1 – दूध का दाम
अब बड़े-बड़े शहरों में दाइयाँ, नर्सें और लेडी डाक्टर, सभी पैदा हो गयी हैं; लेकिन देहातों में जच्चेखानों पर अभी तक भंगिनों का ही प्रभुत्व है और निकट भविष्य में इसमें कोई तब्दीली होने की आशा नहीं। बाबू महेशनाथ अपने गाँव के जमींदार थे, शिक्षित थे और जच्चेखानों में सुधार की आवश्यकता को मानते थे, लेकिन इसमें जो बाधाएँ थीं, उन पर कैसे विजय पाते ? कोई नर्स देहात में जाने पर राजी न हुई और बहुत कहने-सुनने से राजी भी हुई, तो इतनी लम्बी-चौड़ी फीस माँगी कि बाबू साहब को सिर झुकाकर चले आने के सिवा और कुछ न सूझा। लेडी डाक्टर के पास जाने की उन्हें हिम्मत न पड़ी। उसकी फीस पूरी करने के लिए तो शायद बाबू साहब को अपनी आधी जायदाद बेचनी पड़ती; इसलिए जब तीन कन्याओं के बाद वह चौथा लड़का पैदा हुआ, तो फिर वही गूदड़ था और वही गूदड़ की बहू। बच्चे अक्सर रात ही को पैदा होते हैं। एक दिन आधी रात को चपरासी ने गूदड़ के द्वार पर ऐसी हाँक लगायी कि पास-पड़ोस में भी जाग पड़ गयी। लड़की न थी कि मरी आवाज से पुकारता।
गूदड़ के घर में इस शुभ अवसर के लिए महीनों से तैयारी हो रही थी। भय था तो यही कि फिर बेटी न हो जाय, नहीं तो वही बँधा हुआ एक रुपया और एक साड़ी मिलकर रह जायगी। इस विषय में स्त्री-पुरुष
में कितनी ही बार झगड़ा हो चुका था, शर्त लग चुकी थी। स्त्री कहती थी, ‘अगर अबकी बेटा न हो तो मुँह न दिखाऊँ; हाँ-हाँ, मुँह न दिखाऊँ, सारे लच्छन बेटे के हैं। और गूदड़ कहता था, ‘देख लेना, बेटी होगी और बीच खेत बेटी होगी। बेटा निकले तो मूँछें मुँड़ा लूँ, हाँ-हाँ, मूँछें मुड़ा लूँ।’ शायद गूदड़ समझता था कि इस तरह अपनी स्त्री में पुत्र-कामना को बलवान् करके वह बेटे की अवाई के लिए रास्ता साफ कर रहा है।
भूंगी बोली, ‘अब मूँछ मुँड़ा ले दाढ़ीजार ! कहती थी, बेटा होगा। सुनता ही न था। अपनी ही रट लगाये जाता था। मैं आज तेरी मूँछें मूँङूँगी, खूँटी तक तो रखूँगी ही नहीं।’
गूदड़ ने कहा, ‘अच्छा मूँड़ लेना भलीमानस ! मूँछें क्या फिर निकलेंगी ही नहीं ? तीसरे दिन देख लेना, फिर ज्यों-की-त्यों हैं, मगर जो कुछ मिलेगा,उसमें आधा रखा लूँगा, कहे देता हूँ।
भूँगी ने अँगूठा दिखाया और अपने तीन महीने के बालक को गूदड़ के सुपुर्द कर सिपाही के साथ चल खड़ी हुई।
गूदड़ ने पुकारा, ‘अरी ! सुन तो, कहाँ भागी जाती है ? मुझे भी बधाई बजाने जाना पड़ेगा। इसे कौन सँभालेगा ?’
भूँगी ने दूर ही से कहा, ‘इसे वहीं धारती पर सुला देना। मैं आके दूध पिला जाऊँगी।’
महेशनाथ के यहाँ अब भी भूँगी की खूब खातिरदारियाँ होने लगीं। सबेरे हरीरा मिलता, दोपहर को पूरियाँ और हलवा, तीसरे पहर को फिर और रात को फिर और गूदड़ को भी भरपूर परोसा मिलता था। भूँगी अपने बच्चे को दिन-रात में एक-दो बार से ज्यादा न पिला सकती थी। उसके लिए ऊपर के दूध का प्रबन्ध था। भूँगी का दूध बाबूसाहब का भाग्यवान् बालक पीता था। और यह सिलसिला बारहवें दिन भी न बन्द हुआ। मालकिन मोटी-ताजी देवी थी; पर अबकी कुछ ऐसा संयोग कि उन्हें दूध हुआ ही नहीं। तीनों लड़कियों की बार इतने इफरात से दूध होता था कि लड़कियों को बदहजमी हो जाती थी। अब की एक बूँद नहीं। भूँगी दाई भी थी और दूध-पिलाई भी। मालकिन कहतीं ‘भूँगी, हमारे बच्चे को पाल दे, फिर जब तक तू जिये, बैठी खाती रहना। पाँच बीघे माफी दिलवा दूंगी। नाती-पोते तक चैन करेंगे। और भूँगी का लाड़ला ऊपर का दूध हजम न कर सकने के कारण बार-बार उलटी करता और दिन-दिन दुबला होता जाता था।
भूँगी कहती, ‘बहूजी, मूँड़न में चूड़े लूँगी, कहे देती हूँ।’
बहूजी, उत्तर देतीं, ‘हाँ हाँ, चूड़े लेना भाई, धमकाती क्यों है ? चाँदी के लेगी या सोने के।’
‘वाह बहूजी! चाँदी के चूड़े पहन के किसे मुँह दिखाऊँगी और किसकी हँसी होगी ?’
