों लड़के सयाने हो गए हैं, अब कोई चिन्ता नहीं।
रग्घू ने ऑंसू-भरी ऑंखों से पन्ना को देखकर कहा—काकी, तू भी पागल हो गई है क्या? जानती नहीं, दो रोटियाँ होते ही दो मन हो जाते हैं।
पन्ना—जब वह मानती ही नहीं, तब तुम क्या करोगे? भगवान् की मरजी होगी, तो कोई क्या करेगा? परालब्ध में जितने दिन एक साथ रहना लिखा था, उतने दिन रहे। अब उसकी यही मरजी है, तो यही सही। तुमने मेरे बाल-बच्चों के लिए जो कुछ किया, वह भूल नहीं सकती। तुमने इनके सिर हाथ न रखा होता, तो आज इनकी न जाने क्या गति होती: न जाने किसके द्वार पर ठोकरें खातें होते, न जाने कहाँ-कहाँ भीख माँगते फिरते। तुम्हारा जस मरते दम तक गाऊँगी। अगर मेरी खाल तुम्हारे जूते बनाने के काम आते, तो खुशी से दे दूँ। चाहे तुमसे अलग हो जाऊँ, पर जिस घड़ी पुकारोगे, कुत्ते की तरह दौड़ी आऊँगी। यह भूलकर भी न सोचना कि तुमसे अलग होकर मैं तुम्हारा बुरा चेतूँगी। जिस दिन तुम्हारा अनभल मेरे मन में आएगा, उसी दिन विष खाकर मर जाऊँगी। भगवान् करे, तुम दूधों नहाओं, पूतों फलों! मरते दम तक यही असीस मेरे रोऍं-रोऍं से निकलती रहेगी और अगर लड़के भी अपने बाप के हैं। तो मरते दम तक तुम्हारा पोस मानेंगे।
यह कहकर पन्ना रोती हुई वहाँ से चली गई। रग्घू वहीं मूर्ति की तरह बैठा रहा। आसमान की ओर टकटकी लगी थी और ऑंखों से ऑंसू बह रहे थे।
5
पन्ना की बातें सुनकर मुलिया समझ गई कि अपने पौबारह हैं। चटपट उठी, घर में झाड़ू लगाई, चूल्हा जलाया और कुऍं से पानी लाने चली। उसकी टेक पूरी हो गई थी।
गाँव में स्त्रियों के दो दल होते हैं—एक बहुओं का, दूसरा सासों का! बहुऍं सलाह और सहानुभूति के लिए अपने दल में जाती हैं, सासें अपने में। दोनों की पंचायतें अलग होती हैं। मुलिया को कुऍं पर दो-तीन बहुऍं मिल गई। एक से पूछा—आज तो तुम्हारी बुढ़िया बहुत रो-धो रही थी।
मुलिया ने विजय के गर्व से कहा—इतने दिनों से घर की मालकिन बनी हुई है, राज-पाट छोड़ते किसे अच्छा लगता है? बहन, मैं उनका बुरा नहीं चाहती: लेकिन एक आदमी की कमाई में कहाँ तक बरकत होगी। मेरे भी तो यही खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के दिन हैं। अभी उनके पीछे मरो, फिर बाल-बच्चे हो जाएँ, उनके पीछे मरो। सारी जिन्दगी रोते ही कट जाएगी।
एक बहू-बुढ़िया यही चाहती है कि यह सब जन्म-भर लौंडी बनी रहें। मोटा-झोटा खाएं और पड़ी रहें। दूसरी बहू—किस भरोसे पर कोई मरे—अपने लड़के तो बात नहीं पूछें पराए लड़कों का क्या भरोसा? कल इनके हाथ-पैर हो जायेंगे, फिर कौन पूछता है! अपनी-अपनी मेहरियों का मुंह देखेंगे। पहले ही से फटकार देना अच्छा है, फिर तो कोई कलक न होगा।
मुलिया पानी लेकर गयी, खाना बनाया और रग्घू से बोली—जाओं, नहा आओ, रोटी तैयार है।
रग्घू ने मानों सुना ही नहीं। सिर पर हाथ रखकर द्वार की तरफ ताकता रहा।
मुलिया—क्या कहती हूँ, कुछ सुनाई देता है, रोटी तैयार है, जाओं नहा आओ।
रग्घू—सुन तो रहा हूँ, क्या बहरा हूँ? रोटी तैयार है तो जाकर खा ले। मुझे भूख नहीं है।
मुलिया ने फिर नहीं कहा। जाकर चूल्हा बुझा दिया, रोटियाँ उठाकर छींके पर रख दीं और मुँह ढॉँककर लेट रही। जरा देर में पन्ना आकर बोली—खाना तैयार है, नहा-धोकर खा लो! बहू भी भूखी होगी।
रग्घू ने झुँझलाकर कहा—काकी तू घर में रहने देगी कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँ? खाना तो खाना ही है, आज न खाऊँगा, कल खाऊँगा, लेकिन अभी मुझसे न खाया जाएगा। केदार क्या अभी मदरसे से नहीं आया? पन्ना—अभी तो नीं आया, आता ही होगा।
पन्ना समझ गई कि जब तक वह खाना बनाकर लड़कों को न खिलाएगी और खुद न खाएगी रग्घू न खाएगा। इतना ही नहीं, उसे रग्घू से लड़ाई करनी पड़ेगी, उसे जली-कटी सुनानी पड़ेगी। उसे यह दिखाना पड़ेगा कि मैं ही उससे अलग होना चाहती हूँ नहीं तो वह इसी चिन्ता में घुल-घुलकर प्राण दे देगा। यह सोचकर उसने अलग चूल्हा जलाया और खाना बनाने लगी। इतने में केदार और खुन्नू मदरसे से आ गए। पन्ना ने कहा—आओ बेटा, खा लो, रोटी तैयार है।
केदार ने पूछा—भइया को भी बुला लूँ न?
पन्ना—तुम आकर खा लो। उसकी रोटी बहू ने अलग बनाई है।
खुन्नू—जाकर भइया से पूछ न आऊँ?
पन्ना—जब उनका जी चाहेगा, खाऍंगे। तू बैठकर खा: तुझे इन बातों से क्या मतलब? जिसका जी चाहेगा खाएगा, जिसका जी न चाहेगा, न खाएगा। जब वह और उसकी बीवी अलग रहने पर तुले हैं, तो कौन मनाए?
केदार—तो क्यों अम्माजी, क्या हम अलग घर में रहेंगे?
पन्ना—उनका जी चाहे, एक घर में रहें, जी चाहे ऑंगन में दीवार डाल लें।
खुन्नू ने दरवाजे पर आकर झॉँका, सामने फूस की झोंपड़ी थी, वहीं खाट पर पड़ा रग्घू नारियल पी रहा था।
खुन्नू— भइया तो अभी नारियल लिये बैठे हैं।
पन्ना—जब जी चाहेगा, खाऍंगे।
केदार—भइया ने भाभी को डॉँटा नहीं?
मुलिया अपनी कोठरी में पड़ी सुन रही थी। बाहर आकर बोली—भइया ने तो नहीं डॉँटा अब तुम आकर डॉँटों।
केदार के चेहरे पर रंग उड़ गया। फिर जबान न खोली। तीनों लड़कों ने खाना खाया और बाहर निकले। लू चलने लगी थी। आम के बाग में गाँव के लड़के-लड़कियाँ हवा से गिरे हुए आम चुन रहे थे। केदार ने कहा—आज हम भी आम चुनने चलें, खूब आम गिर रहे हैं।
खुन्नू—दादा जो बैठे हैं?
लछमन—मैं न जाऊँगा, दादा घुड़केंगे।
केदार—वह तो अब अलग हो गए।
लक्षमन—तो अब हमको कोई मारेगा, तब भी दादा न बोलेंगे?
केदार—वाह, तब क्यों न बोलेंगे?
रग्घू ने तीनों लड़कों को दरवाजे पर खड़े देखा: पर कुछ बोला नहीं। पहले तो वह घर के बाहर निकलते ही उन्हें डॉँट बैठता था: पर आज वह मूर्ति के समान निश्चल बैठा रहा। अब लड़कों को कुछ साहस हुआ। कुछ दूर और आगे बढ़े। रग्घू अब भी न बोला, कैसे बोले? वह सोच रहा था, काकी ने लड़कों को खिला-पिला दिया, मुझसे पूछा तक नहीं। क्या उसकी ऑंखों पर भी परदा पड़ गया है: अगर मैंने लड़कों को पुकारा और वह न आयें तो? मैं उनकों मार-पीट तो न सकूँगा। लू में सब मारे-मारे फिरेंगे। कहीं बीमार न पड़ जाएँ। उसका दिल मसोसकर रह जाता था, लेकिन मुँह से कुछ कह न सकता था। लड़कों ने देखा कि यह बिलकुल नहीं बोलते, तो निर्भय होकर चल पड़े।
सहसा मुलिया ने आकर कहा—अब तो उठोगे कि अब भी नहीं? जिनके नाम पर फाका कर रहे हो, उन्होंने मजे से लड़कों को खिलाया और आप खाया, अब आराम से सो रही है। ‘मोर पिया बात न पूछें, मोर सुहागिन नॉँव।’ एक बार भी तो मुँह से न फूटा कि चलो भइया, खा लो।
रग्घू को इस समय मर्मान्तक पीड़ा हो रह थी। मुलिया के इन कठोर शब्दों ने घाव पर नमक छिड़क दिया। दु:खित नेत्रों से देखकर बोला—तेरी जो मर्जी थी, वही तो हुआ। अब जा, ढोल बजा!
मुलिया—नहीं, तुम्हारे लिए थाली परोसे बैठी है।
रग्घू—मुझे चिढ़ा मत। तेरे पीछे मैं भी बदनाम हो रहा हूँ। जब तू किसी की होकर नहीं रहना चाहती, तो दूसरे को क्या गरज है, जो मेरी खुशामद करे? जाकर काकी से पूछ, लड़के आम चुनने गए हैं, उन्हें पकड़ लाऊँ?
मुलिया अँगूठा दिखाकर बोली—यह जाता है। तुम्हें सौ बार गरज हो, जाकर पूछो।
इतने में पन्ना भी भीतर से निकल आयी। रग्घू ने पूछा—लड़के बगीचे में चले गए काकी, लू चल रही है। पन्ना—अब उनका कौन पुछत्तर है? बगीचे में जाएँ, पेड़ पर चढ़ें, पानी में डूबें। मैं अकेली क्या-क्या करुँ? रग्घू—जाकर पकड़ लाऊँ?
पन्ना—जब तुम्हें अपने मन से नहीं जाना है, तो फिर मैं जाने को क्यों कहूँ? तुम्हें रोकना होता , तो रोक न देते? तुम्हारे सामने ही तो गए होंगे?
पन्ना की बात पूरी भी न हुई थी कि रग्घू ने नारियल कोने में रख दिया और बाग की तरफ चला।
6
रग्घू लड़कों को लेकर बाग से लौटा, तो देखा मुलिया अभी तक झोंपड़े में खड़ी है। बोला—तू जाकर खा क्यों नहीं लेती? मुझे तो इस बेला भूख नहीं है।
मुलिया ऐंठकर बोली—हाँ, भूख क्यों लगेगी! भाइयों ने खाया, वह तुम्हारे पेट में पहुँच ही गया होगा।
रग्घू ने दॉँत पीसकर कहा—मुझे जला मत मुलिया, नहीं अच्छा न होगा। खाना कहीं भागा नहीं जाता। एक बेला न खाऊँगा, तो मर न जाउँगा! क्या तू समझती हैं, घर में आज कोई बात हो गई हैं? तूने घर में चूल्हा नहीं जलाया, मेरे कलेजे में आग लगाई है। मुझे घमंड था कि और चाहे कुछ हो जाए, पर मेरे घर में फूट का रोग न आने पाएगा, पर तूने घमंड चूर कर दिया। परालब्ध की बात है।
मुलिया तिनककर बोली—सारा मोह-छोह तुम्हीं को है कि और किसी को है? मैं तो किसी को तुम्हारी तरह बिसूरते नहीं देखती।
रग्घू ने ठंडी सॉँस खींचकर कहा—मुलिया, घाव पर नोन न छिड़क। तेरे ही कारन मेरी पीठ में धूल लग रही है। मुझे इस गृहस्थी का मोह न होगा, तो किसे होगा? मैंने ही तो इसे मर-मर जोड़ा। जिनको गोद में खेलाया, वहीं अब मेरे पट्टीदार होंगे। जिन बच्चों को मैं डॉँटता था, उन्हें आज कड़ी ऑंखों से भी नहीं देख सकता। मैं उनके भले के लिए भी कोई बात करुँ, तो दुनिया यही कहेगी कि यह अपने भाइयों को लूटे लेता है। जा मुझे छोड़ दे, अभी मुझसे कुछ न खाया जाएगा।
मुलिया—मैं कसम रखा दूँगी, नहीं चुपके से चले चलो।
रग्घू—देख, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। अपना हठ छोड़ दे।
मुलिया—हमारा ही लहू पिए, जो खाने न उठे।
रग्घू ने कानों पर हाथ रखकर कहा—यह तूने क्या किया मुलिया? मैं तो उठ ही रहा था। चल खा लूँ। नहाने-धोने कौन जाए, लेकिन इतनी कहे देता हूँ कि चाहे चार की जगह छ: रोटियाँ खा जाऊँ, चाहे तू मुझे घी के मटके ही में डुबा दे: पर यह दाग मेरे दिल से न मिटेगा।
मुलिया—दाग-साग सब मिट जाएगा। पहले सबको ऐसा ही लगता है। देखते नहीं हो, उधर कैसी चैन की वंशी बज रही है, वह तो मना ही रही थीं कि किसी तरह यह सब अलग हो जाएँ। अब वह पहले की-सी चॉँदी तो नहीं है कि जो कुछ घर में आवे, सब गायब! अब क्यों हमारे साथ रहने लगीं?
रग्घू ने आहत स्वर में कहा—इसी बात का तो मुझे गम है। काकी ने मुझे ऐसी आशा न थी।
रग्घू खाने बैठा, तो कौर विष के घूँट-सा लगता था। जान पड़ता था, रोटियाँ भूसी की हैं। दाल पानी-सी लगती। पानी कंठ के नीचे न उतरता था, दूध की तरफ देखा तक नहीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे किसी प्रियजन के श्राद्ध का भोजन हो।
रात का भोजन भी उसने इसी तरह किया। भोजन क्या किया, कसम पूरी की। रात-भर उसका चित्त उद्विग्न रहा। एक अज्ञात शंका उसके मन पर छाई हुई थी, जेसे भोला महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह कई बार चौंककर उठा। ऐसा जान पड़ा, भोला उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देख रहा है।
वह दोनों जून भोजन करता था: पर जैसे शत्रु के घर। भोला की शोकमग्न मूर्ति ऑंखों से न उतरती थी। रात को उसे नींद न आती। वह गाँव में निकलता, तो इस तरह मुँह चुराए, सिर झुकाए मानो गो-हत्या की हो।
7
पाँच साल गुजर गए। रग्घू अब दो लड़कों का बाप था। आँगन में दीवार खिंच गई थी, खेतों में मेड़ें डाल दी गई थीं और बैल-बछिए बांध लिये गए थे। केदार की उम्र अब उन्नीस की हो गई थी। उसने पढ़ना छोड़ दिया था और खेती का काम करता था। खुन्नू गाय चराता था। केवल लछमन अब तक मदरसे जाता था। पन्ना और मुलिया दोनों एक-दूसरे की सूरत से जलती थीं। मुलिया के दोनों लड़के बहुधा पन्ना ही के पास रहते। वहीं उन्हें उबटन मलती, वही काजल लगाती, वही गोद में लिये फिरती: मगर मुलिया के मुंह से अनुग्रह का एक शब्द भी न निकलता। न पन्ना ही इसकी इच्छुक थी। वह जो कुछ करती निर्व्याज भाव से करती थी। उसके दो-दो लड़के अब कमाऊ हो गए थे। लड़की खाना पका लेती थी। वह खुद ऊपर का काम-काज कर लेती। इसके विरुद्ध रग्घू अपने घर का अकेला था, वह भी दुर्बल, अशक्त और जवानी में बूढ़ा। अभी आयु तीस वर्ष से अधिक न थी, लेकिन बाल खिचड़ी हो गए थे। कमर भी झुक चली थी। खांसी ने जीर्ण कर रखा था। देखकर दया आती थी। और खेती पसीने की वस्तु है। खेती की जैसी सेवा होनी चाहिए, वह उससे न हो पाती। फिर अच्छी फसल कहाँ से आती? कुछ ऋण भी हो गया था। वह चिंता और भी मारे डालती थी। चाहिए तो यह था कि अब उसे कुछ आराम मिलता। इतने दिनों के निरन्तर परिश्रम के बाद सिर का बोझ कुछ हल्का होता, लेकिन मुलिया की स्वार्थपरता और अदूरदर्शिता ने लहराती हुई खेती उजाड़ दी। अगर सब एक साथ रहते, तो वह अब तक पेन्शन पा जाता, मजे में द्वार पर बैठा हुआ नारियल पीता। भाई काम करते, वह सलाह देता। महतो बना फिरता। कहीं किसी के झगड़े चुकाता, कहीं साधु-संतों की सेवा करता: वह अवसर हाथ से निकल गया। अब तो चिंता-भार दिन-दिन बढ़ता जाता था।
आखिर उसे धीमा-धीमा ज्वर रहने लगा। हृदय-शूल, चिंता, कड़ा परिश्रम और अभाव का यही पुरस्कार है। पहले कुछ परवाह न की। समझा आप ही आप अच्छा हो जाएगा: मगर कमजोरी बढ़ने लगी, तो दवा की फिक्र हुई। जिसने जो बता दिया, खा लिया, डाक्टरों और वैद्यों के पास जाने की सामर्थ्य कहाँ? और सामर्थ्य भी होती, तो रुपये खर्च कर देने के सिवा और नतीजा ही क्या था? जीर्ण ज्वर की औषधि आराम और पुष्टिकारक भोजन है। न वह बसंत-मालती का सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर बलबर्धक भोजन कर सकता था। कमजोरी बढ़ती ही गई।
पन्ना को अवसर मिलता, तो वह आकर उसे तसल्ली देती: लेकिन उसके लड़के अब रग्घू से बात भी न करते थे। दवा-दारु तो क्या करतें, उसका और मजाक उड़ाते। भैया समझते थे कि हम लोगों से अलग होकर सोने और ईट रख लेंगे। भाभी भी समझती थीं, सोने से लद जाऊँगी। अब देखें कौन पूछता है? सिसक-सिसककर न मरें तो कह देना। बहुत ‘हाय! हाय!’ भी अच्छी नहीं होती। आदमी उतना काम करे, जितना हो सके। यह नहीं कि रुपये के लिए जान दे दे।
पन्ना कहती—रग्घू बेचारे का कौन दोष है?
केदार कहता—चल, मैं खूब समझता हूँ। भैया की जगह मैं होता, तो डंडे से बात करता। मजाक थी कि औरत यों जिद करती। यह सब भैया की चाल थी। सब सधी-बधी बात थी।
आखिर एक दिन रग्घू का टिमटिमाता हुआ जीवन-दीपक बुझ गया। मौत ने सारी चिन्ताओं का अंत कर दिया। अंत समय उसने केदार को बुलाया था: पर केदार को ऊख में पानी देना था। डरा, कहीं दवा के लिए न भेज दें। बहाना बना दिया।
8
मुलिया का जीवन अंधकारमय हो गया। जिस भूमि पर उसने मनसूबों की दीवार खड़ी की थी, वह नीचे से खिसक गई थी। जिस खूँटें के बल पर वह उछल रही थी, वह उखड़ गया था। गाँववालों ने कहना शुरु किया, ईश्वर ने कैसा तत्काल दंड दिया। बेचारी मारे लाज के अपने दोनों बच्चों को लिये रोया करती। गाँव में किसी को मुँह दिखाने का साहस न होता। प्रत्येक प्राणी उससे यह कहता हुआ मालूम होता था—‘मारे घमण्ड के धरती पर पांव न रखती थी: आखिर सजा मिल गई कि नहीं !’ अब इस घर में कैसे निर्वाह होगा? वह किसके सहारे रहेगी? किसके बल पर खेती होगी? बेचारा रग्घू बीमार था। दुर्बल था, पर जब तक जीता रहा, अपना काम करता रहा। मारे कमजोरी के कभी-कभी सिर पकड़कर बैठ जाता और जरा दम लेकर फिर हाथ चलाने लगता था। सारी खेती तहस-नहस हो रही थी, उसे कौन संभालेगा? अनाज की डॉँठें खलिहान में पड़ी थीं, ऊख अलग सूख रही थी। वह अकेली क्या-क्या करेगी? फिर सिंचाई अकेले आदमी का तो काम नहीं। तीन-तीन मजदूरों को कहाँ से लाए! गाँव में मजदूर थे ही कितने। आदमियों के लिए खींचा-तानी हो रही थी। क्या करें, क्या न करे।
इस तरह तेरह दिन बीत गए। क्रिया-कर्म से छुट्टी मिली। दूसरे ही दिन सवेरे मुलिया ने दोनों बालकों को गोद में उठाया और अनाज माँड़ने चली। खलिहान में पहुंचकर उसने एक को तो पेड़ के नीचे घास के नर्म बिस्तर पर सुला दिया और दूसरे को वहीं बैठाकर अनाज माँड़ने लगी। बैलों को हाँकती थी और रोती थी। क्या इसीलिए भगवान् ने उसको जन्म दिया था? देखते-देखते क्या वे क्या हो गया? इन्हीं दिनों पिछले साल भी अनाज माँड़ा गया था। वह रग्घू के लिए लोटे में शरबत और मटर की घुँघी लेकर आई थी। आज कोई उसके आगे है, न पीछे: लेकिन किसी की लौंडी तो नहीं हूँ! उसे अलग होने का अब भी पछतावा न था।
एकाएक छोटे बच्चे का रोना सुनकर उसने उधर ताका, तो बड़ा लड़का उसे चुमकारकर कह रहा था—बैया तुप रहो, तुप रहो। धीरे-धीरे उसके मुंह पर हाथ फेरता था और चुप कराने के लिए विकल था। जब बच्चा किसी तरह न चुप न हुआ तो वह खुद उसके पास लेट गया और उसे छाती से लगाकर प्यार करने लगा: मगर जब यह प्रयत्न भी सफल न हुआ, तो वह रोने लगा।
उसी समय पन्ना दौड़ी आयी और छोटे बालक को गोद में उठाकर प्यार करती हुई बोली—लड़कों को मुझे क्यों न दे आयी बहू? हाय! हाय! बेचारा धरती पर पड़ा लोट रहा है। जब मैं मर जाऊँ तो जो चाहे करना, अभी तो जीती हूँ, अलग हो जाने से बच्चे तो नहीं अलग हो गए।
मुलिया ने कहा—तुम्हें भी तो छुट्टी नहीं थी अम्मा, क्या करती?
पन्ना—तो तुझे यहाँ आने की ऐसी क्या जल्दी थी? डाठ माँड़ न जाती। तीन-तीन लड़के तो हैं, और किसी दिन काम आऍंगे? केदार तो कल ही माँड़ने को कह रहा था: पर मैंने कहा, पहले ऊख में पानी दे लो, फिर आज मॉड़ना, मँड़ाई तो दस दिन बाद भ हो सकती है, ऊख की सिंचाई न हुई तो सूख जाएगी। कल से पानी चढ़ा हुआ है, परसों तक खेत पुर जाएगा। तब मँड़ाई हो जाएगी। तुझे विश्वास न आएगा, जब से भैया मरे हैं, केदार को बड़ी चिंता हो गई है। दिन में सौ-सौ बार पूछता है, भाभी बहुत रोती तो नहीं हैं? देख, लड़के भूखे तो नहीं हैं। कोई लड़का रोता है, तो दौड़ा आता है, देख अम्मा, क्या हुआ, बच्चा क्यों रोता है? कल रोकर बोला—अम्मा, मैं जानता कि भैया इतनी जल्दी चले जाएँगे, तो उनकी कुछ सेवा कर लेता। कहाँ जगाए-जगाए उठता था, अब देखती हो, पहर रात से उठकर काम में लग जाता है। खुन्नू कल जरा-सा बोला, पहले हम अपनी ऊख में पानी दे लेंगे, तब भैया की ऊख में देंगे। इस पर केदार ने ऐसा डॉँटा कि खुन्नू के मुँह से फिर बात न निकली। बोला, कैसी तुम्हारी और कैसी हमारी ऊख? भैया ने जिला न लिया होता, तो आज या तो मर गए होते या कहीं भीख माँगते होते। आज तुम बड़े ऊखवाले बने हो! यह उन्हीं का पुन-परताप है कि आज भले आदमी बने बैठे हो। परसों रोटी खाने को बुलाने गई, तो मँड़ैया में बैठा रो रहा था। पूछा, क्यों रोता है? तो बोला, अम्मा, भैया इसी ‘अलग्योझ’ के दुख से मर गए, नहीं अभी उनकी उमिर ही क्या थी! यह उस वक्त न सूझा, नहीं उनसे क्यों बिगाड़ करते?
यह कहकर पन्ना ने मुलिया की ओर संकेतपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा—तुम्हें वह अलग न रहने देगा बहू, कहता है, भैया हमारे लिए मर गए तो हम भी उनके बाल-बच्चों के लिए मर जाएँगे।
मुलिया की आंखों से ऑंसू जारी थे। पन्ना की बातों में आज सच्ची वेदना, सच्ची सान्त्वना, सच्ची चिन्ता भरी हुई थी। मुलिया का मन कभी उसकी ओर इतना आकर्षित न हुआ था। जिनसे उसे व्यंग्य और प्रतिकार का भय था, वे इतने दयालु, इतने शुभेच्छु हो गए थे।
आज पहली बार उसे अपनी स्वार्थपरता पर लज्जा आई। पहली बार आत्मा ने अलग्योझे पर धिक्कारा।
9
इस घटना को हुए पाँच साल गुजर गए। पन्ना आज बूढ़ी हो गई है। केदार घर का मालिक है। मुलिया घर की मालकिन है। खुन्नू और लछमन के विवाह हो चुके हैं: मगर केदार अभी तक कंवारा है। कहता हैं— मैं विवाह न करुँगा। कई जगहों से बातचीत हुई, कई सगाइयाँ आयीं: पर उसे हामी न भरी। पन्ना ने कम्पे लगाए, जाल फैलाए, पर व न फँसा। कहता—औरतों से कौन सुख? मेहरिया घर में आयी और आदमी का मिजाज बदला। फिर जो कुछ है, वह मेहरिया है। माँ-बाप, भाई-बन्धु सब पराए हैं। जब भैया जैसे आदमी का मिजाज बदल गया, तो फिर दूसरों की क्या गिनती? दो लड़के भगवान् के दिये हैं और क्या चाहिए। बिना ब्याह किए दो बेटे मिल गए, इससे बढ़कर और क्या होगा? जिसे अपना समझो, व अपना है: जिसे गैर समझो, वह गैर है।
एक दिन पन्ना ने कहा—तेरा वंश कैसे चलेगा?
केदार—मेरा वंश तो चल रहा है। दोनों लड़कों को अपना ही समझता हूँ।
पन्ना—समझने ही पर है, तो तू मुलिया को भी अपनी मेहरिया समझता होगा?
केदार ने झेंपते हुए कहा—तुम तो गाली देती हो अम्मा!
पन्ना—गाली कैसी, तेरी भाभी ही तो है!
केदार—मेरे जेसे लट्ठ-गँवार को वह क्यों पूछने लगी!
पन्ना—तू करने को कह, तो मैं उससे पूछूँ?
केदार—नहीं मेरी अम्मा, कहीं रोने-गाने न लगे।
पन्ना—तेरा मन हो, तो मैं बातों-बातों में उसके मन की थाह लूँ?
केदार—मैं नहीं जानता, जो चाहे कर।
पन्ना केदार के मन की बात समझ गई। लड़के का दिल मुलिया पर आया हुआ है: पर संकोच और भय के मारे कुछ नहीं कहता।
उसी दिन उसने मुलिया से कहा—क्या करुँ बहू, मन की लालसा मन में ही रह जाती है। केदार का घर भी बस जाता, तो मैं निश्चिन्त हो जाती।
मुलिया—वह तो करने को ही नहीं कहते।
पन्ना—कहता है, ऐसी औरत मिले, जो घर में मेल से रहे, तो कर लूँ।
मुलिया—ऐसी औरत कहाँ मिलेगी? कहीं ढूँढ़ो।
पन्ना—मैंने तो ढूँढ़ लिया है।
मुलिया—सच, किस गाँव की है?
पन्ना—अभी न बताऊँगी, मुदा यह जानती हूँ कि उससे केदार की सगाई हो जाए, तो घर बन जाए और केदार की जिन्दगी भी सुफल हो जाए। न जाने लड़की मानेगी कि नहीं।
मुलिया—मानेगी क्यों नहीं अम्मा, ऐसा सुन्दर कमाऊ, सुशील वर और कहाँ मिला जाता है? उस जनम का कोई साधु-महात्मा है, नहीं तो लड़ाई-झगड़े के डर से कौन बिन ब्याहा रहता है। कहाँ रहती है, मैं जाकर उसे मना लाऊँगी।
पन्ना—तू चाहे, तो उसे मना ले। तेरे ही ऊपर है।
मुलिया—मैं आज ही चली जाऊँगी, अम्मा, उसके पैरों पड़कर मना लाऊँगी।
पन्ना—बता दूँ, वह तू ही है!
मुलिया लजाकर बोली—तुम तो अम्माजी, गाली देती हो।
पन्ना—गाली कैसी, देवर ही तो है!
मुलिया—मुझ जैसी बुढ़िया को वह क्यों पूछेंगे?
पन्ना—वह तुझी पर दाँत लगाए बैठा है। तेरे सिवा कोई और उसे भाती ही नहीं। डर के मारे कहता नहीं: पर उसके मन की बात मैं जानती हूँ।
वैधव्य के शौक से मुरझाया हुआ मुलिया का पीत वदन कमल की भॉँति अरुण हो उठा। दस वर्षो में जो कुछ खोया था, वह इसी एक क्षण में मानों ब्याज के साथ मिल गया। वही लवण्य, वही विकास, वहीं आकर्षण, वहीं लोच।
2 – नया विवाह
हमारी देह पुरानी है, लेकिन इसमें सदैव नया रक्त दौड़ता रहता है। नये रक्त के प्रवाह पर ही हमारे जीवन का आधार है। पृथ्वी की इस चिरन्तन व्यवस्था में यह नयापन उसके एक-एक अणु में, एक-एक कण में, तार में बसे हुए स्वरों की भाँति, गूँजता रहता है और यह सौ साल की बुढ़िया आज भी नवेली दुल्हन बनी हुई है।
जब से लाला डंगामल ने नया विवाह किया है, उनका यौवन नये सिरे से जाग उठा है। जब पहली स्त्री जीवित थी, तब वे घर में बहुत कम रहते थे। प्रात: से दस ग्यारह बजे तक तो पूजा-पाठ ही करते रहते थे। फिर भोजन करके दूकान चले जाते। वहाँ से एक बजे रात लौटते और थके-माँदे सो जाते। यदि लीला कभी कहती, जरा और सबेरे आ जाया करो, तो बिगड़ जाते और कहते तुम्हारे लिए क्या दूकान छोड़ दूं, या रोजगार बन्द कर दूं ?यह वह जमाना नहीं है कि एक लोटा जल चढ़ाकर लक्ष्मी प्रसन्न कर ली जायँ। आज उनकी चौखट पर माथा रगड़ना पड़ता है; तब भी उनका मुँह सीधा नहीं होता। लीला बेचारी चुप हो जाती।
अभी छ: महीने की बात है। लीला को ज्वर चढ़ा हुआ था। लालाजी दूकान जाने लगे, तब उसने डरते-डरते कहा, था देखो, मेरा जी अच्छा नहीं है। जरा सबेरे आ जाना। डंगामल ने पगड़ी उतारकर खूँटी पर लटका दी और बोले अगर मेरे बैठे रहने से तुम्हारा जी अच्छा हो जाय, तो मैं दूकान न जाऊँगा। लीला हताश होकर बोली, मैं दूकान जाने को तो नहीं मना करती। केवल जरा सबेरे आने को कहती हूँ। ‘तो क्या दूकान पर बैठा मौज किया करता हूँ। ?’
लीला इसका क्या जवाब देती ? पति का यह स्नेहहीन व्यवहार उसके लिए कोई नयी बात न थी। इधर कई साल से उसे इसका कठोर अनुभव हो रहा था कि उसकी इस घर में कद्र नहीं है। वह अक्सर इस समस्या पर विचार भी किया करती, पर वह अपना कोई अपराध न पाती। वह पति की सेवा अब पहले से कहीं ज्यादा करती, उनके कार्य-भार को हलका करने की बराबर चेष्टा करती रहती, बराबर प्रसन्नचित्त रहती; कभी उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती। अगर उसकी जवानी ढल चुकी थी, तो इसमें उसका क्या अपराध था ? किसकी जवानी सदैव स्थिर रहती है ? अगर अब उसका स्वास्थ्य उतना अच्छा न था, तो इसमें उसका क्या दोष ?उसे बेकसूर क्यों दण्ड दिया जाता है ? उचित तो यह था कि 25 साल का साहचर्य अब एक गहरी मानसिक और आत्मिक अनुरूपता का रूप धारण कर लेता, जो दोष को भी गुण बना लेता है, जो पके फल की तरह ज्यादा रसीला, ज्यादा मीठा, ज्यादा सुन्दर हो जाता है। लेकिन लालाजी का वणिक-ह्रदय हर एक पदार्थ को वाणिज्य की तराजू से तौलता था। बूढ़ी गाय जब न दूध दे सकती है न बच्चे, तब उसके लिए गोशाला ही सबसे अच्छी जगह है। उनके विचार में लीला के लिए इतना ही काफी था कि घर की मालकिन बनी रहे; आराम से खाय और पड़ी रहे। उसे अख्तियार है चाहे जितने जेवर बनवाये, चाहे जितना स्नान व पूजा करे, केवल उनसे दूर रहे।
मानव-प्रकृति की जटिलता का एक रहस्य यह था कि डंगामल जिस आनन्द से लीला को वंचित रखना चाहते थे, जिसकी उसके लिए कोई जरूरत ही न समझते थे, खुद उसी के लिए सदैव प्रयत्न करते रहते थे। लीला 40 वर्ष की होकर बूढ़ी समझ ली गयी थी, किन्तु वे तैंतालीस के होकर अभी जवान ही थे, जवानी के उन्माद और उल्लास से भरे हुए। लीला से अब उन्हें एक तरह की अरुचि होती थी और वह दुखिया जब अपनी त्रुटियों का अनुभव करके प्रकृति के निर्दय आघातों से बचने के लिए रंग व रोगन की आड़ लेती, तब लालाजी उसके बूढ़े नखरों से और भी घृणा करने लगते। वे कहते वाह री तृष्णा ! सात लड़कों की तो माँ हो गयी, बाल खिचड़ी हो गये, चेहरा धुले हुए फलालैन की तरह सिकुड़ गया, मगर आपको अभी महावर, सेंदुर, मेहंदी और उबटन की हवस बाकी ही है। औरतों का स्वभाव भी कितना विचित्र है ! न-जाने क्यों बनाव-सिंगार पर इतना जान देती हैं ? पूछो, अब तुम्हें और क्या चाहिए। क्यों नहीं मन को समझा लेतीं कि जवानी विदा हो गयी और इन उपादानों से वह वापस नहीं बुलायी जा सकती ! लेकिन वे खुद जवानी का स्वप्न देखते रहते थे। उनकी जवानी की तृष्णा अभी शान्त न हुई थी। जाड़ों में रसों और पाकों का सेवन करते रहते थे। हफ्ते में दो बार खिजाब लगाते और एक डाक्टर से मंकीग्लैंड के विषय में पत्र-व्यवहार कर रहे थे।
लीला ने उन्हें असमंजस में देखकर कातर-स्वर में पूछा, ‘क़ुछ बतला सकते हो, कै बजे आओगे ?’
लालाजी ने शान्त भाव से पूछा, ‘तुम्हारा जी आज कैसा है ?’
लीला क्या जवाब दे ? अगर कहती है कि बहुत खराब है, तो शायद वे महाशय वहीं बैठ जायँ और उसे जली-कटी सुनाकर अपने दिल का बुखार निकालें। अगर कहती है कि अच्छी हूँ, तो शायद निश्चिन्त होकर दो बजे तक कहीं खबर लें। इस दुविधा में डरते-डरते बोली, ‘अब तक तो हलकी थी, लेकिन अब कुछ भारी हो रही है। तुम जाओ, दूकान पर लोग तुम्हारी राह देखते होंगे। हाँ, ईश्वर के लिए एक-दो न बजा देना। लड़के सो जाते हैं, मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता, जी घबराता है !’
सेठजी ने अपने स्वर में स्नेह की चाशनी देकर कहा, ‘बारह बजे तक आ जरूर जाऊँगा !’
लीला का मुख धूमिल हो गया। उसने कहा, दस बजे तक नहीं आ सकते ?’
‘साढ़े ग्यारह से पहले किसी तरह नहीं।’
‘नहीं, साढ़े दस।’
‘अच्छा, ग्यारह बजे।’
लाला वादा करके चले गये, लेकिन दस बजे रात को एक मित्र ने मुजरा सुनने के लिए बुला भेजा। इस निमन्त्रण को कैसे इनकार कर देते। जब एक आदमी आपको खातिर से बुलाता है, तब यह कहाँ की भलमनसाहत है कि आप उसका निमन्त्रण अस्वीकार कर दें ? लालाजी मुजरा सुनने चले गये, दो बजे लौटे। चुपके से आकर नौकर को जगाया और अपने कमरे में आकर लेट रहे। लीला उनकी राह देखती, प्रतिक्षण विकल-वेदना का अनुभव करती हुई न-जाने कब सो गयी थी। अन्त को इस बीमारी ने अभागिनी लीला की जान ही लेकर छोड़ा। लालाजी को उसके मरने का बड़ा दु:ख हुआ। मित्रों ने समवेदना के तार भेजे। एक दैनिक पत्र ने शोक प्रकट करते हुए लीला के मानसिक और धार्मिक सद्गुणों को खूब बढ़ाकर वर्णन किया। लालाजी ने इन सभी मित्रों को हार्दिक धन्यवाद दिया और लीला के नाम से बालिका-विद्यालय में पाँच वजीफे प्रदान किये तथा मृतक-भोज तो जितने समारोह से किया गया, वह नगर के इतिहास में बहुत दिनों तक याद रहेगा।
लेकिन एक महीना भी न गुजरने पाया था कि लालाजी के मित्रों ने चारा डालना शुरू कर दिया और उसका यह असर हुआ कि छ: महीने की विधुरता के तप के बाद उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। आखिर बेचारे क्या करते ? जीवन में एक सहचरी की आवश्यकता तो थी ही और इस उम्र में तो एक तरह से वह अनिवार्य हो गयी थी।
जब से नयी पत्नी आयी, लालाजी के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया। दूकान से अब उतना प्रेम नहीं था। लगातार हफ्तों न जाने में भी उनके कारबार में कोई हर्ज नहीं होता था। जीवन के उपभोग की जो शक्ति दिन-दिन क्षीण होती जाती थी, अब वह छींटे पाकर सजीव हो गयी थी,सूखा पेड़ हरा हो गया था, उसमें नयी-नयी कोपलें फूटने लगी थीं। मोटर नयी आ गयी थी, कमरे नये फर्नीचर से सजा दिये गये थे, नौकरों की भी संख्या बढ़ गयी थी, रेडियो आ पहुँचा था और प्रतिदिन नये-नये उपहार आते रहते थे। लालाजी की बूढ़ी जवानी जवानों की जवानी से भी प्रखर हो गयी थी, उसी तरह जैसे बिजली का प्रकाश चन्द्रमा के प्रकाश से ज्यादा स्वच्छ और मनोरंजक होता है। लालाजी को उनके मित्र इस रूपान्तर पर बधाइयाँ देते, जब वे गर्व के साथ कहते भाई, हम तो हमेशा जवान रहे और हमेशा जवान रहेंगे। बुढ़ापा यहाँ आये तो उसके मुँह में कालिख लगाकर गधो पर उलटा सवार कराके शहर से निकाल दें। जवानी और बुढ़ापे को न जाने क्यों लोग अवस्था से सम्बद्ध कर देते हैं। जवानी का उम्र से उतना ही सम्बन्ध है; जितना धर्म का आचार से, रुपये का ईमानदारी से, रूप का श्रृंगार से। आजकल के जवानों को आप जवान कहते हैं ? उनकी एक हजार जवानियों को अपने एक घंटे से भी न बदलूँगा। मालूम होता है उनकी जिन्दगी में कोई उत्साह ही नहीं, कोई शौक नहीं। जीवन क्या है, गले में पड़ा हुआ एक ढोल है। यही शब्द घटा-बढ़ाकर वे आशा के ह्रदय-पटल पर अंकित करते रहे थे। उससे बराबर सिनेमा, थियेटर और दरिया की सैर के लिए आग्रह करते रहते। लेकिन आशा को न-जाने क्यों इन बातों में जरा भी रुचि न थी। वह जाती तो थी, मगर बहुत टाल-टूट करने के बाद। एक दिन लालाजी ने आकर कहा, चलो, ‘आज बजरे पर दरिया की सैर करें।’
वर्षा के दिन थे, दरिया चढ़ा हुआ था, मेघ-मालाएँ अन्तरराष्ट्रीय सेनाओं की भाँति रंग-बिरंगी वर्दियाँ पहने आकाश में कवायद कर रही थीं। सड़क पर लोग मलार और बारहमासा गाते चलते थे। बागों में झूले पड़ गये थे। आशा ने बेदिली से कहा, ‘मेरा जी तो नहीं चाहता।’ लालाजी ने मृदु प्रेरणा के साथ कहा, ‘तुम्हारा मन कैसा है जो आमोद-प्रमोद की ओर आकर्षित नहीं होता ? चलो, जरा दरिया की सैर देखो। सच कहता हूँ, बजरे पर बड़ी बहार रहेगी।’ ‘आप जायँ। मुझे और कई काम करने हैं।’
‘काम करने को आदमी हैं। तुम क्यों काम करोगी ?’