‘अच्छा, सोने के लेना भाई, कह तो दिया।’
‘और ब्याह में कण्ठा लूँगी और चौधरी (गूदड़) के लिए हाथों के तोड़े।’
‘वह भी लेना, भगवान् वह दिन तो दिखावे।’
घर में मालकिन के बाद भूँगी का राज्य था। महरियाँ, महराजिन, नौकर- चाकर सब उसका रोब मानते थे। यहाँ तक कि खुद बहूजी भी उससे दब जाती थीं। एक बार तो उसने महेशनाथ को भी डाँटा था। हँसकर टाल गये। बात चली थी भंगियों की। महेशनाथ ने कहा, था दुनिया में और चाहे जो कुछ हो जाय, भंगी भंगी ही रहेंगे। इन्हें आदमी बनाना कठिन है। इस पर भूँगी ने कहा, था मालिक, भंगी तो बड़ों-बड़ों को आदमी बनाते
हैं, उन्हें कोई क्या आदमी बनाये। यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे अवसर पर भला भूँगी के सिर के बाल
बच सकते थे ? लेकिन आज बाबूसाहब ठठाकर हँसे और बोले भूँगी बात बड़े पते की कहती है।
भूँगी का शासनकाल साल-भर से आगे न चल सका। देवताओं ने बालक के भंगिन का दूध पीने पर आपत्ति की, मोटेराम शास्त्री तो प्रायश्चित्त का प्रस्ताव कर बैठे। दूध तो छुड़ा दिया गया; लेकिन प्रायश्चित्त की बात हँसी में उड़ गयी। महेशनाथ ने फटकारकर कहा, ‘प्रायश्चित्त की खूब कही शास्त्रीजी, कल तक उसी भंगिन का खून पीकर पला, अब उसमें छूत घुस गयी। वाह रे आपका धर्म। शास्त्रीजी शिखा फटकारकर बोले यह सत्य है,वह कल तक भंगिन का रक्त पीकर पला। मांस खाकर पला, यह भी सत्य है; लेकिन कल की बात कल थी, आज की बात आज। जगन्नाथपुरी में छूत-अछूत सब एक पंगत में खाते हैं; पर यहाँ तो नहीं खा सकते। बीमारी में तो हम भी कपड़े पहने खा लेते हैं, खिचड़ी तक खा लेते हैं बाबूजी;लेकिन अच्छे हो जाने पर तो नेम का पालन करना ही पड़ता है। आपद्धर्म की बात न्यारी है।
‘तो इसका यह अर्थ है कि धर्म बदलता रहता है क़भी कुछ, कभी कुछ ?’