‘महाराज अच्छे सालन नहीं पकाता। आप खाने बैठेंगे तो यों ही उठ जायँगे।’
आशा अपने अवकाश का बड़ा भाग लालाजी के लिए तरह-तरह का भोजन पकाने में ही लगाती थी। उसने किसी से सुन रखा था कि एक विशेष अवस्था के बाद पुरुष के जीवन का सबसे बड़ा सुख, रसना का स्वाद ही रह जाता है। लालाजी की आत्मा खिल उठी। उन्होंने सोचा कि आशा को उनसे कितना प्रेम है कि वह दरिया की सैर को उनकी सेवा के लिए छोड़ रही है। एक लीला थी कि ‘मान-न-मान’ चलने को तैयार रहती थी। पीछा छुड़ाना पड़ता था, ख्वामख्वाह सिर पर सवार हो जाती थी और सारा मजा किरकिरा कर देती थी।
स्नेह-भरे उलाहने से बोले, ‘तुम्हारा मन भी विचित्र है। अगर एक दिन सालन फीका ही रहा, ऐसा क्या तूफान आ जायगा ? तुम तो मुझे बिलकुल निकम्मा बनाये देती हो। अगर तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊँगा।
आशा ने जैसे गले से फन्दा छुड़ाते हुए कहा, ‘आप भी तो मुझे इधर-उधर घुमा-घुमाकर मेरा मिजाज बिगाड़ देते हैं। यह आदत पड़ जायगी, तो घर का धन्धा कौन करेगा ?
‘मुझे घर के धन्धों की रत्ती-भर भी परवा नहीं बाल की नोक बराबर भी नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मिजाज बिगड़े और तुम गृहस्थी की चक्की से दूर रहो और तुम मुझे बार-बार आप क्यों कहती हो ? मैं चाहता हूँ, तुम
मुझे तुम कहो, तू कहो, गालियाँ दो, धौल जमाओ। तुम तो मुझे आप कहके जैसे देवता के सिंहासन पर बैठा देती हो ! मैं अपने घर में देवता नहीं,चंचल बालक बनना चाहता हूँ।’
आशा ने मुस्कराने की चेष्टा करके कहा, ‘भला, मैं आपको ‘तुम’ कहूँगी। तुम बराबर वाले को कहा, जाता है कि बड़ों को ?’
मुनीम ने एक लाख के घाटे की खबर सुनायी होती, तो भी शायद लालाजी को इतना दु:ख न होता, जितना आशा के इन कठोर शब्दों से हुआ। उनका सारा उत्साह, सारा उल्लास जैसे ठंडा पड़ गया। सिर पर बाँकी रखी हुई फूलदार टोपी, गले में पड़ी हुई जोगिये रंग की चुनी हुई रेशमी चादर, वह तंजेब का बेलदारर् कुत्ता, जिसमें सोने के बटन लगे हुए थे यह सारा ठाठ कैसे उन्हें हास्यजनक जान पड़ने लगा, जैसे वह सारा नशा किसी मन्त्र से उतर गया हो। निराश होकर बोले, ‘तो तुम्हें चलना है या नहीं।’
‘मेरा जी नहीं चाहता।’
‘तो मैं भी न जाऊँ ?’
‘मैं आपको कब मना करती हूँ ?’
‘फिर ‘आप’ कहा, ?’
आशा ने जैसे भीतर से जोर लगाकर कहा, ‘तुम’ और उसका मुखमण्डल लज्जा से आरक्त हो गया।
‘हाँ, इसी तरह ‘तुम’ कहा, करो। तो तुम नहीं चल रही हो ? अगर मैं कहूँ, तुम्हें चलना पड़ेगा ?’
‘तब चलूँगी। आपकी आज्ञा मानना मेरा धर्म है।’
लालाजी आज्ञा न दे सके। आज्ञा और धर्म जैसे शब्द उनके कानों में चुभने-से लगे। खिसियाये हुए बाहर को चल पड़े; उस वक्त आशा को उन पर दया आ गयी। बोली, ‘तो कब तक लौटोगे ?’
‘मैं नहीं जा रहा हूँ।’
‘अच्छा, तो मैं भी चलती हूँ।’
जैसे कोई जिद्दी लड़का रोने के बाद अपनी इच्छित वस्तु पाकर उसे पैरों से ठुकरा देता है, उसी तरह लालाजी ने मुँह बनाकर कहा, ‘तुम्हारा जी नहीं करता, तो न चलो। मैं आग्रह नहीं करता।’
‘आप नहीं, तुम बुरा मान जाओगे।’
आशा गयी, लेकिन उमंग से नहीं। जिस मामूली वेश में थी, उसी तरह चल खड़ी हुई। न कोई सजीली साड़ी, न जड़ाऊ गहने, न कोई सिंगार, जैसे कोई विधवा हो। ऐसी ही बातों पर लालाजी मन में झुँझला उठते थे। ब्याह किया था, जीवन का आनन्द उठाने के लिए, झिलमिलाते हुए दीपक में तेल डालकर उसे और चटक करने के लिए। अगर दीपक का प्रकाश तेज न हुआ, तो तेल डालने से लाभ ? न-जाने इसका मन क्यों इतना शुष्क और नीरस है, जैसे कोई ऊसर का पेड़ हो, कितना ही पानी डालो, उसमें हरी पत्तियों के दर्शन न होंगे। जड़ाऊ गहनों से भरी पेटारियाँ खुली हुई हैं,कहाँ-कहाँ से मँगवाये दिल्ली से, कलकत्ते से। कैसी-कैसी बहुमूल्य साड़ियाँ रखी हुई हैं। एक नहीं, सैकड़ों। पर केवल सन्दूक में कीड़ों का भोजन बनने के लिए। दरिद्र घर की लड़कियों में यही ऐब होता है। उनकी दृष्टि सदैव संकीर्ण रही है। न खा सकें, न पहन सकें, न दे सकें। उन्हें तो खजाना भी मिल जाय, तो यही सोचती रहेंगी कि खर्च कैसे करें। दरिया की सैर तो हुई, पर विशेष आनन्द न आया।
कई महीने तक आशा की मनोवृत्तियों को जगाने का असफल प्रयत्न करके लालाजी ने समझ लिया कि इसकी पैदाइश ही मुहर्रमी है। लेकिन फिर भी निराश न हुए। ऐसे व्यापार में एक बड़ी रकम लगाने के बाद वे उसमें अधिक-से-अधिक लाभ उठाने की वणिक-प्रवृत्ति को कैसे त्याग देते ? विनोद की नयी-नयी योजनाएँ पैदा की जातीं ग़्रामोफोन अगर बिगड़ गया है,गाता नहीं, या साफ आवाज नहीं निकलती, तो उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। उसे उठाकर रख देना, तो मूर्खता है। इधर बूढ़ा महाराज एकाएक बीमार होकर घर चला गया था और उसकी जगह उसका सत्रह-अठारह साल का जवान लड़का आ गया था क़ुछ अजीब गँवार था, बिलकुल झंगड़,उजड्ड। कोई बात ही न समझता था। जितने फुलके बनाता, उतनी तरह के। हाँ, एक बात समान होती। सब बीच में मोटे होते, किनारे पतले। दाल कभी तो इतनी पतली जैसे चाय, कभी इतनी गाढ़ी जैसे दही। नमक कभी इतना कम कि बिलकुल फीकी, कभी इतना तेज कि नींबू का शौकीन। आशा मुँह-हाथ धोकर चौके में पहुँच जाती और इस डपोरशंख को भोजन पकाना सिखाती। एक दिन उसने कहा, ‘तुम कितने नालायक आदमी हो जुगल। आखिर इतनी उम्र तक तुम घास खोदते रहे या भाड़ झोंकते रहे कि फुलके तक नहीं बना सकते ?’ जुगल आँखों में आँसू भर-कर कहता बहूजी, ‘अभी मेरी उम्र ही क्या है ? सत्रहवाँ ही तो पूरा हुआ है !’
आशा को उसकी बात पर हँसी आ गयी। उसने कहा, ‘तो रोटियाँ पकाना क्या दस-पाँच साल में आता है ?
‘आप एक महीना सिखा दें बहूजी, फिर देखिए, मैं आपको कैसे फुलके खिलाता हूँ कि जी खुश हो जाय। जिस दिन मुझे फुलके बनाने आ जायँगे, मैं आपसे कोई इनाम लूँगा। सालन तो अब मैं कुछ-कुछ बनाने लगा हूँ, क्यों ?’
आशा ने हौसला बढ़ाने वाली मुस्कराहट के साथ कहा, ‘सालन नहीं, वो बनाना आता है। अभी कल ही नमक इतना तेज था कि खाया न गया। मसाले में कचाँधा आ रही थी।’
‘मैं जब सालन बना रहा था, तब आप यहाँ कब थीं ?’
‘अच्छा, तो मैं जब यहाँ बैठी रहूँ तब तुम्हारा सालन बढ़िया पकेगा ?’
‘आप बैठी रहती हैं, तब मेरी अक्ल ठिकाने रहती है।’
आशा को जुगल की इन भोली बातों पर खूब हँसी आ रही थी। हँसी को रोकना चाहती थी, पर वह इस तरह निकली पड़ती थी जैसे भरी बोतल उँड़ेल दी गयी हो।
‘और मैं नहीं रहती तब ?’
‘तब तो आपके कमरे के द्वार पर जा बैठता हूँ। वहाँ बैठकर अपनी तकदीर को रोता हूँ।’
आशा ने हँसी को रोककर पूछा, क्यों, रोते क्यों हो ? ‘यह न पूछिए बहूजी, आप इन बातों को नहीं समझेंगी।’
आशा ने उसके मुँह की ओर प्रश्न की आँखों से देखा। उसका आशय कुछ तो समझ गयी, पर न समझने का बहाना किया।
‘तुम्हारे दादा आ जायँगे; तब तुम चले जाओगे ?’
‘और क्या करूँगा बहूजी। यहाँ कोई काम दिलवा दीजिएगा, तो पड़ा रहूँगा। मुझे मोटर चलाना सिखवा दीजिए। आपको खूब सैर कराया करूँगा।’
नहीं, नहीं बहूजी, आप हट जाइए, मैं पतीली उतार लूँगा। ऐसी अच्छी साड़ी है आपकी, कहीं कोई दाग पड़ जाय, तो क्या हो ?’ आशा पतीली उतार रही थी। जुगल ने उसके हाथ से सँड़सी ले लेनी चाही।
‘दूर रहो। फूहड़ तो तुम हो ही। कहीं पतीली पाँव पर गिरा ली, तो महीनों झींकोगे।’
जुगल के मुख पर उदासी छा गयी।
आशा ने मुस्कराकर पूछा, ‘क्यों, मुँह क्यों लटक गया सरकार का ?’
जुगल रुआँसा होकर बोला, ‘आप मुझे डाँट देती हैं, बहूजी, तब मेरा दिल टूट जाता है। सरकार कितना ही घुड़कें, मुझे बिलकुल ही दु:ख नहीं होता। आपकी नजर कड़ी देखकर मेरा खून सर्द हो जाता है।’
आशा ने दिलासा दिया, ‘मैंने तुम्हें डाँटा तो नहीं, केवल यही तो कहा, कि कहीं पतीली तुम्हारे पाँव पर गिर पड़े तो क्या हो ?’
‘हाथ ही तो आपका भी है। कहीं आपके ही हाथ से छूट पड़े तो ?’
लाला डंगामल ने रसोई-घर के द्वार पर आकर कहा, ‘आशा, जरा यहाँ आना। देखो, तुम्हारे लिए कितने सुन्दर गमले लाया हूँ। तुम्हारे कमरे के सामने रखे जायँगे। तुम यहाँ धुएँ-धाक्कड़ में क्यों हलाकान होती हो ? इस लड़के से कह दो कि जल्दी महाराज को बुलाये। नहीं तो मैं कोई दूसरा आदमी रख लूँगा। महाराजों की कमी नहीं है। आखिर कब तक कोई रिआयत करे, गधो को जरा भी तमीज नहीं आयी। सुनता है जुगल, लिख दे आज अपने बाप को। चूल्हे पर तवा रखा हुआ था। आशा रोटियाँ बेलने में लगी थी। जुगल तवे के लिए रोटियों का इन्तजार कर रहा था। ऐसी हालत में भला आशा कैसे गमले देखने जाती ? उसने कहा, ‘ज़ुगल रोटियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बेल डालेगा।’
लालाजी ने कुछ चिढ़कर कहा, ‘अगर रोटियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बेलेगा, तो निकाल दिया जायगा !’
आशा अनसुनी करके बोली, ‘दस-पाँच दिन में सीख जायगा, निकालने की क्या जरूरत है ?’
‘तुम आकर बतला दो, गमले कहाँ रखे जायँ।’
‘कहती तो हूँ, रोटियाँ बेलकर आयी जाती हूँ।’
‘नहीं, मैं कहता हूँ तुम रोटियाँ मत बेलो।’
‘आप तो ख्वामख्वाह जिद करते हैं।’
लालाजी सन्नाटे में आ गये। आशा ने कभी इतनी रुखाई से उन्हें जवाब न दिया था। और यह केवल रुखाई न थी, इसमें कटुता भी थी। लज्जित होकर चले गये। उन्हें ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन गमलों को तोड़कर फेंक दें और सारे पौधों को चूल्हे में डाल दें। जुगल ने सहमे हुए स्वर में कहा, ‘आप चली जायँ बहूजी, सरकार बिगड़ जायँगे।’
‘बको मत, जल्दी-जल्दी फुलके सेंको, नहीं तो निकाल दिये जाओगे। और आज मुझसे रुपये लेकर अपने लिए कपड़े बनवा लो। भिखमंगों की-सी सूरत बनाये घूमते हो। और बाल क्यों इतने बढ़ा रखे हैं ? तुम्हें नाई भी नहीं जुड़ता ?’
जुगल ने दूर की बात सोची। बोला, ‘क़पड़े बनवा लूँ, तो दादा को हिसाब क्या दूंगा ?’
‘अरे पागल ! मैं हिसाब में नहीं देने कहती। मुझसे ले जाना।’
जुगल काहिलपन की हँसी हँसा।
‘आप बनवायेंगी, तो अच्छे कपड़े लूँगा। खद्दर के मलमल का कुर्त्ता, खद्दर की धोती, रेशमी चादर, अच्छा-सा चप्पल।’
आशा ने मीठी मुस्कान से कहा, ‘और अगर अपने दाम से बनवाने पड़े। ‘
‘तब कपड़े ही क्यों बनवाऊँगा ?’
‘बड़े चालाक हो तुम।’
जुगल ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया आदमी अपने घर में सूखी रोटियाँ खाकर सो रहता है, लेकिन दावत में तो अच्छे-अच्छे पकवान ही खाता है। वहाँ भी यदि रूखी रोटियाँ मिलें, तो वह दावत में जाय ही नहीं।
‘यह सब मैं नहीं जानती। एक गाढ़े का कुर्त्ता बनवा लो और एक टोपी ले लो, हजामत के लिए दो आने पैसे ऊपर से ले लो।’
जुगल ने मान करके कहा, ‘रहने दीजिए। मैं नहीं लेता। अच्छे कपड़े पहनकर निकलूँगा, तब तो आपकी याद आवेगी। सड़ियल कपड़े पहनकर तो और जी जलेगा।’
‘तुम स्वार्थी हो, मुफ्त के कपड़े लोगे और साथ ही बढ़िया भी।’
‘जब यहाँ से जाने लगूँ, तब आप मुझे अपना एक चित्र दीजिएगा।’
‘मेरा चित्र लेकर क्या करोगे ?’
‘अपनी कोठरी में लगाऊँगा और नित्य देखा करूँगा। बस, वही साड़ी पहनकर खिंचवाना, जो कल पहनी थी और वही मोतियों की माला भी हो। मुझे नंगी-नंगी सूरत अच्छी नहीं लगती। आपके पास तो बहुत गहने होंगे। आप पहनती क्यों नहीं !’
‘तो तुम्हें गहने अच्छे लगते हैं ?’
‘बहुत।’
लालाजी ने फिर आकर जलते हुए मन से कहा, ‘अभी तक तुम्हारी रोटियाँ नहीं पकीं जुगल ? अगर कल से तूने अपने-आप अच्छी रोटियाँ न पकायीं तो मैं तुझे निकाल दूंगा।’
आशा ने तुरन्त हाथ-मुँह धोया और बड़े प्रसन्न मन से लालाजी के साथ गमले देखने चली। इस समय उसकी छवि में प्रफुल्लता की रौनक थी, बातों में भी जैसे शक्कर घुली हुई थी। लालाजी का सारा खिसियानापन मिट गया था। उसने गमलों को मुग्धा आँखों से देखा। उसने कहा, मैं इनमें से कोई गमला न जाने दूंगी। सब मेरे कमरे के सामने रखवाना, सब ! कितने सुन्दर पौधे हैं, वाह ! इनके हिन्दी नाम भी मुझे बतला देना।’ लालाजी ने छेड़ा, ‘सब गमले क्या करोगी ? दस-पाँच पसन्द कर लो। शेष मैं बाहर रखवा दूंगा।’
‘जी नहीं। मैं एक भी न छोङूँगी। सब यहीं रखे जायँगे।’
‘बड़ी लालचिन हो तुम।’
‘लालचिन ही सही। मैं आपको एक भी न दूंगी।’
‘दो-चार तो दे दो ? इतनी मेहनत से लाया हूँ।’
‘जी नहीं, इनमें से एक भी न मिलेगा।’
दूसरे दिन आशा ने अपने को आभूषण से खूब सजाया और फीरोजी साड़ी पहनकर निकली, तब लालाजी की आँखों में ज्योति आ गयी। समझे,अवश्य ही अब उनके प्रेम का जादू ‘कुछ-कुछ’ चल रहा है। नहीं तो उनके बार-बार के आग्रह करने पर भी, बार-बार याचना करने पर भी, उसने कोई आभूषण न पहना था। कभी-कभी मोतियों का हार गले में डाल लेती थी, वह भी ऊपरी मन से। आज वह आभूषणों से अलंकृत होकर फूली नहीं समाती, इतरायी जाती है, मानो कहती हो, देखो, मैं कितनी सुन्दर हूँ ! पहले जो बन्द कली थी, वह आज खिल गयी थी। लालाजी पर घड़ों नशा चढ़ा हुआ था। वे चाहते थे, उनके मित्र और बन्धु-वर्ग आकर इस सोने की रानी के दर्शनों से अपनी आँखें ठंडी करें। देखें कि वह कितनी सुखी, संतुष्ट और प्रसन्न है। जिन विद्रोहियों ने विवाह के समय तरह-तरह की शंकाएँ की थीं, वे आँखें खोलकर देखें कि डंगामल कितना सुखी है। विश्वास, अनुराग और अनुभव ने चमत्कार किया है ! उन्होंने प्रस्ताव किया चलो, कहीं घूम आयें। बड़ी मजेदार हवा चल रही है।
आशा इस वक्त कैसे जा सकती थी ? अभी उसे रसोई में जाना था, वहाँ से कहीं बारह-एक बजे फुर्सत मिलेगी। फिर घर के दूसरे धन्धों सिर पर’सवार’ हो जायँगे। सैर-सपाटे के पीछे क्या घर चौपट कर दें ? सेठजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘नहीं, आज मैं तुम्हें रसोई में न जाने दूंगा।’
‘महाराज के किये कुछ न होगा।’
‘तो आज उसकी शामत भी आ जायगी।’
आशा के मुख पर से वह प्रफुल्लता जाती रही। मन भी उदास हो गया। एक सोफा पर लेटकर बोली, आज न-जाने क्यों कलेजे में मीठा-मीठा दर्द हो रहा है। ऐसा दर्द कभी नहीं होता था। सेठजी घबरा उठे।
‘यह दर्द कब से हो रहा है ?’
‘हो तो रहा है रात से ही, लेकिन अभी कुछ कम हो गया था। अब फिर होने लगा है। रह-रहकर जैसे चुभन हो जाती है।’
सेठजी एक बात सोचकर दिल-ही-दिल में फूल उठे। अब वे गोलियाँ रंग ला रही हैं। राजवैद्यजी ने कहा, भी था कि जरा सोच-समझकर इनका सेवन कीजिएगा। क्यों न हो ! खानदानी वैद्य हैं। इनके बाप बनारस के महाराज के चिकित्सक थे। पुराने और परीक्षित नुस्खे हैं इनके पास ! उन्होंने कहा, तो रात से ही यह दर्द हो रहा है ? तुमने मुझसे कहा, ‘नहीं, नहीं तो वैद्यजी से कोई दवा मँगवाता।’
‘मैंने समझा था, आप-ही-आप अच्छा हो जायगा, मगर अब बढ़ रहा है।’
‘कहाँ दर्द हो रहा है ? जरा देखूँ ! कुछ सूजन तो नहीं है ?’
सेठजी ने आशा के आँचल की तरफ हाथ बढ़ाया। आशा ने शर्माकर सिर झुका लिया। उसने कहा, ‘यह तुम्हारी शरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं अपनी जान से मरती हूँ तुम्हें हँसी सूझती है। जाकर कोई दवा ला दो।’
सेठजी अपने पुंसत्व का यह डिप्लोमा पाकर उससे कहीं ज्यादा प्रसन्न हुए, जितना रायबहादुरी पाकर होते। इस विजय का डंका पीटे बिना उन्हें कैसे चैन आ सकता था ? जो लोग उनके विवाह के विषय में द्वेषमय टिप्पणियाँ कर रहे थे, उन्हें नीचा दिखाने का कितना अच्छा अवसर हाथ आया है और इतनी जल्दी।
पहले पंडित भोलानाथ के पास गये और भाग्य ठोंककर बोले, ‘भई, मैं तो बड़ी विपत्ति में फँस गया। कल से उनके कलेजे में दर्द हो रहा है। कुछ बुद्धि काम नहीं करती। कहती है, ऐसा दर्द पहले कभी नहीं हुआ था।’
भोलानाथ ने कुछ बहुत हमदर्दी न दिखायी। सेठजी यहाँ से उठकर अपने दूसरे मित्र लाला फागमल के पास पहुंचे और उनसे भी लगभग इन्हीं शब्दों में यह शोक – संवाद कहा।
फागमल बड़ा शोहदा था। मुस्कराकर बोला, मुझे तो आपकी शरारत मालूम होती है।
सेठजी की बाँछें खिल गयीं। उन्होंने कहा, ‘मैं अपना दु:ख सुना रहा हूँ और तुम्हें दिल्लगी सूझती है, जरा भी आदमीयत तुममें नहीं है।’
‘मैं दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ। इसमें दिल्लगी की क्या बात है ? वे हैं कमसिन, कोमलांगी, आप ठहरे पुराने लठैत, दंगल के पहलवान ! बस ! अगर यह बात न निकले, तो मूँछें मुड़ा लूँ।’
सेठ की आँखें जगमगा उठीं। मन में यौवन की भावना प्रबल हो उठी और उसके साथ ही मुख पर भी यौवन की झलक आ गयी। छाती जैसे कुछ फैल गयी। चलते समय उनके पग कुछ अधिक मजबूती से जमीन पर पड़ने लगे और सिर की टोपी भी न जाने कैसे बाँकी हो गयी। आकृति से बाँकपन की शान बरसने लगी।
जुगल ने आशा को सिर से पाँव तक जगमगाते देखकर कहा, ‘बस बहूजी,आप इसी तरह पहने-ओढ़े रहा करें। आज मैं आपको चूल्हे के पास न आने दूंगा।’
आशा ने नयन-बाण चलाकर कहा, ‘क्यों, आज यह नया हुक्म क्यों ? पहले तो तुमने कभी मना नहीं किया।’
‘आज की बात दूसरी है।’
‘जरा सुनूँ, क्या बात है ?’
‘मैं डरता हूँ, आप कहीं नाराज न हो जायँ ?’
‘नहीं-नहीं, कहो, मैं नाराज न होऊँगी।’
‘आज आप बहुत सुन्दर लग रही हैं।’
लाला डंगामल ने असंख्य बार आशा के रूप और यौवन की प्रशंसा की थी; मगर उनकी प्रशंसा में उसे बनावट की गन्ध आती थी। वह शब्द उनके मुख से निकलकर कुछ ऐसे लगते थे, जैसे कोई पंगु दौड़ने की चेष्टा
कर रहा हो। जुगल के इन सीधे शब्दों में एक उन्माद था, नशा था, एक चोट थी ? आशा की सारी देह प्रकम्पित हो गयी।
‘तुम मुझे नजर लगा दोगे जुगल, इस तरह क्यों घूरते हो ?’
‘जब यहाँ से चला जाऊँगा, तब आपकी बहुत याद आयेगी।’
‘रसोई पकाकर तुम सारे दिन क्या किया करते हो ? दिखायी नहीं देते !’
‘सरकार रहते हैं, इसीलिए, नहीं आता। फिर अब तो मुझे जवाब मिल रहा है। देखिए, भगवान् कहाँ ले जाते हैं।’
आशा की मुख-मुद्रा कठोर हो गयी। उसने कहा, ‘क़ौन तुम्हें जवाब देता है ?’
‘सरकार ही तो कहते हैं, तुझे निकाल दूंगा।’
‘अपना काम किये जाओ, कोई नहीं निकालेगा। अब तो तुम फुलकेभी अच्छे बनाने लगे।’
‘सरकार हैं बड़े गुस्सेवर।’
‘दो-चार दिन में उनका मिजाज ठीक किये देती हूँ।’
‘आपके साथ चलते हैं तो आपके बाप-से लगते हैं।’
‘तुम बड़े मुँहफट हो। खबरदार, जबान सँभालकर बातें किया करो।’
किन्तु अप्रसन्नता का यह झीना आवरण उनके मनोरहस्य को न छिपा सका। वह प्रकाश की भाँति उसके अन्दर से निकला पड़ता था। जुगल ने फिर उसी निर्भीकता से कहा, ‘मेरा मुँह कोई बन्द कर ले, यहाँ यों सभी यही कहते हैं। मेरा ब्याह कोई 50 साल की बुढ़िया से कर दे, तो मैं घर छोड़कर भाग जाऊँ। या तो खुद जहर खा लूँ या उसे जहर देकर मार डालूँ। फाँसी ही तो होगी ?’
आशा उस कृत्रिम क्रोध को कायम न रख सकी। जुगल ने उसकी ह्रदयवीणा के तारों पर मिज़राब की ऐसी चोट मारी थी कि उसके बहुत ज़ब्त करने पर भी मन की व्यथा बाहर निकल आयी। उसने कहा, ‘भाग्य भी तो कोई वस्तु है।’
‘ऐसा भाग्य जाय भाड़ में।’
‘तुम्हारा ब्याह किसी बुढ़िया से ही करूँगी, देख लेना !’
‘तो मैं भी जहर खा लूँगा। देख लीजिएगा।’
‘क्यों बुढ़िया तुम्हें जवान स्त्री से ज्यादा प्यार करेगी, ज्यादा सेवा करेगी। तुम्हें सीधे रास्ते पर रखेगी।’
‘यह सब माँ का काम है। बीवी जिस काम के लिए है, उसी काम के लिए है।’
‘आखिर बीवी किस काम के लिए है ?’
मोटर की आवाज आयी। न-जाने कैसे आशा के सिर का अंचल खिसककर कंधो पर आ गया। उसने जल्दी से अंचल खींचकर सिर पर कर लिया और यह कहती हुई अपने कमरे की ओर लपकी कि ‘लाला भोजन करके चले जायँ, तब आना।’
3 – रानी सारंडा
अँधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चट्टानों से टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी, जैसे घुमर-घुमर करती हुई चक्कियाँ। नदी के दाएँ तट पर एक टीला है। उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है, जिसको जंगली वृक्षों ने घेर रखा है। टीले के पूर्व की ओर छोटा-सा गाँव है। यह गढ़ी और गाँव दोनों एक बुंदेला सरकार के कीर्ति-चिह्न हैं। शताब्दियाँ व्यतीत हो गई, बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ, मुसलमान आए और बुंदेला राजा उठे और गिरे, कोई गाँव कोई इलाक़ा ऐसा न था जो इन दुर्व्यवस्थाओं से पीड़ित न हो, मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-पताका न लहराई और इस गाँव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण न हुआ। यह उसका सौभाग्य था।
अनिरुद्ध सिंह वीर राजपूत था। वह ज़माना ही ऐसा था जब मनुष्य-मात्र को अपने बाहु-बल और पराक्रम ही का भरोसा था। एक ओर मुसलमान सेनाएँ पैर जमाए खड़ी रहती थीं, दूसरी ओर बलवान राजा अपने निर्बल भाइयों का गला घोंटने पर तत्पर रहते थे। अनिरुद्ध सिंह के पास सवारों और पियादों का एक छोटा-सा मगर सजीव दल था। इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया करता था। उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था। तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतला देवी से हुआ, मगर अनिरुद्ध मौज के दिन और विलास की रातें पहाड़ों में काटता था और शीतला उसकी जान की ख़ैर मनाने में। वह कितनी बार पति से अनुरोध कर चुकी थी, कितनी बार उसके पैरों पर गिरकर रोई थी कि तुम मेरी आँखों से दूर न रहो; मुझे हरिद्वार ले चलो, मुझे तुम्हारे साथ वनवास स्वीकार है, यह वियोग अब नहीं सहा जाता। उसने प्यार से कहा जिद से कहा, विनय की, मगर अनिरुद्ध बुंदेला था। शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त न कर सकी।
अँधेरी रात थी। सारी दुनिया सोती थी; मगर तारे आकाश में जागते थे। शीतला देवी पलंग पर पड़ी करवटें बदल रही थी और उसकी ननद सारंधा फ़र्श पर बैठी मधुर स्वर से गाती थी।
‘बिनु रघुवीर कटत नहिं रैन।’
शीतला ने कहा—जी न जलाओ। क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती?
सारंधा—तुम्हें लोरी सुना रही हूँ।
शीतला-मेरी आँखों से तो नींद लोप हो गई।
सारंधा—किसी को ढूँढ़ने गई होंगी।
इतने में द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। वह अनिरुद्ध था। उसके कपड़े भीगे हुए थे, और बदन पर कोई हथियार न था। शीतला चारपाई से उतर कर ज़मीन पर बैठ गई।
सारंधा ने पूछा—भैया यह कपड़े भीगे क्यों हैं?
अनिरुद्ध—नदी तैर कर आया हूँ।
सारंधा—हथियार क्या हुआ?
अनिरुद्ध—छिन गए।
सारंधा—और साथ के आदमी?
अनिरुद्ध—सबने वीर गति पाई।
शीतला ने दबी ज़बान से कहा—ईश्वर ने ही कुशल किया…मगर सारंधा के तेवरों पर बल पड़ गए और मुखमंडल गर्व से सतेज हो गया। बोली—भैया, तुमने कुल की मर्यादा खो दी, ऐसा कभी न हुआ था।
सारंधा भाई पर जान देती थी। उसके मुँह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो उठा। वह वीराग्नि, जिसे क्षण-भर के लिए अनुराग ने दबा दिया था, फिर ज्वलंत हो उठी। वह उलटे पाँव लौटा और यह कहकर बाहर चला गया कि सारंधा! तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया। यह बात मुझे कभी न भूलेगी।
अँधेरी रात थी। आकाश-मंडल में तारों का प्रकाश बहुत धुँधला था। अनिरुद्ध क़िले से बाहर निकला।
पलभर में नदी के उस पार जा पहुँचा और फिर अंधकार में लुप्त हो गया। शीतला उसके पीछे-पीछे क़िले की दीवारों तक आई, मगर जब अनिरुद्ध छलाँग मारकर बाहर कूद पड़ा तो वह विरहिणी चट्टान पर बैठ कर रोने लगी।
इतने में सारंधा भी वहीं आ पहुँची। शीतला ने नागिन की तरह बल खाकर कहा—मर्यादा इतनी प्यारी है?
सारंधा-हाँ।
शीतला—अपना पति होता, तो हृदय में छिपा लेती।
सारंधा—न, छाती में छुरा चुभा देती।
शीतला ने ऐंठकर कहा—चोली में छिपाती फिरोगी मेरी बात गिरह में बाँध लो।
सारंधा—जिस दिन ऐसा होगा, मैं भी अपना वचन पूरा कर दिखाऊँगी।
इस घटना के तीन महीने पीछे अनिरुद्ध मदरौना को जीत करके लौटा और साल भर पीछे सारंधा का विवाह ओरछा के राजा चम्पतराय से हो गया। मगर उस दिन की बातें दोनों महिलाओं के हृदय-स्थल में काँटे की तरह खटकती रहीं।
राजा चम्पतराय बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे। सारी बुंदेला जाति उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभुत्व को मानती थी। गद्दी पर बैठते ही उन्होंने मुग़ल बादशाहों को कर देना बंद कर दिया और वे अपने बाहुबल से राज्य-विस्तार करने लगे। मुसलमानों की सेनाएँ बार-बार उन पर हमले करती थीं, पर हारकर लौट जाती थीं।
यही समय था, कि जब अनिरुद्ध ने सारंधा का चम्पतराय से विवाह कर दिया। सारंधा ने मुँहमाँगी मुराद पाई। उसकी यह अभिलाषा कि मेरा पति बुंदेला-जाति का कुल-तिलक हो, पूरी हुई। यद्यपि राजा के महल में पाँच रानियाँ थीं, मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि वह देवी, जो हृदय में मेरी पूजाकरती है, सारंधा है।
परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ हुई कि चम्पतराय को मुग़ल बादशाह का आश्रित होना पड़ा। वह अपना राज्य अपने भाई पहाड़ सिंह को सौंपकर आप देहली को चला गया। यह शाहजहाँ के शासनकाल का अंतिम भाग था। शाहज़ादा दाराशिकोह राजकीय कार्यों को सँभालते थे। युवराज की आँखों में शील था और चित्त में उदारता। उन्होंने चम्पतराय की वीरता की कथाएँ सुनी थीं इसलिए उनका बहुत आदर-सम्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उसके भेंट की, जिसकी आमदनी नौ लाख थी। यह पहला अवसर था कि चम्पतराय को आए-दिन के लड़ाई-झगड़ों से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुआ। रात-दिन आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने लगी। राजा विलास में डूबे रानियाँ जड़ाऊ गहनों पर रीझीं। मगर सारंधा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती। वह इन रंगरलियों से दूर-दूर रहती ये नृत्य और गान की सभाएँ उसे सूनी प्रतीत होतीं।
एक दिन चम्पतराय ने सारंधा से कहा—सारन, तुम उदास क्यों रहती हो? मैं तुम्हें कभी हँसते नहीं देखता। क्या मुझसे नाराज़ हो?
सारंधा की आँखों में जल भर आया। बोली—नाथ! आप ऐसा विचार क्यों करते हैं? जहाँ आप प्रसन्न हैं, वहाँ मैं भी ख़ुश हूँ।
चम्पतराय—मैं जब से यहाँ आया हूँ मैंने तुम्हारे मुख-क़मल पर कभी मनोहारिणी मुस्कुराहट नहीं देखी।
तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया। कभी मेरी पाग नहीं सँवारी। कभी मेरे शरीर पर शस्त्र नहीं सजाए। कहीं प्रेम-लता मुरझाने तो नहीं लगी?
सारंधा—प्राणनाथ! आप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है। यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त उदास रहता है। मैं बहुत चाहती हूँ कि ख़ुश रहूँ मगर बोझ-सा हृदय पर धरा रहता है।
चम्पतराय स्वयं आनंद में मग्न थे। इसलिए उनके विचार में सारंधा को असंतुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था। वह भौंहें सिकोड़कर बोले—मुझे तुम्हारे उदास रहने का कोई विशेष कारण नहीं मालूम होता। ओरछे में कौन-सा सुख था, जो यहाँ नहीं है?
सारंधा का चेहरा लाल हो गया। बोली—मैं कुछ कहूँ, आप नाराज़ तो न होंगे?
चम्पतराय—नहीं शौक़ से कहो।
सारंधा—ओरछा में मैं एक राजा की रानी थी, यहाँ मैं एक जागीरदार की चेरी हूँ। ओरछा में मैं वह थी, जो अवध में कौशल्या थीं यहाँ मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूँ। जिस बादशाह के सामने आज आप आदर से सिर झुकाते हैं, वह कल आपके नाम से काँपता था। रानी से चेरी होकर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे वश में नहीं है। आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियाँ बड़े मँहगे दामों में मोल ली हैं।
चम्पतराय के नेत्रों से एक पर्दा-सा हट गया। वे अब तक सारंधा की आत्मिक उच्चता को न जानते थे। जैसे बे-माँ-बाप का बालक माँ की चर्चा सुनकर रोने लगता है, उसी तरह ओरछा की याद से चम्पतराय की आँखें सजल हो गई। उन्होंने आदर-युक्त अनुराग के साथ सारंधा को हृदय से लगा लिया।
आज से उन्हें फिर उसी उजड़ी बस्ती की चिंता हुई, जहाँ से धन और कीर्ति की अभिलाषाएँ उन्हें खींच लाई थीं।
माँ अपने खोए हुए बालक को पाकर निहाल हो जाती है। चम्पतराय के आने से बुंदेलखंड निहाल हो गया। ओरछा के भाग जागे। नौबतें बजने लगीं और फिर सारंधा के कमल-नेत्रों जातीय अभिमान का आभास दिखाई देने लगा!
यहाँ रहते-रहते महीनों बीत गए। इस बीच में शाहजहाँ बीमार पड़ा। पहले से ईर्ष्या की अग्नि दहक रही थी।
यह ख़बर सुनते ही ज्वाला प्रचंड हुई। संग्राम की तैयारियाँ होने लगीं। शाहज़ादे मुराद और मुहीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दक्खिन से चले। वर्षा के दिन थे। उर्वरा भूमि रंग-बिरंग के रूप भरकर अपने सौंदर्य को दिखाती थी।
मुराद और मुहीउद्दीन उमंगों से भरे हुए क़दम बढ़ाते चले आ रहे थे। यहाँ तक की धौलपुर के निकट चंबल के तट पर आ पहुँचे परंतु यहाँ उन्होंने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया।
शाहज़ादे अब बड़ी चिंता में पड़े। सामने अगम्य नदी लहरें मार रही थी किसी योगी के त्याग के सदृश।
विवश होकर चम्पतराय के पास संदेश भेजा कि ख़ुदा के लिए आकर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइए।
राजा ने भवन में जाकर सारंधा से पूछा—इसका क्या उत्तर दूँ?