‘और क्या ! राजा का धर्म अलग, प्रजा का धर्म अलग, अमीर का धर्म अलग, गरीब का धर्म अलग, राजे-महाराजे जो चाहें खायँ, जिसके साथ चाहें खायँ, जिसके साथ चाहें शादी-ब्याह करें, उनके लिए कोई बन्धन नहीं। समर्थ पुरुष हैं। बन्धन तो मध्यवालों के लिए है।’
प्रायश्चित्त तो न हुआ; लेकिन भूँगी को गद्दी से उतरना पड़ा ! हाँ, दान-दक्षिणा इतनी मिली की वह अकेले ले न जा सकी और सोने के चूड़े भी मिले। एक की जगह दो नयी, सुन्दर साड़ियाँ मामूली नैनसुख की नहीं,
जैसी लड़कियों की बार मिली थीं। इसी साल प्लेग ने जोर बाँध और गूदड़ पहले ही चपेट में आ गया। भूँगी
अकेली रह गयी; पर गृहस्थी ज्यों-की-त्यों चलती रही। लोग ताक लगाये बैठे थे कि भूँगी अब गयी। फलां भंगी से बातचीत हुई, फलां चौधरी आये,लेकिन भूँगी न कहीं आयी, न कहीं गयी, यहाँ तक कि पाँच साल बीत गये और उसका बालक मंगल, दुर्बल और सदा रोगी रहने पर भी, दौड़ने लगा। सुरेश के सामने पिद्दी-सा लगता था।
एक दिन भूँगी महेशनाथ के घर का परनाला साफ कर रही थी। महीनों से गलीज जमा हो रहा था। आँगन में पानी भरा रहने लगा था। परनाले में एक लम्बा मोटा बाँस डालकर जोर से हिला रही थी। पूरा दाहिना हाथ
परनाले के अन्दर था कि एकाएक उसने चिल्लाकर हाथ बाहर निकाल लिया और उसी वक्त एक काला साँप परनाले से निकलकर भागा। लोगों ने दौड़कर उसे मार तो डाला; लेकिन भूँगी को न बचा सके। समझे, पानी का साँप है, विषैला न होगा, इसलिए पहले कुछ गफलत की गयी। जब विष देह में फैल गया और लहरें आने लगीं, तब पता चला कि वह पानी का साँप नहीं, गेहुँवन था।
मंगल अब अनाथ था। दिन-भर महेशबाबू के द्वार पर मँडराया करता। घर में जूठन इतना बचता था कि ऐसे-ऐसे दस-पाँच बालक पल सकते थे। खाने की कोई कमी न थी। हाँ, उसे तब बुरा जरूर लगता था, जब उसे
मिट्टी के कसोरों में ऊपर से खाना दिया जाता था। सब लोग अच्छे-अच्छे बरतनों में खाते हैं, उसके लिए मिट्टी के कसोरे ! यों उसे इस भेदभाव का बिलकुल ज्ञान न होता था, लेकिन गाँव के लड़के चिढ़ा-चिढ़ाकर उसका अपमान करते रहते थे। कोई उसे अपने साथ खेलाता भी न था। यहाँ तक कि जिस टाट पर वह सोता था, वह भी अछूत था। मकान के सामने एक नीम का पेड़ था। इसी के नीचे मंगल का डेरा था। एक फटा-सा टाट का टुकड़ा,दो मिट्टी के कसोरे और एक धोती, जो सुरेश बाबू की उतारन थी, जाड़ा, गरमी, बरसात हरेक मौसम में वह जगह एक-सी आरामदेह थी और भाग्य का बली मंगल झुलसती हुई लू, गलते हुए जाड़े और मूसलाधार वर्षा में भी जिन्दा और पहले से कहीं स्वस्थ था। बस, उसका कोई अपना था, तो गाँव का एक कुत्ता, जो अपने सहवर्गियों के जुल्म से दुखी होकर मंगल की शरण आ पड़ा था। दोनों एक ही खाना खाते, एक
ही टाट पर सोते, तबियत भी दोनों की एक-सी थी और दोनों एक-दूसरे के स्वभाव को जान गये थे। कभी आपस में झगड़ा न होता।
गाँव के धार्मात्मा लोग बाबूसाहब की इस उदारता पर आश्चर्य करते। ठीक द्वार के सामने पचास हाथ भी न होगा मंगल का पड़ा रहना उन्हें सोलहों आने धर्म-विरुद्ध जान पड़ा। छि: ! यही हाल रहा, तो थोड़े ही दिनों
में धर्म का अन्त ही समझो। भंगी को भी भगवान् ने ही रचा है, यह हम भी जानते हैं। उसके साथ हमें किसी तरह का अन्याय न करना चाहिए,यह किसे नहीं मालूम ? भगवान् का तो नाम ही पतित-पावन है; लेकिन समाज की मर्यादा भी कोई वस्तु है ! उस द्वार पर जाते हुए संकोच होता है। गाँव के मालिक हैं, जाना तो पड़ता ही है; लेकिन बस यही समझ लो कि घृणा होती है।
मंगल और टामी में गहरी बनती थी। मंगल कहता देखो भाई टामी, जरा और खिसककर सोओ। आखिर मैं कहाँ लेटूँ ? सारा टाट तो तुमने घेर लिया। टामी कूँ-कूँ करता, दुम हिलाता और खिसक जाने के बदले और ऊपर चढ़ आता एवं मंगल का मुँह चाटने लगता। शाम को वह एक बार रोज अपना घर देखने और थोड़ी देर रोने जाता। पहले साल फूस का छप्पर गिर पड़ा, दूसरे साल एक दीवार गिरी और अब केवल आधी-आधी दीवारें खड़ी थीं, जिनका ऊपरी भाग नोकदार हो गया था। यही उसे स्नेह की सम्पत्ति मिली थी। वही स्मृति, ही आकर्षण, वही प्यार उसे एक बार उस ऊजड़ में खींच ले जाता था और टामी सदैव उसके साथ होता था। मंगल नोकदार दीवार पर बैठ जाता और जीवन के बीते और आनेवाले स्वप्न देखने लगता और बार-बार उछलकर उसकी गोद में बैठने की असफल चेष्टा करता।
एक दिन कई लड़के खेल रहे थे। मंगल भी पहुँचकर दूर खड़ा हो गया। या तो सुरेश को उस पर दया आयी, या खेलनेवालों की जोड़ी पूरी न पड़ती थी, कह नहीं सकते। जो कुछ भी हो, तजवीज की कि आज मंगल को भी
खेल में शरीक कर लिया जाय। यहाँ कौन देखने आता है।
‘क्यों रे मंगल, खेलेगा।’
मंगल बोला, ‘ना भैया, कहीं मालिक देख लें, तो मेरी चमड़ी उधोड़ दी जाय। तुम्हें क्या, तुम तो अलग हो जाओगे।’
सुरेश ने कहा, ‘तो यहाँ कौन आता है देखने बे ? चल, हम लोग सवार-सवार खेलेंगे। तू घोड़ा बनेगा, हम लोग तेरे ऊपर सवारी करके दौड़ायेंगे ?’