सारंधा—आपको मदद करनी होगी।
चम्पतराय—उनकी मदद करना दारा शिकोह से वैर लेना है।
सारंधा—यह सत्य है, परंतु हाथ फैलाने की मर्यादा भी तो निभानी चाहिए।
चम्पतराय—प्रिये तुमने सोचकर जवाब नहीं दिया।
सारंधा—प्राणनाथ! मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि यह मार्ग कठिन है, और अब हमें अपने योद्धाओं का रक्त पानी के समान बहाना पड़ेगा परंतु हम अपना रक्त बहाएँगे और चंबल की लहरों को लाल कर देंगे। विश्वास रखिए कि जब तक नदी की धारा बहती रहेगी वह हमारे वीरों की कीर्तिगान करती रहेगी। जब तक बुंदेलों का एक भी नामलेवा रहेगा, ये रक्त-बिंदु उसके माथे पर केशर का तिलक बन कर चमकेगा।
वायुमंडल में मेघराज की सेनाएँ उमड़ रही थीं। ओरछे के क़िले से बुंदेलों की एक काली घटा उठी और वेग के साथ चंमल की तरफ़ चली। प्रत्येक सिपाही वीर-रस से झूम रहा था। सारंधा ने दोनों राजकुमारों को गले से लगा लिया और राजा को पान का बीड़ा देकर कहा—बुंदेलों की लाज अब तुम्हारे हाथ है।
आज उसका एक-एक अंग मुस्कुरा रहा है और हृदय हुलसित है। बुंदेलों की यह सेना देख कर शाहज़ादे फूले न समाए। राजा वहाँ की अंगुल-अंगुल भूमि से परिचित थे। उन्होंने बुंदेलों को तो एक आड़ में छिपा दिया और वे शाहज़ादों की फ़ौज को सजाकर नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर चले। दारा शिकोह को भ्रम हुआ कि शत्रु किसी अन्य घाट से नदी उतरना चाहता है। उन्होंने घाट पर से मोर्चे हटा लिए। घाट में बैठे हुए बुंदेले उसी ताक में थे। बाहर निकल पड़े और उन्होंने तुरंत ही नदी में घोड़े डाल दिए। चम्पतराय ने शाहज़ादा दारा शिकोह को भुलावा देकर अपनी फ़ौज घुमा दी और वह बुंदेलों के पीछे चलता हुआ उसे पार उतार आया। इस कठिन चाल में सात घंटो का विलंब हुआ परंतु, जाकर देखा तो सात सौ बुंदेलों की लाशें तड़प रही थीं।
राजा को देखते ही बुंदेलों की हिम्मत बंध गई। शाहज़ादों की सेना ने भी ‘अल्ला हो-अक़बर’ की ध्वनि के साथ धावा किया। बादशाही सेना में हलचल पड़ गई। उनकी पंक्तियाँ छिन्न-भिन्न हो गई हाथों-हाथ लड़ाई होने लगी यहाँ तक कि शाम हो गई। रणभूमि रुधिर से लाल हो गई और आकाश में अँधेरा हो गया। घमासान की मार हो रही थी। बादशाही सेना शाहज़ादों को दबाए आती थी। अकस्मात् पश्चिम से फिर बुंदेलों की एक लहर उठी और इस वेग से बादशाही सेना की पुश्त पर टकराई कि उसके क़दम उखड़ गए।
जीता हुआ मैदान हाथ से निकल गया। लोगों को कुतूहल था कि यह दैवी सहायता कहाँ से आई। सरल स्वभाव के लोगों की धारणा थी कि यह फ़तह के फ़रिश्ते हैं शाहज़ादों की मदद के लिए आए हैं परंतु जब राजा चम्पतराय निकट गए तो सारंधा ने घोड़े से उतरकर उनके पैरों पर सिर झुका दिया। राजा को असीम आनंद हुआ। यह सारंधा थी। समर-भूमि का दृश्य इस समय अत्यंत दुःखमय था।
थोड़ी देर पहले जहाँ सजे हुए वीरों के दल थे, वहाँ अब बे-जान लाशें तड़प रही थीं। मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए शुरू से ही अपने भाइयों की हत्या की है।
अब विजयी सेना लूट पर टूटी। पहले मर्द मर्दों से लड़ते थे, अब वे मुर्दों से लड़ रहे थे। वह वीरता और पराक्रम का चित्र था, यह नीचता और दुर्बलता की ग्लानिप्रद तसवीर थी। उस समय मनुष्य पशु बना हुआ था, अब वह पशु से भी बढ़ गया था।
इस नोच-खसोट में लोगों को बादशाही सेना के सेनापति वलीबहादुर ख़ाँ का मूर्छित शरीर दिखाई दिया। उसके निकट उसका घोड़ा खड़ा हुआ अपनी दुम से मक्खियाँ उड़ा रहा था। राजा को घोड़ों का शौक़ था। देखते ही वह उस पर मोहित हो गया। यह ईरानी जाति का घोड़ा अति सुंदर था। एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ, सिंह की-सी छाती, चीते की-सी कमर। उसका यह प्रेम और स्वामि-भक्ति देखकर लोगों को बड़ा कुतूहल हुआ।
राजा ने हुक़्म दिया—ख़बरदार! इस प्रेमी पर कोई हथियार न चलाए, इसे जीता पकड़ लो, यह मेरे अस्तबल की शोभा बढ़ाएगा। जो इसे पकड़ कर मेरे पास लाएगा, उसे धन से निहाल कर दूँगा।
योद्धागण चारों ओर से लपके; परंतु किसी को साहस न होता था कि उसके निकट जा सके। कोई पुचकारता, था कोई फँदे में फँसाने की फ़िक्र में था पर कोई उपाय सफल न होता था। वहाँ सिपाहियों का मेला-सा लगा हुआ था।
तब सारंधा अपने खेमे से निकली और निर्भय होकर घोड़े के पास चली गई। उसकी आँखों में प्रेम का प्रकाश था, छल का नहीं। घोड़े ने सिर झुका दिया। रानी ने उसकी गर्दन पर हाथ रखा और वह उसकी पीठ सहलाने लगी। घोड़े ने उसके आँचल में मुँह छिपा लिया। रानी उसकी रास पकड़कर खेमे की ओर चली। घोड़ा इस तरह चुपचाप उसके पीछे चला, मानों सदैव से उसका सेवक है।
पर बहुत अच्छा होता कि घोड़े ने सारंधा से भी निष्ठुरता की होती। यह सुंदर घोड़ा आगे चलकर इस राज-परिवार के निमित्त सोने का मृग सिद्ध हुआ।
संसार एक रणक्षेत्र है। इस मैदान में उसी सेनापति को विजय-लाभ होता है, जो अवसर को पहचानता है। ऐसा सेनापति अवसर देखकर जितने उत्साह से आगे बढ़ता है, उतने ही उत्साह से आपत्ति के समय पीछे हट जाता है। वह वीर पुरुष राष्ट्र का निर्माता होता है और इतिहास उसके नाम पर यश के फूलों की वर्षा करता है।
पर इस मैदान में कभी-कभी ऐसे सिपाही भी जाते हैं; जो अवसर पर क़दम बढ़ाना जानते हैं, लेकिन संकट में पीछे हटाना नहीं जानते। ऐसा रणधीर पुरुष विजय को नीति की भेंट कर देते हैं। वे अपनी सेना का नाम मिटा देगा, किंतु जहाँ एक बार पहुँच गया है, वहाँ से क़दम पीछे न हटाएगा। उन में कोई विरला ही संसार-क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है, तथापि प्रायः उसकी हार विजय से भी अधिक गौरवपूर्ण होती है। अगर अनुभवशील सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है तो आन पर जान देने वाला, मुँह न मोड़ने वाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है। इसे कार्यछेत्र में चाहे सफलता न हो, किंतु जब किसी भाषण या सभा में उसका नाम ज़बान पर आ जाता है, तो श्रोतागण एक स्वर से उसके कीर्ति गौरव को प्रतिध्वनित कर देते हैं। सारंधा इन्हीं ‘आन पर जान देने वालों’ में थी।
शाहज़ादा मुहीउद्दीन चंबल के किनारे से आगरे की ओर चला, तो सौभाग्य उसके सिर पर चँवर हिलाता था। जब वह आगरे पहुँचा, तो विजयदेवी ने उसके लिए सिंहासन सजा दिया।
औरंगज़ेब गुणज्ञ था। उसने बादशाही सरदारों के अपराध क्षमा कर दिए, उनके राज्य-पद लौटा दिए, और राजा चम्पतराय को उसके बहुमूल्य कृत्यों के उपलक्ष्य में ‘बारह हज़ारी मनसब’ प्रदान किया। ओरक्षा से बनारस और बनारस से यमुना तक उसकी जागीर नियत की गई। बुंदेला राजा फिर राज-सेवक बना, वह फिर सुख-विलास में डूबा और रानी सारंधा और पराधीनता के शोक से घुलने लगी।
वलीबहादुरख़ाँ बड़ा वाक्-चतुर व्यक्ति था। उसकी मृदुलता ने शीघ्र ही उसे बादशाह आलमगीर का विश्वासपात्र बना दिया। उस पर राजसभा में सम्मान की दृष्टि पड़ने लगी।
ख़ाँ साहब के मन में अपने घोड़े के हाथ से निकल जाने का बड़ा शोक था। एक दिन कुँवर छत्रसाल उसी घोड़े पर सवार होकर सैर को गया था। वह ख़ाँ साहब के महल की तरफ़ जा निकला। वली-बहादुर ऐसे ही अवसर की ताक में था। उसने तुरंत अपने सेवकों को इशारा किया। राजकुमार अकेला क्या करता। घोड़ा छिनवाकर वह पैदल घर आया और उसने सारंधा से सब समाचार बयान किया। रानी का चेहरा तमतमा गया, बोली—मुझे इसका शोक नहीं कि घोड़ा हाथ से गया। शोक इसका है कि तू उसे खोकर जीता क्यों लौटा? क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नहीं है! घोड़ा न मिलता न सही; किंतु तुझे दिखा देना चाहिए था कि एक बुंदेला बालक से उसका घोड़ा छीन लेना हँसी नहीं है।
यह कहकर उसने अपने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आज्ञा दी; स्वयं अस्त्र धारण किए और योद्धाओं के साथ वली बहादुर ख़ाँ के निवास-स्थान पर जा पहुँची। ख़ाँ साहब उसी घोड़े पर सवार होकर दरबार चले गए थे सारंधा दरबार की तरफ़ चली और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के समान बादशाही दरबार के सामने जा पहुँची। यह कैफ़ियत देखते ही दरबार में हलचल मच गई। अधिकारी-वर्ग इधर-उधर से जाकर जमा हो गए। आलमगीर भी सहन में निकल आए। लोग अपनी-अपनी तलवारें सँभालने लगे और चारों तरफ़ शोर मच गया। कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमरसिंह की तलवार की चमक देखी थी। उन्हें वही घटना फिर याद आ गई।
सारंधा ने उच्च स्वर से कहा—ख़ाँ साहब। बड़ी लज्जा की बात है आपने वही वीरता जो चंबल के तट पर दिखानी चाहिए थी, आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है। क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते?
वली बहादुरख़ाँ की आँखों से अग्नि-ज्वाला निकल रही थी। वे कड़ी आवाज़ से बोले—किसी ग़ैर को क्या मजाल है कि मेरी चीज़ अपने काम में लाए?
रानी—वह आपकी चीज़ नहीं, मेरी है। मैंने उसे रणभूमि में पाया है और उस पर मेरा अधिकार है। क्या रणनीति की इतनी मोटी बात भी आप नहीं जानते?
ख़ाँ साहब—वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता, उसके बदले में सारा अस्तबल आपकी नज़र है।
रानी—मैं अपना घोड़ा लूँगी।
ख़ाँसाहब—मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूँ; परंतु घोड़ा नहीं दे सकता।
रानी—तो फिर इसका निश्चय तलवार से होगा।
बुंदेला योद्धाओं ने तलवारें सौंत लीं और निकट था कि दरबार की भूमि रक्त से प्लावित हो जाए बादशाह आलमगीर ने बीच में आकर कहा—रानी साहबा! आप सिपाहियों को रोकें। घोड़ा आपको मिल जाएगा परंतु इसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा।
रानी—मैं उसके लिए अपना सर्वस्व त्यागने पर तैयार हूँ।
बादशाह—जागीर और मनसब भी?
रानी—जागीर और मनसब कोई चीज़ नहीं।
बादशाह—अपना राज्य भी?
रानी—हाँ, राज्य भी।
बादशाह—एक घोड़े के लिए?
रानी—नहीं, उस पदार्थ के लिए जो संसार में सबसे अधिक मूल्यवान है।
बादशाह—वह क्या है?
रानी—अपनी आन।
इस भाँति रानी ने अपने घोड़े के लिए अपनी विस्तृत जागीर उच्च राज्यपद और राज-सम्मान सब हाथ से खोया और केवल इतना ही नहीं भविष्य के लिए काँटे बोए इस घड़ी से अंत दशा तक चम्पतराय को शांति न मिली।
राजा चम्पतराय ने फिर ओरछे के क़िले में पदार्पण किया। उन्हें मनसब और जागीर के हाथ से निकल जाने का अत्यंत शोक हुआ किंतु उन्होंने अपने मुँह से शिकायत का एक शब्द भी नहीं निकाला वे सारंधा के स्वभाव को भली-भाँति जानते थे। शिकायत इस समय उसके आत्म-गौरव पर कुठार का काम करती। कुछ दिन यहाँ शांतिपूर्वक व्यतीत हुए लेकिन बादशाह सारंधा की कठोर बात भूला न था। वह क्षमा करना जानता ही न था। ज्यों ही भाइयों की ओर से निश्चिंत हुआ, उसने एक बड़ी सेना चम्पतराय का गर्व चूर्ण करने के लिए भेजी और बाईस अनुभवशील सरदार इस मुहीम पर नियुक्त किए। शुभकरण बुंदेला बादशाह का सूबेदार था। वह चम्पतराय का बचपन का मित्र और सहपाठी था। उसने चम्पतराय को परास्त करने का बीड़ा उठाया। और भी कितने ही बुंदेला सरदार राजा से विमुख होकर बादशाही सूबेदार से आ मिले। एक घोर संग्राम हुआ। भाइयों की तलवारें रक्त से लाल हुईं। यद्यपि इस समर में राजा को विजय प्राप्त हुई, लेकिन उसकी शक्ति सदा के लिए क्षीण हो गई। निकटवर्ती बुंदेला राजा, जो चम्पतराय के बाहुबल थे बादशाह के कृपाकांक्षी बन बैठे। साथियों में कुछ तो काम आए कुछ दगा कर गए। यहाँ तक कि निज संबंधियों ने भी आँखें चुरा लीं परंतु इन कठिनाइयों में भी चम्पतराय ने हिम्मत नहीं हारी धीरज को न छोड़ा। उन्होंने ओरछा छोड़ दिया, और वह तीन वर्ष तक बुंदेलखंड के सघन पर्वतों पर छिपे फिरते रहे। बादशाही सेनाएँ शिकारी जानवरों की भाँति सारे देश में मँडरा रही थीं। आए-दिन राजा का किसी-न-किसी से सामना हो जाता था। सारंधा सदैव उनके साथ रहती, और उनका साहस बढ़ाया करती। बड़ी-बड़ी आपत्तियों में भी, जब कि धैर्य लुप्त हो जाता—और आशा साथ छोड़ देती—आत्मरक्षा का धर्म उसे सँभाले रहता था। तीन साल के बाद अंत में बादशाह के सूबेदारों ने आलमगीर को सूचना दी कि इस शेर का शिकार आपके सिवाए और किसी से न होगा। उत्तर आया कि सेना को हटा लो और घेरा उठा लो। राजा ने समझा, संकट से निवृत्ति हुई; पर वह बात शीघ्र ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गई।
तीन सप्ताह से बादशाही सेना ने ओरछा घेर रखा है। जिस तरह कठोर वचन हृदय को छेद डालते हैं, उसी तरह तोपों के गोलों ने दीवारों को छेद डाला है। किले में 20 हज़ार आदमी घिरे हुए हैं, लेकिन उनमें आधे से अधिक स्त्रियाँ और उनसे कुछ ही कम बालक हैं, मर्दों की संख्या, दिनों दिन न्यून होती जाती है। आने-जाने के मार्ग चारों तरफ़ से बंद हैं हवा का भी गुज़र नहीं। रसद का सामान बहुत कम रह गया है। स्त्रियाँ पुरुषों और बालकों को जीवित रखने के लिए आप उपवास करती हैं। लोग बहुत हताश हो रहे हैं। औरतें सूर्यनारायण की ओर हाथ उठा-उठाकर शत्रु को कोसती हैं। बालकवृंद मारे क्रोध के दीवारों की आड़ से उन पर पत्थर फेंकते हैं, जो मुश्किल से दीवार के उस पार जा पाते हैं।
राजा चम्पतराय स्वयं ज्वर से पीड़ित हैं। उन्होंने कई दिन से चारपाई नहीं छोड़ी। उन्हें देखकर लोगों को कुछ ढारस होता था, लेकिन उनकों बीमारी से सारे क़िले में नैराश्य छाया हुआ है।
राजा ने सारंधा से कहा—आज शत्रु ज़रूर क़िले में घुस आएँगे।
सारंधा—ईश्वर न करे कि इन आँखों से वह दिन देखना पड़े।
राजा—मुझे बड़ी चिंता इन अनाथ स्त्रियों और बालकों की है। गेहूँ के साथ यह घुन भी पिस जाएँगे।
सारंधा—हम लोग यहाँ से निकल जाएँ तो कैसा रहेगा?
राजा—इन अनाथों को छोड़कर?
सारंधा—इस समय इन्हें छोड़ देने में ही कुशल है। हम न होंगे, तो शत्रु इन पर कुछ दया ही करेंगे।
राजा—नहीं, यह लोग मुझसे न छोड़े जाएँगे। मर्दों ने अपनी जान हमारी सेवा में अर्पण कर दी है, उनकी स्त्रियों और बच्चों को मैं कदापि नहीं छोड़ सकता।
सारंधा—लेकिन यहाँ रहकर हम उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकते।
राजा—उनके साथ प्राण तो दे सकते हैं? मैं उनकी रक्षा में अपनी जान लड़ा दूँगा। उनके लिए बादशाही सेना की ख़ुशामद करूँगा कारावास की कठिनाइयाँ सहूँगा किंतु इस संकट में उन्हें छोड़ नहीं सकता।
सारंधा ने लज्जित होकर सिर झुका दिया और सोचने लगी निस्संदेह प्रिय साथियों को आग की आँच में छोड़कर अपनी जान बचाना घोर नीचता है। मैं ऐसी स्वार्थांध क्यों हो गई हूँ?
लेकिन एकाएक विचार उत्पन्न हुआ। बोली—यदि आपको विश्वास हो जाए कि इन आदमियों के साथ कोई अन्याय न किया जाएगा, तब तो आपको चलने में कोई बाधा न होगी?
राजा—[सोचकर कौन] विश्वास दिलाएगा?
सारंधा—बादशाह के सेनापति का प्रतिज्ञा-पत्र।
राजा—हाँ, तब मैं सानंद चलूँगा।
सारंधा विचार-सागर में डूबी। बादशाह के सेनापति से क्योंकर यह-प्रतिज्ञा कराऊँ? कौन यह प्रस्ताव लेकर वहाँ जाएगा और निर्दयी ऐसी प्रतिज्ञा करने ही क्यों लगे उन्हें तो अपनी विजय की पूरी आशा है। मेरे यहाँ ऐसा नीति-कुशल वाक्पटु चतुर कौन है जो इस दुस्तर कार्य को सिद्ध करे। छत्रसाल चाहे तो कर सकता है। उसमें ये सब गुण मौजूद हैं।
इस तरह मन में निश्चय करके रानी ने छत्रसाल को बुलाया। यह उसके चारों पुत्रों में बुद्धिमान और साहसी था। रानी उससे सबसे अधिक प्यार करती थीं। जब छत्रसाल ने आकर रानी को प्रणाम किया तो उनके कमल-नेत्र सजल हो गए और हृदय से दीर्घ निःश्वास निकल आया।
छत्रसाल—माता, मेरे लिए क्या आज्ञा है?
रानी— लड़ाई का क्या ढंग है?
छत्रसाल—हमारे पचास योद्धा अब तक काम आ चुके हैं।
रानी—बुंदेलों की लाज अब ईश्वर के हाथ है।
छत्रसाल—हम आज रात को छापा मारेंगे।
रानी ने संक्षेप में अपना प्रस्ताव छत्रसाल के सामने उपस्थित किया और कहा—यह काम किसे सौंपा जाए?
छत्रसाल—मुझको।
“तुम इसे पूरा कर दिखाओगे?”
“हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।”
“अच्छा जाओ, परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूरा करे।”
छत्रसाल जब चला तो रानी ने उसे हृदय से लगा लिया और तब आकाश की ओर दोनों हाथ उठाकर कहा—दयानिधि, मैंने अपना तरुण और होनहार पुत्र बुंदेलों की आन के आगे भेंट कर दिया। अब इस आन को निभाना तुम्हारा काम है। मैंने बड़ी मूल्यवान वस्तु अर्पित की है इसे स्वीकार करो।
दूसरे दिन प्रातःकाल सारंधा स्नान करके थाल में पूजा की सामग्री लिए मंदिर को चली। उसका चेहरा पीला पड़ गया था, और आँखों तले अँधेरा छाया जाता था। वह मंदिर के द्वार पर पहुँची थी कि उसके थाल में बाहर से आकर एक तीर गिरा। तीर की नोक पर एक काग़ज़ का पुरज़ा लिपटा हुआ था। सारंधा ने थाल मंदिर के चबूतरे पर रख दिया और पुर्ज़े को खोलकर देखा, तो आनंद से चेहरा खिल; गया लेकिन यह आनंद क्षण-भर का मेहमान था। हाय! इस पुर्ज़ें के लिए मैंने अपना प्रिय पुत्र हाथ से खो दिया है। काग़ज़ के टुकड़े को इतने महँगे दामों किसने लिया होगा।
मंदिर से लौटकर सारंधा राजा चम्पतराय के पास गई और बोली—प्राणनाथ! आपने जो वचन दिया था, उसे पूरा कीजिए।
राजा ने चौंककर पूछा—तुमने अपना वादा पूरा कर लिया?
रानी ने वह प्रतिज्ञा-पत्र राजा को दे दिया। चम्पतराय ने उसे गौरव से देखा, फिर बोले—अब मैं चलूँगा और ईश्वर ने चाहा तो एक बार फिर शत्रुओं की ख़बर लूँगा, लेकिन सारन सच बताओं इस पत्र के लिए क्या देना पड़ा?
रानी ने कुंठित स्वर से कह—बहुत कुछ।
राजा—सुनूँ
रानी—एक जवान पुत्र।
राजा को बाण-सा लगा। पूछा—कौन अंगदराय?
रानी—नहीं।
राजा—रतनसंहि?
रानी—नहीं।
राजा—छत्रसाल?
रानी—हाँ।
जैसे कोई पक्षी गोली खाकर परों को फड़फड़ाता है और तब बे दम होकर गिर पड़ता है, उसी भाँति चम्पतराय पलंग से उछले और फिर अचेत होकर गिर पड़े। छत्रसाल उनका परमप्रिय पुत्र था। उनके भविष्य की सारी कामनाएँ उसी पर अवलंबित थीं।
जब चेत हुआ, तब बोले—सारन, तुमने बुरा किया। अगर छत्रसाल मारा गया, तो बुंदेला वंश का नाश हो जाएगा।
अँधेरी रात थी। रानी सारंधा घोड़े पर सवार होकर चम्पतराय को पालकी में बैठाकर क़िले के गुप्त मार्ग से निकली जाती थी। आज से बहुत समय पहले एक दिन ऐसी ही अँधेरी, दुःखमय रात्रि थी, तब सारंधा ने शीतलादेवी को कुछ कठोर वचन कहे थे। शीतलादेवी ने उस समय जो भविष्यवाणी की थी, वह आज पूरी हुई। क्या सारंधा ने उसका जो उत्तर दिया था, वह भी पूरा होकर रहेगा?
मध्याह्न था। सूर्यनारायण सिर पर आकर अग्नि की वर्षा कर रहे थे। शरीर को झुलसाने वाली प्रचंड, प्रखर वायु वन और पर्वत में आग लगाती फिरती थी। ऐसा प्रतीत होता था मानों अग्निदेव की समस्त सेना गुरजती हुई चली आ रही है। गगन मंडल इस भय से काँप रहा था। रानी सारंधा घोड़े पर सवार चम्पतराय को लिए पश्चिम की तरफ़ चली जाती थी। ओरछा दस कोस पीछे छूट चुका था और प्रतिक्षण यह अनुमान स्थिर होता जाता था कि अब हम भय के क्षेत्र से बाहर निकल आए। राजा पालकी में अचेत पड़े हुए थे और कहार पसीने में शराबोर थे। पालकी के पीछे पाँच सवार घोड़ा बढ़ाए चले आते थे। प्यास के मारे सबका बुरा हाल था। तालू सूखा जाता था। किसी वृक्ष की छाँह और कुएँ की तलाश में आँखें चारों ओर दौड़ रही थीं।
अचानक सारंधा ने पीछे की तरफ़ फिर कर देखा, तो उसे सवारों का एक दल आता हुआ दिखाई दिया। उसका माथा ठनका, कि अब कुशल नहीं है। यह लोग अवश्य हमारे शत्रु हैं। फिर विचार हुआ कि शायद मेरे राजकुमार अपने आदमियों को लिए हमारी सहायता को आ रहे हैं। नैराश्य में भी आशा साथ नहीं छोड़ती। कई मिनट तक वह इसी आशा और भय की अवस्था में रही। यहाँ तक कि वह दल निकट आ गया और सिपाहियों के वस्त्र साफ़ नज़र आने लगे। रानी ने एक ठंडी साँस ली, उसका शरीर तृणवत काँपने लगा। यह बादशाही सेना के लोग थे।
सारंधा ने कहारों से कहा—डोली रोक लो। बुंदेला सिपाहियों ने भी तलवारें खींच लीं। राजा की अवस्था बहुत शोचनीय थी, किंतु जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो जाती है, उसी प्रकार इस संकट का ज्ञान होते ही उनके जर्जर शरीर में वीरात्मा चमक उठी। वे पालकी का पर्दा उठाकर बाहर निकल आए। धनुष-बाण हाथ में ले लिया, किंतु वह धनुष जो उनके हाथ में इंद्र का वज्र बन जाता था, इस समय ज़रा भी न झुका। सिर में चक्कर आया पैर थर्राए और वे धरती पर गिर पड़े। भावी अमंगल की सूचना मिल गई। उस पंख रहित पक्षी के सदृश, जो साँप को अपनी तरफ़ आते देखकर ऊपर को उचकता और फिर गिर पड़ता है, राजा चम्पतराय फिर सँभल उठे और फिर गिर पड़े। सारंधा ने उन्हें सँभालकर बैठाया और रोकर बोलने की चेष्टा की परंतु मुँह से केवल इतना निकला—प्राणनाथ!—इसके आगे मुँह से एक शब्द भी न निकल सका। आन पर मरने वाली सारंधा इस समय साधारण स्त्रियों की भाँति शक्तिहीन हो गई, लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्री-जाति की शोभा है!
चम्पतराय बोले—सारन देखो! हमारा एक वीर ज़मीन पर गिरा। शोक! जिस आपत्ति से यावज्जीवन डरता रहा, उसने इस अंतिम समय में आ घेरा। मेरी आँखों के सामने शत्रु तुम्हारे कोमल शरीर में हाथ लगाएँगे और मैं जगह से हिल भी न सकूँगा। हाय! मृत्यु, तू कब आएगी! यह कहते-कहते उन्हें एक विचार आया। तलवार की तरफ़ हाथ बढ़ाया मगर हाथों में दम न था। तब सारंधा से बोले—प्रिय! तुमने कितने ही अवसरों पर मेरी आन निभाई है।
इतना सुनते ही सारंधा के मुरझाए हुए मुख पर लाली दौड़ गई, आँसू सूख गए। इस आशा में कि मैं पति के कुछ काम आ सकती हूँ, उसके हृदय में बल का संचार कर दिया। वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देखकर बोली—ईश्वर ने चाहा, तो मरते दम तक निभाऊँगी।
रानी ने समझा, राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं। चम्पतराय—तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली।
सारंधा—मरते दम तक न टालूँगी।
“यह मेरी अंतिम याचना है। इसे अस्वीकार न करना।”
सारंधा ने तलवार को निकालकर अपने वक्षस्थल पर रख लिया और कहा—यह आपकी आज्ञा नहीं है, मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूँ तो यह मस्तक आपके पद-कमलों पर हो।
चम्पतराय—तुमने मेरा मतलब नहीं समझा। क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जाओगी कि मैं बेड़िय़ाँ पहने हुए दिल्ली की गलियों में निंदा का पात्र बनूँ?
रानी ने जिज्ञासा की दृष्टि से राजा को देखा। वह उनका मतलब न समझी।
राजा—मैं तुमसे एक वरदान माँगता हूँ।
रानी—सहर्ष आज्ञा किजिए।
राजा—यह मेरी अंतिम प्रार्थना है। जो कुछ कहूँगा करोगी?
रानी—सिर के बल करूँगी।
राजा—देखो, तुमने वचन दिया है। इनकार न करना।
रानी—(काँपकर) आपके कहने की देर है।
राजा-अपनी तलवार मेरी छाती में चुभा दो।
रानी के हृदय पर वज्रपात-सा हो गया। बोली—जीवननाथ इसके आगे वह और कुछ न बोल सकी। आँखों में नैराश्य छा गया!
राजा—मैं बेड़ियाँ पहनने के लिए जीवित रहना नहीं चाहता।
रानी—हाय, मुझसे यह कैसे होगा।
पाँचवाँ और अंतिम सिपाही धरती पर गिरा। राजा ने झुँझलाकर कहा—इसी जीवन पर आन निभाने का गर्व था?
बादशाह के सिपाही राजा की तरफ़ लपके। राजा ने नैराश्यपूर्ण भाव से रानी की ओर देखा। रानी क्षण भर अनिश्चित-रूप से खड़ी रही; लेकिन संकट में हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान हो जाती है। निकट था कि सिपाही लोग राजा को पकड़ लें कि सारंधा ने दामिनी की भाँति लपककर तलवार राजा के हृदय में चुभा दी।
प्रेम की नाव प्रेम के सागर में डूब गई। राजा के हृदय से रुधिर की धारा निकल रही थी; पर चेहरे पर शांति छाई हुई थी।
कैसा करूण हृदय है! वह स्त्री, जो अपने पति पर प्राण देती थी, आज उसकी प्राणघातिका है! जिस हृदय से उसने यौवनसुख लूटा, जो हृदय उसकी अभिलाषाओं का केंद्र था, जो हृदय उसके अभिमान का पोषक था, उसी हृदय को सारंधा की तलवार छेद रही है। किसी स्त्री की तलवार से ऐसा काम हुआ है?
आह! आत्माभिमान का कैसा विषादमय अंत है। उदयपुर और मारवाड़ के इतिहास में भी आत्म-गौरव की ऐसी घटनाएँ नहीं मिलतीं।
बादशाही सिपाही सारंधा का यह साहस और धैर्य देखकर दंग रह गए। सरदार ने आगे बढ़कर कहा—रानी साहिबा! ख़ुदा गवाह है, हम सब आपके ग़ुलाम हैं। आपका जो हुक़्म हो, उसे ब-सरोचश्म बजा लाएँगे।
सारंधा ने कहा—अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना।
यह कहकर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली। जब वह अचेत होकर धरती पर गिरी, तो उसका सिर राजा चम्पतराय की छाती पर था।
4 – शतरंज के खिलाड़ी
वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही में मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी। राजकर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र , मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे। सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कहीं चौसर बिछी हुई है; पौ-बारह का शोर मचा हुआ है। कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते। शतरंज, ताश, गंजीफ़ा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है, पेंचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है। ये दलीलें जोरों के साथ पेश की जाती थीं (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है)। इसलिए अगर मिरज़ा सज्जादअली और मीर रौशनअली अपना अधिकांश समय बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थीं; जीविका की कोई चिंता न थी; कि घर में बैठे चखौतियाँ करते थे। आखिर और करते ही क्या? प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते, और लड़ाई के दाव-पेंच होने लगते। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम ! घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता कि खाना तैयार है। यहाँ से जवाब मिलता- चलो, आते हैं, दस्तरख्वान बिछाओ। यहाँ तक कि बावरची विवश हो कि कमरे ही में खाना रख जाता था, और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे। मिरज़ा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थीं। मगर यह बात न थी मिरज़ा के घर के और लोग उनसे इस व्यवहार से खुश हों। घरवालों का तो कहना ही क्या, मुहल्लेवाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे- बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दीन-दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का, न घाट का। बुरा रोग है। यहाँ तक कि मिरज़ा की बेगम साहबा को इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोजकर पति को लताड़ती थीं। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोती रहती थीं, तब तक बाजी बिछ जाती थी। और रात को जब सो जाती थीं, तब कही मिरज़ाजी घर में आते थे। हाँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं- क्या पान माँगे हैं? कह दो, आकर ले जायँ। खाने की फुरसत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खायँ चाहे कुत्ते को खिलायें। पर रूबरू वह भी कुछ न कह सकती थीं। उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मीर साहब से। उन्होंने उनका, नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिरज़ाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इलजाम मीर साहब ही के सर थोप देते थे।
एक दिन बेगम साहबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा- जाकर मिरज़ा साहब को बुला लो। किसी हकीम के यहाँ से दवा लायें। दौड़, जल्दी कर। लौंडी गयी तो मिरज़ाजी ने कहा- चल, अभी आते हैं। बेगम साहबा का मिजाज गरम था। इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी से कहा- जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायेंगी। मिरज़ाजी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही किस्तों में मीर साहब की मात हुई जाती थी। झुँझलाकर बोले- क्या ऐसा दम लबों पर है? जरा सब्र नहीं होता?
मीर- अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरतें नाजुक-मिजाज होती ही हैं।
मिरज़ा- जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ ! दो किस्तों में आपकी मात होती है।
मीर- जनाब, इस भरोसे न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें और मात हो जाय। पर जाइए, सुन आइए। क्यों खामख्वाह उनका दिल दुखाइएगा?
मिरज़ा- इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।
मीर- मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।
मिरज़ा- अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नहीं है, मुझे परेशान करने का बहाना है।
मीर- कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी।
मिरज़ा- अच्छा, एक चाल और चल लूँ।
मीर- हरगिज़ नहीं, जब तक आप सुन न आयेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊँगा।
मिरज़ा साहब मजबूर होकर अंदर गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदलकर, लेकिन कराहते हुए कहा- तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है ! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते ! नौज, कोई तुम-जैसा आदमी हो !
मिरज़ा- क्या कहूँ, मीर साहबा मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।
बेगम- क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं। उनके भी तो बाल-बच्चे हैं; या सबका सफाया कर डाला?
मिरज़ा- बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना पड़ता है।
बेगम- दुत्कार क्यों नहीं देते?
मिरज़ा- बराबर के आदमी हैं; उम्र में, दर्जे में मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिज़ा करना ही पड़ता है।
बेगम- तो मैं ही दुत्कारे देती हूँ। नाराज हो जायँगे, हो जायँ। कौन किसी की रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। हरिया; जा बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेंगे; आप तशरीफ ले जाइए।
मिरज़ा- हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न करना ! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हरिया, कहाँ जाती है।
बेगम- जाने क्यों नहीं देते? मेरा ही खून पिये, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको, तो जानूँ?
यह कहकर बेगम साहबा झल्लाई हुई दीवानखाने की तरफ चलीं। मिरज़ा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी की मिन्नतें करने लगे- खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसेन की कसम है। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाय। लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक गयीं, पर एकाएक पर-पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध-से गये। भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था। मीर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिये थे, और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अंदर पहुँचकर बाजी उलट दी, मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और किवाड़ अंदर से बंद करके कुंडी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बंद हुआ, तो समझ गये, बेगम साहबा बिगड़ गयीं। चुपके से घर की राह ली।
मिरज़ा ने कहा- तुमने गजब किया।
बेगम- अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ खुदा से लगाते, तो वली हो जाते ! आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ ! जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है।
मिरज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे और सारा वृत्तांत कहा। मीर साहब बोले- मैंने तो जब मुहरे बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रखा है, यह मुनासिब नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। घर का इंतजाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?
मिरज़ा- खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा?
मीर- इसका क्या गम है। इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है। बस यहीं जमें।
मिरज़ा- लेकिन बेगम साहबा को कैसे मनाऊँगा? घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहाँ बैठक होगी, तो शायद जिंदा न छोड़ेंगी।
मीर- अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायेंगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए।
2
मीर साहब की बेगम किसी अज्ञात कारण से मीर साहब का घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं। इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थीं; बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गंभीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो बेगम साहबा को बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। दिन-भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जातीं।
उधर नौकरों में भी कानाफूसी होने लगी। अब तक दिन-भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में कोई आये, कोई जाये, उनसे कुछ मतलब न था। अब आठों पहर की धौंस हो गयी। पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का। और हुक्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहबा से जा-जाकर कहते- हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गयी। दिन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये। यह भी कोई खेल कि सुबह को बैठे तो शाम कर दी। घड़ी आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल खेलना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा ही लायेंगे; मगर यह खेल मनहूस है। इसका खेलनेवाला कभी पनपता नहीं; घर पर कोई न कोई आफत जरूर आती है। यहाँ तक कि एक के पीछे महल्ले-के-महल्ले तबाह होते देखे गये हैं। सारे मुहल्ले में यही चरचा रहती है। हुजूर का नमक खाते हैं, अपने आक़ा की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है? मगर क्या करें? इस पर बेगम साहबा कहती हैं- मैं तो खुद इसको पसंद नहीं करती। पर वह किसी की सुनते ही नहीं, क्या किया जाय।
मुहल्ले में भी जो दो-चार पुराने जमाने के लोग थे, आपस में भाँति-भाँति की अमंगल कल्पनाएँ करने लगे- अब खैरियत नहीं। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफ़िज है। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं।
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फरियाद सुननेवाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची आती थी और वह वेश्याओं में, भाँडों में और विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी। अंग्रेज कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। कमली दिन-दिन भीगकर भारी होती जाती थी। देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी वसूल न होता था। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे, किसी के कानों पर जूँ न रेंगती थी।
खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते कई महीने गुजर गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते; नये-नये किले बनाये जाते; नित्य नयी व्यूह-रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती; पर शीघ्र ही दोनों मित्रों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती; मिरज़ाजी रूठकर अपने घर चले जाते। मीर साहब अपने घर में जा बैठते। पर रात भर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शांत हो जाता था। प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे।
एक दिन दोनों मित्र बैठे हुए शतरंज की दलदल में गोते खा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी ! यह तलबी किस लिए हुई है? अब खैरियत नहीं नजर आती। घर के दरवाजे बंद कर लिये। नौकरों से बोले- कह दो, घर में नहीं हैं।
सवार- घर में नहीं, तो कहाँ हैं?
नौकर- यह मैं नहीं जानता। क्या काम है?
सवार- काम तुझे क्या बताऊँगा? हुजूर में तलबी है। शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये हैं। जागीरदार हैं कि दिल्लगी ! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा !
नौकर- अच्छा, तो जाइए, कह दिया जायगा?
सवार- कहने की बात नहीं है। मैं कल खुद आऊँगा, साथ ले जाने का हुक्म हुआ है।
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिरज़ाजी से बोले- कहिए जनाब, अब क्या होगा?
मिरज़ा- बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी तलबी भी न हो।
मीर- कम्बख्त कल फिर आने को कह गया है।
मिरज़ा- आफत है, और क्या। कहीं मोरचे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे।
मीर- बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलो ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नख्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी। हजरत आकर आप लौट जायँगे।
मिरज़ा- वल्लाह, आपको खूब सूझी ! इसके सिवाय और कोई तदबीर ही नहीं है।
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी, तुमने खूब धता बताया।
उसने जवाब दिया- ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अक्ल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली। अब भूल कर भी घर पर न रहेंगे।
3
दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलौरियाँ भरे, गोमती पार की एक पुरानी वीरान मसजिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफ़उद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम और मदरिया ले लेते, और मसजिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भरकर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। किश्त, शह आदि दो-एक शब्दों के सिवा उनके मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता होगा। दोपहर को जब भूख मालूम होती तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खाते, और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम-क्षेत्र में डट जाते। कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था।
इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी। कम्पनी की फौजें लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थीं। शहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को लेकर देहातों में भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इनकी ज़रा भी फ़िक्र न थी। वे घर से आते तो गलियों में होकर। डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, जो बेकार में पकड़ जायँ। हजारों रुपये सालाना की जागीर मुफ्त ही हजम करना चाहते थे।
एक दिन दोनों मित्र मसजिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिरज़ा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब उन्हें किश्त-पर-किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखायी दिये। वह गोरों की फौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी।
मीर साहब बोले- अंग्रेजी फौज आ रही है; खुदा खैर करे।
मिरज़ा- आने दीजिए, किश्त बचाइए। यह किश्त।
मीर- जरा देखना चाहिए, यहीं आड़ में खड़े हो जायँ !