मंगल ने शंका की, ‘मैं बराबर घोड़ा ही रहूँगा, कि सवारी भी करूँगा ?यह बता दो।’
यह प्रश्न टेढ़ा था। किसी ने इस पर विचार न किया था। सुरेश ने एक क्षण विचार करके कहा, ‘तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठायेगा, सोच ?’
‘आखिर तू भंगी है कि नहीं ?’
मंगल भी कड़ा हो गया। बोला, ‘मैं कब कहता हूँ कि मैं भंगी नहीं हूँ, लेकिन तुम्हें मेरी ही माँ ने अपना दूध पिलाकर पाला है। जब तक मुझे भी सवारी करने को न मिलेगी, मैं घोड़ा न बनूँगा। तुम लोग बड़े चघड़ हो।
आप तो मजे से सवारी करोगे और मैं घोड़ा ही बना रहूँ।’
सुरेश ने डाँटकर कहा,’तुझे घोड़ा बनना पड़ेगा’ और मंगल को पकड़ने दौड़ा। मंगल भागा। सुरेश ने दौड़ाया। मंगल ने कदम और तेज किया। सुरेश ने भी जोर लगाया; मगर वह बहुत खा-खाकर थुल-थुल हो गया था। और दौड़ने में उसकी साँस फूलने लगती थी। आखिर उसने रुककर कहा, ‘आकर घोड़ा बनो मंगल, नहीं तो कभी पा जाऊँगा, तो बुरी तरह पीटूँगा।’
‘तुम्हें भी घोड़ा बनना पड़ेगा।’
‘अच्छा हम भी बन जायँगे।’
‘तुम पीछे से निकल जाओगे। पहले तुम घोड़ा बन जाओ। मैं सवारी कर लूँ, फिर मैं बनूँगा।’
सुरेश ने सचमुच चकमा देना चाहा था। मंगल का यह मुतालबा सुनकर साथियों से बोला, ‘देखते हो इसकी बदमाशी, भंगी है न !’
तीनों ने मंगल को घेर लिया और उसे जबरदस्ती घोड़ा बना दिया। सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया और टिकटिक करके, ‘बोला,चल घोड़े, चल !
मंगल कुछ देर तक तो चला, लेकिन उस बोझ से उसकी कमर टूटी जाती थी। उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान के नीचे से सरक गया। सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे। माँ ने सुना, सुरेश कहीं रो रहा है। सुरेश कहीं रोये, तो उनके तेज कानों में जरूर भनक पड़ जाती थी और उसका रोना भी बिलकुल निराला होता था, जैसे छोटी लाइन के इंजन की आवाज। महरी से बोली, ‘देख तो, सुरेश कहीं रो रहा है, पूछ तो किसने मारा है।’
इतने में सुरेश खुद आँखें मलता हुआ आया। उसे जब रोने का अवसर
मिलता था, तो माँ के पास फरियाद लेकर जरूर आता था। माँ मिठाई या मेवे देकर आँसू पोंछ देती थीं। आप थे तो आठ साल के, मगर थे बिलकुल गावदी। हद से ज्यादा प्यार ने उसकी बुद्धि के साथ वही किया था, जो हद से ज्यादा भोजन ने उसकी देह के साथ।
माँ ने पूछा, ‘क्यों रोता है सुरेश, किसने मारा ?’
सुरेश ने रोकर कहा, ‘मंगल ने छू दिया।’
माँ को विश्वास न आया। मंगल इतना निरीह था कि उससे किसी तरह की शरारत की शंका न होती थी; लेकिन जब सुरेश कसमें खाने लगा, तो विश्वास करना लाजिम हो गया। मंगल को बुलाकर डाँटा, ‘क्यों रे मंगल, अब तुझे बदमाशी सूझने लगी। मैंने तुझसे कहा, था, सुरेश को कभी मत छूना, याद है कि नहीं, बोल।’
मंगल ने दबी आवाज से कहा, ‘याद क्यों नहीं है।’
‘तो फिर तूने उसे क्यों छुआ ?’