मिरज़ा- देख लीजिएगा, जल्दी क्या है, फिर किश्त !
मीर- तोपखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होंगे कैसे-कैसे जवान हैं। लाल बन्दरों के-से मुँह। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है।
मिरज़ा- जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमे किसी और को दीजिएगा। यह किश्त !
मीर- आप भी अजीब आदमी हैं। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है और आपको किश्त की सूझी है ! कुछ इसकी भी खबर है कि शहर घिर गया, तो घर कैसे चलेंगे?
मिरज़ा- जब घर चलने का वक्त आयेगा, तो देखा जायगा- यह किश्त ! बस, अबकी शह में मात है।
फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी।
मिरज़ा- आज खाने की कैसे ठहरेगी?
मीर- अजी, आज तो रोज़ा है। क्या आपको ज्यादा भूख मालूम होती है?
मिरज़ा- जी नहीं। शहर में न जाने क्या हो रहा है !
मीर- शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे।
दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे, तो तीन बज गये। अबकी मिरज़ा जी की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज ही रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली पकड़ लिये गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिये जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नहीं गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी चला जाता था, और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी।
मिरज़ा ने कहा- हुजूर नवाब साहब को जालिमों ने कैद कर लिया है।
मीर- होगा, यह लीजिए शह।
मिरज़ा- जनाब जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीयत नहीं लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे।
मीर- रोया ही चाहें। यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा। यह किश्त।
मिरज़ा- किसी के दिन बराबर नहीं जाते। कितनी दर्दनाक हालत है।
मीर- हाँ, सो तो है ही- यह लो, फिर किश्त ! बस, अबकी किश्त में मात है, बच नहीं सकते।
मिरज़ा- खुदा की कसम, आप बड़े बेदर्द हैं। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह !
मीर- पहले अपने बादशाह को तो बचाइए फिर नवाब साहब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और यह मात ! लाना हाथ !
बादशाह को लिये हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिरज़ा ने फिर बाजी बिछा दी। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा- आइए, नवाब साहब के मातम में एक मरसिया कह डालें। लेकिन मिरज़ा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी। वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो रहे थे।
4
शाम हो गयी। खंडहर में चमगादड़ों ने चीखना शुरू किया। अबाबीलें आ-आकर अपने-अपने घोसलों में चिमटीं। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे, मानो दो खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों। मिरज़ाजी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का रंग भी अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़ निश्चय करके सँभलकर खेलते थे लेकिन एक-न-एक चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी, जिससे बाजी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और भी उग्र होती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के गजलें गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हों। मिरज़ाजी सुन-सुनकर झुँझलाते और हार की झेंप को मिटाने के लिए उनकी दाद देते थे। पर ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकला जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे- जनाब, आप चाल बदला न कीजिए। यह क्या कि एक चाल चले, और फिर उसे बदल दिया। जो कुछ चलना हो एक बार चल दीजिए; यह आप मुहरे पर हाथ क्यों रखते हैं? मुहरे को छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइये ही नहीं। आप एक-एक चाल आध घंटे में चलते हैं। इसकी सनद नहीं। जिसे एक चाल चलने में पाँच मिनट से ज्यादा लगे, उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली ! चुपके से मुहरा वहीं रख दीजिए।
मीर साहब का फरजी पिटता था। बोले- मैंने चाल चली ही कब थी?
मिरज़ा- आप चाल चल चुके हैं। मुहरा वहीं रख दीजिए- उसी घर में !
मीर- उस घर में क्यों रखूँ? मैंने हाथ से मुहरा छोड़ा ही कब था?
मिरज़ा- मुहरा आप कयामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे।
मीर- धाँधली आप करते हैं। हार-जीत तकदीर से होती है, धाँधली करने से कोई नहीं जीतता?
मिरज़ा- तो इस बाजी में तो आपकी मात हो गयी।
मीर- मुझे क्यों मात होने लगी?
मिरज़ा- तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रक्खा था।
मीर- वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता।
मिरज़ा- क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा।
तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था न वह। अप्रासंगिक बातें होेने लगीं, मिरज़ा बोले- किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती, तब तो इसके कायदे जानते। वे तो हमेशा, घास छीला करते, आप शतरंज क्या खेलिएगा। रियासत और ही चीज है। जागीर मिल जाने से ही कोई रईस नहीं हो जाता।
मीर- क्या? घास आपके अब्बाजान छीलते होंगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आ रहे हैं।
मिरज़ा- अजी, जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावरची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी आज रईस बनने चले हैं। रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं है।
मीर- क्यों अपने बुजुर्गों के मुँह में कालिख लगाते हो- वे ही बावरची का काम करते होंगे। यहाँ तो हमेशा बादशाह के दस्तरख्वान पर खाना खाते चले आये हैं।
मिरज़ा- अरे चल चरकटे, बहुत बढ़-बढ़कर बातें न कर।
मीर- जबान सँभालिये, वरना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। यहाँ तो किसी ने आँखें दिखायीं कि उसकी आँखें निकालीं। है हौसला?
मिरज़ा- आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं, तो फिर, आइए। आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर।
मीर- तो यहाँ तुमसे दबनेवाला कौन?
दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल लीं। नवाबी जमाना था; सभी तलवार, पेशकब्ज, कटार वगैरह बाँधते थे। दोनों विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था- बादशाह के लिए, बादशाहत के लिए क्यों मरें; पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनों जख्म खाकर गिरे, और दोनों ने वहीं तड़प-तड़पकर जानें दे दीं। अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्हीं दोनों प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिये।
अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे !
चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खंडहर की टूटी हुई मेहराबें, गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखतीं और सिर धुनती थीं।
5 – मुफ़्त का यश
उन दिनों संयोग से हाक़िम-ज़िला एक रसिक सज्जन थे। इतिहास और पुराने सिक्कों की खोज में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली थी। ईश्वर जाने दफ़्तर के सूखे कामों से उन्हें ऐतिहासिक छान-बीन के लिए कैसे समय मिल जाता था। वहाँ तो जब किसी अफ़सर से पूछिए, तो वह यही कहता है, “मारे काम के मरा जाता हूँ, सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती।” शायद शिकार और सैर भी उनके काम में शामिल है ? उन सज्जन की कीर्तियाँ मैंने देखी थी और मन में उनका आदर करता था; लेकिन उनकी अफ़सरी किसी प्रकार की घनिष्ठता में बाधक थी। मुझे संकोच था कि अगर मेरी ओर से पहल हुई तो लोग यही कहेंगे कि इसमें मेरा कोई स्वार्थ है और मैं किसी दशा में भी यह इलज़ाम अपने सिर नहीं लेना चाहता। मैं तो हुक्काम की दावतों और सार्वजनिक उत्सवों में नेवता देने का भी विरोधी हूँ और जब कभी सुनता हूँ कि किसी अफ़सर को किसी आम जलसे का सभापति बनाया गया या कोई स्कूल, औषधालय या विधावाश्रम किसी गवर्नर के नाम से खोला गया, तो अपने देश-बन्धुओं की दास-मनोवृत्ति पर घंटों अफ़सोस करता हूँ; मगर जब एक दिन हाक़िम-जिला ने ख़ुद मेरे नाम एक रुक्का भेजा कि ‘मैं आपसे मिलना चाहता हूँ; क्या आप मेरे बँगले पर आने का कष्ट स्वीकार करेंगे’, तो मैं बड़ी दुविधा में पड़ गया। क्या जवाब दूं? अपने दो-एक मित्रों से सलाह ली। उन्होंने कहा, “साफ़ लिख दीजिए, मुझे फुरसत नहीं। वह हाक़िम-ज़िला होंगे, तो अपने घर के होंगे, कोई सरकारी वा ज़ाब्ते का काम होता, तो आपका जाना अनिवार्य था; लेकिन निजी मुलाकात के लिए जाना आपकी शान के ख़िलाफ़ है। आख़िर वह ख़ुद आपके मकान पर क्यों नहीं आये? इससे क्या उनकी शान में बट्टा लगा जाता था? इसीलिए तो ख़ुद नहीं आये कि वह हाक़िम-जिला हैं। इन अहमक हिन्दुस्तानियों को कब यह समझ आयेगी कि दफ़्तर के बाहर वे भी वैसे ही साधरण मनुष्य हैं, जैसे हम या आप। शायद ये लोग अपनी घरवालियों से भी अफ़सरी जताते होंगे। अपना पद उन्हें कभी नहीं भूलता।”
एक मित्र ने, जो लतीफों के चलते-फिरते तिजोरी हैं, हिन्दुस्तानी अफ़सरों के विषय में कई बड़ी मनोरंजक घटनाएँ सुनायी। “एक अफ़सर साहब ससुराल गये। शायद स्त्री को विदा कराना था। जैसा आम रिवाज़ है, ससुर जी ने पहले ही वादे पर लड़की को विदा करना उचित न समझा। कहने लगे बेटा, इतने दिनों के बाद आयी है अभी कैसे विदा कर दूं? भला, छ: महीने तो रहने दो।” उधर धर्मपत्नीजी ने भी नाइन से सन्देश कहला भेजा अभी मैं नहीं जाना चाहती। आख़िर माता-पिता से भी तो मेरा कोई नाता है। कुछ तुम्हारे हाथ बिक थोड़े ही गयी हूँ? दामाद साहब अफ़सर थे, जामे से बाहर हो गये। तुरन्त घोड़े पर बैठे और सदर की राह ली। दूसरे ही दिन ससुरजी पर सम्मन जारी कर दिया। बेचारा बूढ़ा आदमी तुरन्त लड़की को साथ लेकर दामाद की सेवा में जा पहुँचा। तब जाके उनकी जान बची। ये लोग ऐसे मिथ्याभिमानी होते हैं और फिर तुम्हें हाक़िम-ज़िला से लेना ही क्या है? अगर तुम कोई विद्रोहात्मक गल्प वा लेख लिखोगे, तो फ़ौरन गिरफ्तार कर लिये जाओगे। हाक़िम-ज़िला ज़रा भी मुरौवत न करेंगे। कह देंगे यह गवर्नमेंट का हुक्म है, मैं क्या करूँ? अपने लड़के के लिए कानूनगोई या नायब तहसीलदारी की लालसा तुम्हें है नहीं। व्यर्थ क्यों दौड़े जाओ।” लेकिन, मुझे मित्रों की यह सलाह पसन्द न आयी।
एक भला आदमी जब निमन्त्रण देता है, तो केवल इसलिए अस्वीकार कर देना कि हाक़िम-ज़िला ने भेजा है, मुटमर्दी है। बेशक हाक़िम साहब मेरे घर आ जाते, तो उनकी शान कम न होती। उदार हृदय वाला आदमी बेतक़ल्लुफ़ चला आता; लेकिन भाई, ज़िले की अफ़सरी बड़ी चीज़ है। और एक उपन्यासकार की हस्ती ही क्या है। इंगलैंड या अमेरिका में गल्प लेखकों और उपन्यासकारों की मेज़ पर निमंत्रित होने में प्रधनमन्त्री भी अपना गौरव समझेगा, हाक़िम भी ताजपोशी में हमारे लेखक-वृन्द बिना बुलाये राजाओं की खिदमत में हाज़िर होते हैं, कसीदे पेश करते हैं और इनाम के लिए हाथ पसारते हैं। तुम ऐसे कहाँ के बड़े वह हो कि हाक़िम-ज़िला तुम्हारे घर चला आये। जब तुममें इतनी अकड़ और तुनुकमिजाज़ी है, तो वह तो ज़िले का बादशाह है। अगर उसे कुछ अभिमान भी हो तो उचित है। इसे उसकी कमज़ोरी कहो, बेहूदगी कहो, मूर्खता कहो, उजड्डता कहो, फिर भी उचित है। देवता होना गर्व की बात है; लेकिन मनुष्य होना भी अपराध नहीं। और मैं तो कहता हूँ ईश्वर को धन्यवाद दो कि हाक़िम-ज़िला तुम्हारे घर नहीं आये; वरना तुम्हारी कितनी भद होती। उनके आदर-सत्कार का सामान तुम्हारे पास कहाँ था? गत की एक कुर्सी भी नहीं है। उन्हें क्या तीन टाँगोंवाले सिंहासन पर बैठाते या मटमैले जाजिम पर? तीन पैसे की चौबीस बीड़ियाँ पीकर दिल खुश कर लेते हो। है सामर्थ्य रुपये के दो सिगार खरीदने की?
तुम तो इतना भी नहीं जानते कि वह सिगार मिलता कहाँ है; उसका नाम क्या है। अपना भाग्य सराहो कि अफ़सर साहब तुम्हारे घर नहीं आये और तुम्हें बुला लिया। चार-पाँच रुपये बिगड़ भी जाते और लज्जित भी होना पड़ता। और कहीं तुम्हारे परम दुर्भाग्य और पापों के दण्डस्वरूप उनकी धर्मपत्नी भी उनके साथ होती, तब तो तुम्हें धरती में समा जाने के सिवा और कोई ठिकाना न था। तुम या तुम्हारी धर्मपत्नी उस महिला का सत्कार कर सकती थी? तुम्हारी तो घिग्घी बँध जाती साहब, बदहवास हो जाते! वह तुम्हारे दीवानख़ाने तक ही न रहती जिसे तुमने गरीबामऊ ढंग से सजा रखा है। वहाँ तुम्हारी ग़रीबी अवश्य है, पर फूहड़पन नहीं। अन्दर तो पग-पग पर फूहड़पन के दृश्य नज़र आते। तुम अपने में फटे-पुराने पहनकर और अपनी विपन्नता में मगन रहकर ज़िन्दगी बसर कर सकते हो; लेकिन कोई भी आत्माभिमानी आदमी यह पसन्द नहीं कर सकता कि उसकी दुरवस्था दूसरों के लिए विनोद की वस्तु बने। इन लेडी साहिबा के सामने तो तुम्हारी जबान बंद हो जाती।
चुनांचे मैंने हाक़िम-ज़िला का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और यद्यपि उनके स्वभाव में कुछ अनावश्यक अफ़सरी की शान थी; लेकिन उनके स्नेह और उदारता ने उसे यथासाध्य प्रकट न होने दिया। कम-से-कम उन्होंने मुझे शिकायत का कोई मौका न दिया। अफ़सराना प्रकृति को तब्दील करना उनकी शक्ति के बाहर था।
मुझे इस प्रसंग को कोई महत्त्व देने की कोई बात भी न थी, महत्त्व न दिया। उन्होंने मुझे बुलाया, मैं चला गया। कुछ गप-शप किया और लौट आया। किसी से इसका जिक्र करने की ज़रूरत ही क्या? मानो भाजी खरीदने बाज़ार गया था। लेकिन टोहियों ने जाने कैसे टोह लगा लिया। विशेष समुदायों में यह चर्चा होने लगी कि हाक़िम-ज़िला से मेरी बड़ी गहरी मैत्री है और वह मेरा बड़ा सम्मान करते हैं। अतिश्योक्ति ने मेरा सम्मान और भी बढ़ा दिया। यहाँ तक मशहूर हुआ कि वह मुझसे सलाह लिये बग़ैर कोई फ़ैसला या रिपोर्ट नहीं लिखते।
कोई भी समझदार आदमी इस ख्याति से लाभ उठा सकता था। स्वार्थ में आदमी बावला हो जाता है। तिनके का सहारा ढूँढ़ता फिरता है। ऐसों को विश्वास दिलाना कुछ मुश्किल न था कि मेरे द्वारा उनका काम निकल सकता है, लेकिन मैं ऐसी बातों से घृणा करता हूँ। सैकड़ों व्यक्ति अपनी कथाएँ लेकर मेरे पास आये। किसी के साथ पुलिस ने बेजा ज़्यादती की थी। कोई इन्कम टैक्स वालों की सख्तियों से दु:खी था, किसी की यह शिकायत थी कि दफ़्तर में उसकी हकतलफ़ी हो रही है और उसके पीछे के आदमियों को दनादन तरक्कियाँ मिल रही हैं। उसका नम्बर आता है, तो कोई परवाह नहीं करता। इस तरह का कोई-न-कोई प्रसंग नित्य ही मेरे पास आने लगा, लेकिन मेरे पास उन सबके लिए एक ही जवाब था मुझसे कोई मतलब नहीं। एक दिन मैं अपने कमरे में बैठा था, कि मेरे बचपन के एक सहपाठी मित्र आ टपके। हम दोनों एक ही मकतब में पढ़ने जाया करते थे। कोई 45 साल की पुरानी बात है। मेरी उम्र 19 साल से अधिक न थी। वह भी लगभग इसी उम्र के रहे होंगे; लेकिन मुझसे कहीं बलवान और ह्रष्ट-पुष्ट। मैं ज़हीन था, वह निरे कौदन। मौलवी साहब उनसे हार गये थे और उन्हें सबक पढ़ाने का भार मुझ पर डाल दिया था। अपने से दुगुने व्यक्ति को पढ़ाना मैं अपने लिए गौरव की बात समझता था और खूब मन लगाकर पढ़ाता। फल यह हुआ कि मौलवी साहब की छड़ी जहाँ असफल रही, वहाँ मेरा प्रेम सफल हो गया। बलदेव चल निकला, खालिकबारी तक जा पहुँचा, मगर इस बीच में मौलवी साहब का स्वर्गवास हो गया और वह शाखा टूट गयी।
उनके छात्र भी इधर-उधर हो गये। तब से बलदेव को केवल मैंने दो-तीन बार रास्ते में देखा, (मैं अब भी वही सींकिया पहलवान हूँ और वह अब भी वही भीमकाय) राम-राम हुई, क्षेम-कुशल पूछा, और अपनी-अपनी राह चले गये। मैंने उनसे हाथ मिलाते हुए कहा, “आओ भाई बलदेव, मज़े में तो हो? कैसे याद किया, क्या करते हो आजकल?” बलदेव ने व्यथित कंठ से कहा, “ज़िन्दगी के दिन पूरे कर रहे हैं, भाई, और क्या। तुमसे मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी। याद करो वह मकतबवाली बात, जब तुम मुझे पढ़ाया करते थे। तुम्हारी बदौलत चार अक्षर पढ़ गया और अपनी ज़मींदारी का काम सँभाल लेता हूँ, नहीं तो मूर्ख ही बना रहता। तुम मेरे गुरु हो भाई, सच कहता हूँ; मुझ-जैसे गधों को पढ़ाना तुम्हारा ही काम था। न-जाने क्या बात थी कि मौलवी साहब से सबक पढ़कर अपनी जगह पर आया नहीं कि बिलकुल साफ़। तुम जो पढ़ाते थे, वह बिना याद किये ही याद हो जाता था। तुम तब भी बड़े ज़हीन थे।” यह कहकर उन्होंने मुझे सगर्व नेत्रों से देखा।
मैं बचपन के साथियों को देखकर फूल उठता हूँ। सजल नेत्र होकर बोला, “मैं तो जब तुम्हें देखता हूँ, तो यही जी में आता है कि दौड़कर तुम्हारे गले लिपट जाऊँ। 45 वर्ष का युग मानो बिलकुल ग़ायब हो जाता है। वह मकतब आँखों के सामने फिरने लगता है और बचपन सारी मनोहरताओं के साथ ताज़ा हो जाता है।” बलदेव ने भी द्रवित कंठ से उत्तर दिया, “मैंने तो भाई, तुम्हें सदैव अपना इष्टदेव समझा है। जब तुम्हें देखता हूँ, तो छाती गज़-भर की हो जाती है कि वह मेरा बचपन का संगी जा रहा है, जो समय आ पड़ने पर कभी दग़ा न देगा। तुम्हारी बढ़ाई सुन-सुनकर मन-ही-मन प्रसन्न हो जाता हूँ, लेकिन यह बताओ, क्या तुम्हें खाना नहीं मिलता? कुछ खाते-पीते क्यों नहीं? सूखते क्यों जाते हो? घी न मिलता हो, तो दो-चार कनस्तर भिजवा दूं। अब तुम भी बूढ़े हुए, खूब डटकर खाया करो। अब तो देह में जो कुछ तेज और बल है, वह केवल भोजन के अधीन है। मैं तो अब भी सेर-भर दूध और पाव-भर घी उड़ाये जाता हूँ। इधर थोड़ा मक्खन भी खाने लगा हूँ। ज़िन्दगी-भर बाल-बच्चों के लिए मर मिटे। अब कोई यह नहीं पूछता कि तुम्हारी तबियत कैसी है। अगर आज कंधा डाल दूं, तो कोई एक लोटे पानी को न पूछे। इसलिए खूब खाता हूँ और सबसे ज़्यादा काम करता हूँ। घर पर अपना रोब बना हुआ है। वही जो तुम्हारा जेठा लड़का है, उस पर पुलिस ने एक झूठा मुकदमा चला दिया है। जवानी के मद में किसी को कुछ समझता नहीं है। है भी अच्छा-खासा पहलवान। दारोगाजी से एक बार कुछ कहा-सुनी हो गयी। तब से घात में लगे हुए थे। इधर गाँव में एक डाका पड़ गया। दारोगाजी ने तहकीकात में उसे भी फाँस लिया। आज एक सप्ताह से हिरासत में है। मुकदमा मुहम्मद खलील, डिप्टी के इजलास में है और मुहम्मद खलील और दारोगाजी से दाँत-काटी रोटी है। अवश्य सजा हो जायगी। अब तुम्हीं बचाओ, तो उसकी जान बच सकती है। और कोई आशा नहीं है। सज़ा तो जो होगी वह होगी ही; इज़्ज़त भी ख़ाक में मिल जायगी। तुम जाकर हाक़िम-ज़िला से इतना कह दो कि मुकदमा झूठा है, आप ख़ुद चलकर तहकीकात कर लें !