‘मैंने नहीं छुआ।’
‘तूने नहीं छुआ, तो वह रोता क्यों था ?’
‘गिर पड़े, इससे रोने लगे।’
चोरी और सीनाजोरी। देवीजी दाँत पीसकर रह गयीं। मारतीं, तो उसी दम स्नान करना पड़ता। छड़ी तो हाथ में लेनी ही पड़ती और छूत का विद्युत-प्रवाह इस छड़ी के रास्ते उनकी देह में पैवस्त हो जाता, इसलिए जहाँ
तक गालियाँ दे सकीं, दीं और हुक्म दिया कि -‘अभी-अभी यहाँ से निकल जा। फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आयी, तो खून ही पी जाऊँगी। मुफ्त की रोटियाँ खा-खाकर शरारत सूझती है,’ आदि।
मंगल में गैरत तो क्या थी, हाँ, डर था। चुपके से अपने सकोरे उठाये, टाट का टुकड़ा बगल में दबाया, धोती कन्धो पर रखी और रोता हुआ वहाँ से चल पड़ा। अब वह यहाँ कभी न आयेगा। यही तो होगा कि भूखों मर
जायेगा। क्या हरज है ? इस तरह जीने से फायदा ही क्या ? गाँव में उसके लिए और कहाँ ठिकाना था ? भंगी को कौन पनाह देता ? उसी खंडहर की ओर चला, जहाँ भले दिनों की स्मृतियाँ उसके आँसू पोंछ सकती थीं और खूब फूट-फूटकर रोया। उसी क्षण टामी भी उसे ढूँढ़ता हुआ पहुँचा और दोनों फिर अपनी व्यथा
भूल गये।
लेकिन ज्यों-ज्यों दिन का प्रकाश क्षीण होता जाता था, मंगल की ग्लानि भी क्षीण होती जाती थी। बचपन को बेचैन करने वाली भूख देह का रक्त पी-पीकर और भी बलवान होती जाती थी। आँखें बार-बार कसोरों की ओर उठ जातीं। वहाँ अब तक सुरेश की जूठी मिठाइयाँ मिल गयी होतीं। यहाँ क्या धूल फाँके ? उसने टामी से सलाह की ख़ाओगे क्या टामी ? मैं तो भूखा लेट रहूँगा। टामी ने कूँ-कूँ करके शायद कहा, ‘इस तरह का अपमान तो जिन्दगी भर सहना है। यों हिम्मत हारोगे, तो कैसे काम चलेगा ? मुझे देखो न, कभी
किसी ने डण्डा मारा, चिल्ला उठा, फिर जरा देर बाद दुम हिलाता हुआ उसके पास जा पहुँचा। हम-तुम दोनों इसीलिए बने हैं, भाई !’ मंगल ने कहा,’तो तुम जाओ, जो कुछ मिले खा लो, मेरी परवाह न करो।’
टामी ने अपनी श्वान-भाषा में कहा, ‘अकेला नहीं जाता, तुम्हें साथ लेकर चलूँगा।’
‘मैं नहीं जाता।’
‘तो मैं भी नहीं जाता।’
‘भूखों मर जाओगे।’
‘तो क्या तुम जीते रहोगे ?’
‘मेरा कौन बैठा है, जो रोयेगा ?’
‘यहाँ भी वही हाल है भाई, क्वार में जिस कुतिया से प्रेम किया था, उसने बेवफाई की और अब कल्लू के साथ है। खैरियत यही हुई कि अपने बच्चे लेती गयी, नहीं तो मेरी जान गाढ़े में पड़ जाती। पाँच-पाँच बच्चों को
कौन पालता ?’
एक क्षण के बाद भूख ने एक दूसरी युक्ति सोच निकाली। ‘मालकिन हमें खोज रही होंगी, क्या टामी ?’
‘और क्या ? बाबूजी और सुरेश खा चुके होंगे। कहार ने उनकी थाली से जूठन निकाल लिया होगा और हमें पुकार रहा होगा।’
‘बाबूजी और सुरेश दोनों की थालियों में घी खूब रहता है और वह मीठी-मीठी चीज हाँ मलाई।’
‘सब-का-सब घूरे पर डाल दिया जायगा।’
‘देखें, हमें खोजने कोई आता है ?’
‘खोजने कौन आयेगा; क्या कोई पुरोहित हो ? एक बार ‘मंगल-मंगल’ होगा और बस, थाली परनाले में उँड़ेल दी जायेगी।’
‘अच्छा, तो चलो चलें। मगर मैं छिपा रहूँगा, अगर किसी ने मेरा नाम लेकर न पुकारा; तो मैं लौट आऊँगा। यह समझ लो।’
दोनों वहाँ से निकले और आकर महेशनाथ के द्वार पर अँधेरे में दबककर खड़े हो गये; मगर टामी को सब्र कहाँ ? वह धीरे से अन्दर घुस गया। देखा, महेशनाथ और सुरेश थाली पर बैठ गये हैं। बरोठे में धीरे से बैठ गया, मगर डर रहा था कि कोई डण्डा न मार दे। नौकर में बातचीत हो रही थी। एक ने कहा, ‘आज मँगलवा नहीं दिखायी देता। मालकिन ने डाँटा था, इससे भागा है साइत।’
दूसरे ने जवाब दिया, ‘अच्छा हुआ, निकाल दिया गया। सबेरे-सबेरे भंगी का मुँह देखना पड़ता था।
मंगल और अँधेरे में खिसक गया। आशा गहरे जल में डूब गयी। महेशनाथ थाली से उठ गये। नौकर हाथ धुला रहा है। अब हुक्का पीयेंगे और सोयेंगे। सुरेश अपनी माँ के पास बैठा कोई कहा,नी सुनता-सुनता
सो जायगा ! गरीब मंगल की किसे चिन्ता है ? इतनी देर हो गयी, किसी ने भूल से भी न पुकारा।
कुछ देर तक वह निराश-सा वहाँ खड़ा रहा, फिर एक लम्बी साँस खींचकर जाना ही चाहता था कि कहार पत्तल में थाली का जूठन ले जाता नजर आया। मंगल अँधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गया। अब मन को कैसे रोके ?
कहार ने कहा, ‘अरे, तू यहाँ था ? हमने समझा कि कहीं चला गया। ले, खा ले; मैं फेंकने ले जा रहा था।’
मंगल ने दीनता से कहा, ‘मैं तो बड़ी देर से यहाँ खड़ा था।’
‘तो बोला, क्यों नहीं ?’
‘मारे डर के।’
‘अच्छा, ले खा ले।’
उसने पत्तल को ऊपर उठाकर मंगल के फैले हुए हाथों में डाल दिया। मंगल ने उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा, जिसमें दीन कृतज्ञता भरी हुई थी। टामी भी अन्दर से निकल आया था। दोनों वहीं नीम के नीचे पत्तल
में खाने लगे। मंगल ने एक हाथ से टामी का सिर सहलाकर कहा, ‘देखा, पेट की आग ऐसी होती है ! यह लात की मारी हुई रोटियाँ भी न मिलतीं,तो क्या करते ?’ टामी ने दुम हिला दी।
‘सुरेश को अम्माँ ने पाला था।’
टामी ने फिर दुम हिलायी।
‘लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है।’
टामी ने फिर दुम हिलायी।
2 – गिला
जीवन का बड़ा भाग इसी घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब हुआ। मेरे पति संसार की दृष्टि में बड़े सज्जन, बड़े शिष्ट, बड़े उदार, बड़े सौम्य होंगे; लेकिन जिस पर गुजरती है वही जानता है। संसार को उन लोगों की प्रशंसा करने में आनंद आता है, जो अपने घर को भाड़ में झोंक रहे हों, गैरों के पीछे अपना सर्वनाश किये डालते हों। जो प्राणी घरवालों के लिए मरता है, उसकी प्रशंसा संसारवाले नहीं करते। वह तो उनकी दृष्टि में स्वार्थी है, कृपण है, संकीर्ण हृदय है, आचार-भ्रष्ट है। इसी तरह जो लोग बाहरवालों के लिए मरते हैं, उनकी प्रशंसा घरवाले क्यों करने लगे? अब इन्हीं को देखो, सारे दिन मुझे जलाया करते हैं। मैं परदा तो नहीं करती; लेकिन सौदे-सुलफ के लिए बाज़ार जाना बुरा मालूम होता है। और, इनका यह हाल है, कि चीज़ मँगवाओ, तो ऐसी दुकान से लायेंगे, जहाँ कोई ग्राहक भूलकर भी न जाता हो। ऐसी दुकान पर न तो चीज़ अच्छी मिलती है, न तौल ठीक होती है, न दाम ही उचित होते हैं। यह दोष न होते, तो वह दुकान बदनाम ही क्यों होती; पर इन्हें ऐसी ही गयी-बीती दुकानों की चीज़ें लाने का मरज है। बार-बार कह दिया, साहब कि चलती हुई दुकान से सौदे लाया करो। वहाँ माल अधिक खपता है, इसलिए ताजा माल आता रहता है; पर इनकी तो