“बस, देखो भाई, बचपन के साथी हो, ‘नहीं’ न करना। जानता हूँ, तुम इन मुआमलों में नहीं पड़ते और तुम्हारे-जैसे आदमी को पड़ना भी न चाहिए। तुम प्रजा की लड़ाई लड़ने वाले जीव हो, तुम्हें सरकार के आदमियों से मेल-जोल बढ़ाना उचित नहीं; नहीं तो जनता की नज़रों से गिर जाओगे। लेकिन यह घर का मुआमला है। इतना समझ लो कि मुआमला बिलकुल झूठ न होता, तो मैं कभी तुम्हारे पास न आता। लड़के की माँ रो-रोकर जान दिये डालती है, बहू ने दाना-पानी छोड़ रखा है। सात दिन से घर में चूल्हा नहीं जला। मैं तो थोड़ा-सा दूध पी लेता हूँ, लेकिन दोनों सास-बहू तो निराहार पड़ी हुई हैं, अगर बच्चा को सज़ा हो गयी, तो दोनों मर जायेंगी। मैंने यही कहकर उन्हें ढाढ़स दिया है कि जब तक हमारा छोटा भाई सलामत है, कोई हमारा बाल बाँका नहीं कर सकता। तुम्हारी भाभी ने तुम्हारी एक पुस्तक पढ़ी है। वह तो तुम्हें देवतुल्य समझती है और जब कोई बात होती है, तुम्हारी नज़ीर देकर मुझे लज्जित करती है। मैं भी साफ़ कह देता हूँ मैं उस छोकरे की-सी बुद्धि कहाँ से लाऊँ? तुम्हें उसकी नज़रों से गिराने के लिए तुम्हें छोकरा, मरियल सभी कुछ कहता हूँ, पर तुम्हारे सामने मेरा रंग नहीं जमता।”
मैं बड़े संकट में पड़ गया। मेरी ओर से जितनी आपत्तियाँ हो सकती थीं, उन सबका जवाब बलदेवसिंह ने पहले ही से दे दिया था। इनको फिर दुहराना व्यर्थ था। इसके सिवा कोई जवाब न सूझा कि मैं जाकर साहब से कहूँगा। हाँ, इतना मैंने अपनी तरफ़ से और बढ़ा दिया कि मुझे आशा नहीं कि मेरे कहने का विशेष ख्याल किया जाय, क्योंकि सरकारी मुआमलों में हुक्काम हमेशा अपने मातहतों का पक्ष लिया करते हैं। बलदेवसिंह ने प्रसन्न होकर कहा, इसकी चिन्ता नहीं, तकदीर में जो लिखा है, वह तो होगा ही। बस, तुम जाकर कह भर दो।
“अच्छी बात है।”
“तो कल जाओगे?”
“हाँ अवश्य, जाऊँगा?”
“यह ज़रूर कहना कि आप चलकर तहकीकात कर लें।”
“हाँ, यह ज़रूर कहूँगा।”
“और यह भी कह देना कि बलदेवसिंह मेरा भाई है।”
“झूठ बोलने के लिए मुझे मजबूर न करो।”
“तुम मेरे भाई नहीं हो? मैंने तो हमेशा तुम्हें अपना भाई समझा है।”
“अच्छा, यह भी कह दूंगा।”
बलदेवसिंह को विदा करके मैंने अपना खेल समाप्त किया और आराम से भोजन करके लेटा। मैंने उससे गला छुड़ाने के लिए झूठा वादा कर दिया। मेरा इरादा हाकिम-ज़िला से कुछ कहने का नहीं था। मैंने पेशबन्दी के तौर पर पहले ही जता दिया था कि हुक्काम आम तौर पर पुलिस के मुआमलों में दख़ल नहीं देते; इसलिए सज़ा हो भी गयी, तो मुझे यह कहने की काफ़ी गुंजाइश थी कि साहब ने मेरी बात स्वीकार नहीं की।
कई दिन गुज़र गये थे। मैं इस वाकिये को बिल्कुल भूल गया था। सहसा एक दिन बलदेवसिंह अपने पहलवान बेटे के साथ मेरे कमरे में दाखिल हुए। बेटे ने मेरे चरणों पर सिर रख दिया और अदब से एक किनारे खड़ा हो गया। बलदेवसिंह बोले, “बिलकुल बरी हो गया भैया! साहब ने दारोगा को बुलाकर खूब डाँटा कि तुम भले आदमियों को सताते और बदनाम करते हो। अगर फिर ऐसा झूठा मुकदमा लाये, तो बर्खास्त कर दिये जाओगे। दारोगाजी बहुत झेंपे। मैंने उन्हें झुककर सलाम किया। बचा पर घड़ों पानी पड़ गया। यह तुम्हारी सिफ़ारिश का चमत्कार है, भाईजान ! अगर तुमने मदद न की होती, तो हम तबाह हो गये थे। यह समझ लो कि तुमने चार प्राणियों की जान बचा ली। मैं तुम्हारे पास बहुत डरते-डरते आया था। लोगों ने कहा था, उनके पास नाहक जाते हो, वह बड़ा बेमुरौवत आदमी है, उसकी जात से किसी का उपकार नहीं हो सकता। आदमी वह है; जो दूसरों का हित करे। वह क्या आदमी है, जो किसी की कुछ सुने ही नहीं! लेकिन भाईजान, मैंने किसी की बात न मानी। मेरे दिल में मेरा राम बैठा कह रहा था, तुम चाहे कितने ही रूखे और बेलाग हो, लेकिन मुझ पर अवश्य दया करोगे।”
यह कहकर बलदेवसिंह ने अपने बेटे को इशारा किया। वह बाहर गया और एक बड़ा-सा गट्ठर उठा लाया, जिसमें भाँति-भाँति की देहाती सौगातें बँधी हुई थीं। हालांकि मैं बराबर कहे जाता था, “तुम ये चीज़ें नाहक लाये, इनकी क्या ज़रूरत थी, कितने गँवार हो, आखिर तो ठहरे देहाती”, मैंने कुछ नहीं कहा, मैं तो साहब के पास गया भी नहीं, लेकिन कौन सुनता है। खोया, दही, मटर की फलियाँ, अमावट, ताज़ा गुड़ और जाने क्या-क्या आ गया। मैंने कहने को तो एक तरह से कह दिया मैं साहब के पास गया ही नहीं, जो कुछ हुआ, खुद हुआ, मेरा कोई एहसान नहीं है, लेकिन उसका मतलब यह निकाला गया कि मैं केवल नम्रता से और सौगातों को लौटा देने का कोई बहाना ढूँढ़ने के लिए ऐसा कह रहा हूँ। मुझे इतनी हिम्मत न हुई कि मैं इस बात का विश्वास दिलाता। इसका जो अर्थ निकाला गया, वही मैं चाहता था। मुफ्त का एहसान छोड़ने का जी न चाहता था, अन्त में जब मैंने ज़ोर देकर कहा, कि किसी से इस बात का ज़िक्र न करना, नहीं तो मेरे पास फ़रियादों का मेला लग जायगा, तो मानो मैंने स्वीकार कर लिया कि मैंने सिफ़ारिश की और ज़ोरों से की।
सोर्स – प्रेम मंजूषा ( प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां )
चयन एवं सम्पादन – अमृतराय
पृष्ट संख्या – अलग्योझ ( 83 )
नया विवाह ( 98 )
रानी सारंधा ( 109 )
शतरंज के खिलाड़ी ( 122 )
मुफ़्त का यश ( 130 )
मुंशी प्रेमचंद की ये कहानियाँ भारतीय समाज की गहरी समझ और मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करती हैं। इनमें समाज की विभिन्न समस्याओं और मुद्दों को दर्शाया गया है।
1. अलग्योझा – यह कहानी एक ग्रामीण विधवा हलीमा और उसकी ननद के बीच के संबंधों को दिखाती है। कहानी में संपत्ति, परिवारिक जिम्मेदारियों और भावनाओं की उलझनों को दर्शाया गया है। “अलग्योझा” का अर्थ होता है ज़िम्मेदारियों का बंटवारा। यह कहानी इस बात को सामने लाती है कि पारिवारिक संबंधों में संपत्ति और दायित्व के बंटवारे के बाद भी भावनाओं का महत्व होता है।
2. नया विवाह – इस कहानी में प्रेमचंद ने समाज में प्रचलित पुनर्विवाह की प्रथा और उसके परिणामों को उठाया है। कहानी का मुख्य पात्र एक बूढ़ा विधुर है, जो अपने बेटों की सलाह पर दूसरी शादी करता है। लेकिन इस विवाह से उसे मानसिक शांति नहीं मिलती, बल्कि उसके जीवन में और उलझनें बढ़ जाती हैं। कहानी सामाजिक मान्यताओं और मानवीय इच्छाओं के बीच द्वंद्व को दर्शाती है।
3.रानी सारंधा – “रानी सारंधा” एक ऐतिहासिक कहानी है जो रानी सारंधा की वीरता और साहस को दर्शाती है। यह कहानी उनके राज्य और जनता के प्रति समर्पण और देशभक्ति की भावना को उजागर करती है। प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से नारी शक्ति और आत्म-सम्मान की भावना को बल दिया है, साथ ही यह दिखाया है कि साहस और वीरता केवल पुरुषों की ही विशेषता नहीं है।
4. शतरंज के खिलाड़ी – यह प्रेमचंद की सबसे प्रसिद्ध कहानियों में से एक है, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय के समाज की मानसिकता को दर्शाती है। कहानी के मुख्य पात्र मिर्जा और मीर साहब शतरंज के खेल में इतने लिप्त रहते हैं कि उन्हें अपने राज्य और समाज की दुर्दशा की कोई परवाह नहीं होती। यह कहानी सामंती वर्ग के पतन और उनके जिम्मेदारियों से विमुख होने की कटु आलोचना करती है। इसके साथ ही, यह भारतीय समाज के बिखराव और विलासिता के प्रति आकर्षण को उजागर करती है।
5. मुफ़्त का यश – यह कहानी उन लोगों पर व्यंग्य करती है जो बिना किसी प्रयास के प्रसिद्धि और यश प्राप्त करना चाहते हैं। कहानी का पात्र चाहता है कि वह बिना मेहनत किए समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त कर ले। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्चा यश और प्रतिष्ठा मेहनत और कर्तव्यनिष्ठा से ही मिलते हैं, न कि छल और आडंबर से।
लेखनशाला – मुंशी प्रेमचंद की ये कहानियाँ मानवीय भावनाओं और समाज की बुराइयों पर गहरी दृष्टि डालती हैं। उनके लेखन में एक सरल भाषा के माध्यम से समाज की जटिलताओं को बहुत प्रभावी ढंग से व्यक्त किया गया है।
रचनाकार परिचय ( अतिरिक्त जानकारी )
जन्म तिथि: 07/31/1880
हिंदी गद्य-साहित्य के पितामह मुन्शी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में माता आनन्दी देवी व पिता मुंशी अजायबराय के यहाँ हुआ। उनके पिता लमही में डाकमुंशी थे। जीवन की आरम्भिक अवस्था से ही प्रेमचंद को जीवन-संघर्षों से जूझना पड़ा। मात्र सात वर्ष की आयु में उनकी माता तथा चौदह वर्ष में पिता का देहान्त हो गया। गृहस्थी का जुआ पन्द्रह वर्ष की आयु में ही पड़ गया जब उनका पहला विवाह हुआ था जो असफल रहा। बाद में आर्य समाज से अत्यधिक प्रभावित प्रेम चंद ने 1906 में बाल-विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया जो बहुत सफल रहा तथा इनके यहाँ दो बेटे श्रीपत राय और अमृतराय व एक बेटी कमला देवी हुए। पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया था, 13 साल की उम्र में ही उन्होंने ‘तिलिस्मे होशरूबा’ के साथ उर्दू के जाने-माने रचनाकारों, यथा- रतननाथ ‘शरसार’, मिरजा रुसबा और मौलाना शरर के उपन्यास पढ़ लिए थे। प्रेम चंद की आरंभी शिक्षा उर्दू, फ़ारसी में हुई। 1898 में मैट्रिक करने के बाद एक स्थानीय विद्यालय में वे शिक्षक के तौर कार्यरत हो गए और साथ ही अपनी शिक्षा भी जारी रखी। 1910 में इंटर पास किया और 1919 में बी. ए. करने के बाद शिक्षा विभाग में इंस्पैक्टर पद पर इनकी नियुक्ति हो गई। तभी इनकी एक पुस्तक ‘सोज़े-वतन’ प्रकाशित हुई जिस पर सरकार ने जनता को भड़काने का आरोप लगाया तथा इसकी सभी प्रतियां ज़ब्त करके जला दी गई साथ ही उन्हें यह चेतावनी भी दी कि आगे से ऐसा कुछ न लिखें,यदि उन्होंने फिर से ऐसा कुछ लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। तब तक प्रेमचंद अपने मूल नाम धनपत राय से ही लिखते थे। तभी प्रेमचंद के प्रिय मित्र व उर्दू की पत्रिका ‘ज़माना’ के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें नए नाम ‘प्रेमचंद’ से लिखने का परामर्श दिया और तभी से उन्होंने इसी नाम से ‘ज़माना’ पत्रिका से ही अपने नए लेखन की शुरुआत की। उनकी साहित्यिक यात्रा का लेख-जोखा करें तो यह 1901 से आरम्भ होकर 1936 तक सतत चलती है। प्रेमचंद की पहली रचना (अनुपलब्ध) एक व्यंग्य लेख थी जो उन्होंने अपने मामा पर लिखा थी और पहला उपलब्ध लेखन उर्दू भाषा में लिखा उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ है, इसके बाद ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ दूसरा उपन्यास भी उर्दू में था जिसका हिंदी रूपांतरण ‘प्रेमा’ नाम से 1907 में किया गया। उनका पहला कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’ जो 1908 में प्रकाशित हुआ और देशभक्ति से ओतप्रोत इस पुस्तक को अंग्रेज़ी सरकार ने न केवल प्रतिबंधित करके सभी प्रतियां नष्ट करवा दी अपितु ऐसा लेखन न करने की चेतावनी दी जिसने एक सशक्त कहानीकार व गद्य लेखक ‘प्रेमचंद’ को जन्म दिया। इस नाम से उनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ का प्रकाशन ‘ज़माना’ (उर्दू) पत्रिका के दिसंबर, 1910 के अंक में किया गया। प्रेम चंद ने हिन्दी कहानी को एक ऐसे पड़ाव पर ला खड़ा किया जहाँ से इसकी विविध धाराओं को मापा जा सके। कहानी मूल्यांकन में प्रेमचंद की कहानियाँ मील का पत्थर साबित होती हैं क्योंकि जब भी कथा-साहित्य पर आलोचनात्मक विवेचन किया जाता है तो प्रेमचंद-पूर्व या प्रेमचंद के बाद के तथ्यों को ही आलोचक दृष्टिगत रखते हैं।हिन्दी में उनकी प्रथम कहानी ‘सौत’ ‘सरस्वती’ पत्रिका के दिसंबर 1915 अंक में प्रकाशित हुई थी और इसके बाद अक्टूबर 1936 तक की 20 वर्ष की अवधि में उन्होंने कुल 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 15 उपन्यास, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकों से हिन्दी साहित्य को अनुपम भेंट देकर समृद्ध किया। वस्तुतः इनके बाद भारतीय साहित्य में जितने भी विविधायामी विमर्श साहित्य-पटल पर उभरे हैं, उनका मूल स्रोत प्रेमचंद साहित्य से ही प्रस्फुटित होता दिखाई पड़ता है। प्रेमचंद आधुनिक गद्य-साहित्य के सुदृढ़ स्तम्भ रहे हैं। ‘असरारे मआबिद’ उनका पहला व दूसरा ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ उपन्यास उर्दू भाषा में लिखे गए। उनके सम्पूर्ण कथा साहित्य को ‘मानसरोवर’ श्रृंखला से 8 खंडों में प्रकाशित किया गया। प्रेमचंद भारतीय चेतना के रचनाकार थे जो साहित्य को राजनीति की मार्गदर्शिका मशाल की तरह समझते थे। अपनी राष्ट्रवादी चेतना से अभिभूत हो कर महात्मा गांधी द्वारा युवा शक्ति के आह्वान पर वे 1921 में नौकरी छोड़ कर साहित्य-सेवा में जुट गए। कुछ समय ‘मर्यादा’ पत्रिका का सम्पादन-कार्यभार संभाला। इसके बाद ‘माधुरी’ पत्रिका का छः वर्ष सम्पादन किया और 1930 में वाराणसी से मासिक पत्रिका ‘हंस’ स्वयं आरम्भ की जिसे अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी चलाए रखने के सफल प्रयास आजीवन जारी रखे। इसके साथ ही 1932 में एक साप्ताहिक पत्र ‘जागरण’ भी निकाला। प्रेमचंद ने आरंभ में अध्यापन और बाद में लेखन को ही अपनी जीविका का साधन बनाया। उन्होंने मोहन भवनानी की सिनेमा कंपनी ‘अजंता सिनेटोन कंपनी’ में कथा लेखन की नौकरी की। ‘मजदूर’ फ़िल्म की कहानी प्रेम चंद ने लिखी थी जिसके लिए इन्हें एक वर्ष के कांट्रेक्ट पर रखा गया था परन्तु बम्बई के फ़िल्मी माहोल से तालमेल न बैठा पाने की वजह से नौकरी की परवाह किए बिना वेतन छोड़ दो माह पहले ही वाराणसी वापस आ गए और अपनी स्वतन्त्र साहित्य-साधना में संलग्न हो गए। उन्होंने इस साधना में अपने शरीर और स्वास्थ्य की भी अवहेलना की और जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार रहने लगे; जीवन के इन दिनों में ही उनके उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ का लेखन चल रहा था कि 8 अक्टूबर, 1936 को कलम का यह अथक सिपाही ‘मंगलसूत्र’ बीच में अधूरा ही छोड़ कर किसी ऐसी चिर यात्रा पर निकल पड़ा जहाँ से कोई लौट कर कभी नहीं आता, निस्संदेह प्रेम चंद ने हिन्दी साहित्य में अपनी वह गहरी छाप अंकित की जिससे आने वाली अनगिनत पीढ़ियाँ युगों-युगों तक उन्हें अपने हृदय-पटल पर ज़िंदा रखेंगी। प्रेमचंद ने कुल करीब तीन सौ कहानियां, एक दर्जन उपन्यास और कई लेख लिखे। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे और कुछ अनुवाद कार्य भी किया। प्रेमचंद की कई साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन सहित अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। ‘गोदान’ उनकी कालजयी रचना है, ‘कफ़न’ उनकी अंतिम कहानी मानी जाती है। उन्होंने हिंदी और उर्दू में पूरे अधिकार से लिखा। उनकी कई रचनाएं मूल रूप से उर्दू में लिखी गई हैं लेकिन उनका प्रकाशन हिंदी में पहले हुआ। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है। प्रेमचन्द की रचना धर्मिता बहु आयामी रही है उनकी कलम से उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में सशक्त रचनाएँ आई। साहित्य में उनकी प्रसिद्धि कथाकार के तौर पर हुई ही साथ ही उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’।