टुटपुँजिया से बनती है, और वे इन्हें उल्टे छुरे से मूँडते हैं। गेहूँ लायेंगे, तो सारे बाज़ार से ख़राब, घुना हुआ चावल, ऐसा मोटा कि बैल भी न पूछे, दाल में कराई और कंकड़ भरे हुए। मनों लकड़ी जला डालो, क्या मजाल कि गले ! घी लायेंगे तो आधा आधा तेल, या सोलहों आने काटोजेम और दरअसल घी से एक छटाँक कम ! तेल लायेंगे तो मिलावट, बालों में डालो, तो चिमट जायें; पर दाम दे आयेंगे शुद्ध आँवले के तेल का ! किसी चलती हुई नामी दुकान पर जाते तो इन्हें जैसे डर लगता है। शायद ऊँची दुकान और फीके पकवान के कायल हैं। मेरा अनुभव तो यह है, कि नीची दुकान पर ही सड़े पकवान मिलते हैं।
एक दिन की बात हो, तो बरदाश्त कर ली जाय। रोज-रोज का टंटा नहीं सहा जाता। मैं पूछती हूँ; आखिर आप टुटपुँजियों की दुकान पर जाते ही क्यों हैं? क्या उनके पालन-पोषण का ठीका तुम्हीं ने लिया है? आप फरमाते हैं, मुझे देखकर सब-के-सब बुलाने लगते हैं। वाह क्या कहना है ! कितनी दूर की बात कही है। जरा इन्हें बुला लिया और खुशामद के दो शब्द सुना दिये, थोड़ी-सी स्तुति कर दी, बस आपका मिज़ाज आसमान पर जा पहुँचा। फिर इन्हें सुधि नहीं रहती कि यह कूड़ा-करकट बांध रहा है या क्या। पूछती हूँ, तुम उस रास्ते से जाते ही क्यों हो? क्यों किसी दूसरे रास्ते से नहीं जाते। ऐसे उठाईगीरों को मुँह ही क्यों लगाते हो? इसका कोई जवाब नहीं? एक चुप सौ बाधाओं को हराती है?
एक बार एक गहना बनवाने को दिया। मैं तो महाशय को जानती थी। इनसे कुछ पूछना व्यर्थ समझा। अपने पहचान के एक सुनार को बुला रही थी। संयोग से आप भी विराजमान थे। बोले यह संप्रदाय विश्वास के योग्य नहीं, धोखा खाओगी। मैं एक सुनार को जानता हूँ, मेरे साथ का पढ़ा हुआ है, बरसों साथ-साथ खेले हैं, वह मेरे साथ चालबाजी नहीं कर सकता। मैंने भी समझा, जब इनका मित्र है और वह भी बचपन का, तो कहाँ तक दोस्ती का हक न निभायेगा। सोने का एक आभूषण और सौ रुपये इनके हवाले किये। इस भलेमानस ने वह आभूषण और रुपये न जाने किस बेईमान को दे दिये कि बरसों के झंझट के बाद जब चीज़ बनकर आयी, तो आठ आने ताँबा और इतनी भद्दी कि देखकर घिन लगती थी। बरसों की अभिलाषा धूल में मिल गयी। रो-पीटकर बैठ रही। ऐसे-ऐसे वफ़ादार तो इनके मित्र हैं; जिन्हें मित्र की गरदन पर छुरी फेरने पर भी संकोच नहीं। इनकी दोस्ती भी उन्हीं लोगों से है, जो जमाने भर के जट्टू, गिरहकट, लंगोटी में फाग खेलनेवाले, फाकेमस्त हैं, जिनका उद्यम ही इन जैसे आँख के अंधों से दोस्ती गाँठना है। नित्य ही एक-न-एक महाशय उधार माँगने के लिए सिर पर सवार रहते हैं और बिना लिये गला नहीं छोड़ते। मगर ऐसा कभी न हुआ कि किसी ने रुपये चुकाये हों। आदमी एक बार खोकर सीखता है, दो बार खोकर सीखता है, किंतु यह भलेमानस हज़ार बार खोकर भी नहीं सीखते ! जब कहती हूँ, रुपये तो दे आये। अब माँग क्यों नहीं लाते ! क्या मर गये तुम्हारे वह दोस्त? तो बस बगलें झाँककर रह जाते हैं। आपसे मित्रों को सूखा जवाब नहीं दिया जाता। खैर, सूखा जवाब न दो। मैं भी नहीं कहती कि दोस्तों से बेमुरौवती करो; मगर चिकनी-चुपड़ी बातें तो बना सकते हो, बहाने तो कर सकते हो। किसी मित्र ने रुपये माँगे और आपके सिर पर बोझ पड़ा।
बेचारे कैसे इनकार करें। आखिर लोग जान जायेंगे कि नहीं कि यह महाशय भी खुक्खल ही हैं ! इनकी हविस यह है कि दुनिया इन्हें संपन्न समझती रहे, चाहे मेरे गहने ही क्यों न गिरों रखने पड़ें। सच कहती हूँ, कभी-कभी तो एक-एक पैसे की तंगी हो जाती है और इन भले आदमी को रुपये जैसे घर में काटते हैं। जब तक रुपये के वारे-न्यारे न कर लें, इन्हें चैन नहीं। इनके करतूत कहाँ तक गाऊँ। मेरी तो नाक में दम आ गया। एक-न-एक मेहमान रोज यमराज की भाँति सिर पर सवार रहते हैं। न जाने कहाँ के बेफिक्रे इनके मित्र हैं। कोई कहीं से आकर मरता है, कोई कहीं से। घर क्या है, अपाहिजों का अड्डा है। जरा-सा तो घर, मुश्किल से दो पलंग, ओढ़ना-बिछौना भी फ़ालतू नहीं, मगर आप हैं कि मित्रों को निमंत्रण देने को तैयार ! आप तो अतिथि के साथ लेटेंगे, इसलिए इन्हें चारपाई भी चाहिए, ओढ़ना-बिछौना भी चाहिए, नहीं तो घर का परदा खुल जाय। जाता है मेरे बच्चों के सिर, गरमियों में तो खैर कोई मुजायका नहीं; लेकिन जाड़ों में तो ईश्वर ही याद आते हैं। गरमियों में भी खुली छत पर तो मेहमानों का अधिकार हो जाता है, अब मैं बच्चों को लिये पिंजड़े में पड़ी फड़फड़ाया करूँ। इन्हें इतनी समझ भी नहीं, कि जब घर की यह दशा है; तो क्यों ऐसों को मेहमान बनायें, जिनके पास कपड़े-लत्ते तक नहीं। ईश्वर की दया से इनके सभी मित्र इसी श्रेणी के हैं। एक भी ऐसा माई का लाल नहीं, जो समय पड़ने पर धेले से भी इनकी मदद कर सके। दो-एक बार महाशय को इसका अनुभव- अत्यंत कटु अनुभव हो चुका है; मगर इस जड़ भरत ने जैसे आँखें न खोलने की कसम खा ली है। ऐसे ही दरिद्र भट्टाचार्यों से इनकी पटती है। शहर में इतने लक्ष्मी के पुत्र हैं, पर आपका किसी से परिचय नहीं। उनके पास जाते इनकी आत्मा दुखती है। दोस्ती गाँठेंगे ऐसों से, जिनके घर में खाने का ठिकाना नहीं।
एक बार हमारा कहार, छोड़कर चला गया और कई दिन कोई दूसरा कहार, न मिला। किसी चतुर और कुशल कहार की तलाश में थी; किंतु आपको जल्द-से-जल्द कोई आदमी रख लेने की धुन सवार हो गयी। घर के सारे काम पूर्ववत् चल रहे थे, पर आपको मालूम हो रहा था कि गाड़ी रुकी हुई है। मेरा जूठे बरतन माँजना और अपना साग-भाजी के लिए बाज़ार जाना इनके लिए असह्य हो उठा। एक दिन जाने कहाँ से एक बाँगड़ू को पकड़ लाये। उसकी सूरत कहे देती थी कि कोई जाँगलू है; मगर आपने उसका ऐसा बखान किया, कि क्या कहूँ। बड़ा होशियार है, बड़ा आज्ञाकारी, परले सिरे का मेहनती, गजब का सलीकेदार और बहुत ही ईमानदार। खैर, मैंने उसे रख लिया। मैं बार-बार क्यों इनकी बातों में आ जाती हूँ, इसका मुझे स्वयं आश्चर्य है। यह आदमी केवल रूप से आदमी था। आदमियत के और कोई लक्षण उसमें न थे। किसी काम की तमीज नहीं। बेईमान न था; पर गधा अव्वल दरजे का। बेईमान होता, तो कम-से-कम इतनी तस्कीन तो होती कि खुद खा जाता है। अभागा दुकानदारों के हाथों लुट जाता था। दस तक की गिनती उसे न आती थी। एक रुपया देकर बाज़ार भेजूँ तो संध्या तक हिसाब न समझा सके। क्रोध पी-पीकर रह जाती थी। रक्त खौलने लगता था कि दुष्ट के कान उखाड़ लूँ, मगर इन महाशय को उसे कभी कुछ कहते नहीं देखा, डाँटना तो दूर की बात है। आप नहा-धोकर धोती छाँट रहे हैं और वह दूर बैठा तमाशा देख रहा है। मैं तो बचा का ख़ून पी जाती; लेकिन इन्हें जरा भी गम नहीं। जब मेरे डाँटने पर धोती छाँटने जाता भी, तो आप उसे समीप न आने देते। बस, उसके दोषों को गुण बनाकर दिखाया करते थे; और इस प्रयास में सफल न होते, तो दोषों पर परदा डाल देते थे। मूर्ख को झाड़ू लगाने की तमीज न थी। मरदाना कमरा ही तो सारे घर में ढंग का एक कमरा है। उसमें झाड़ू लगाता, तो इधर की चीज़ उधर, ऊपर की नीचे; मानो कमरे में भूकंप आ गया हो। और गर्द का यह हाल, कि साँस लेना कठिन; पर आप शांतिपूर्वक कमरे में बैठे हैं, जैसे कोई बात ही नहीं। एक दिन मैंने उसे खूब डाँटा- कल से ठीक-ठीक झाड़ू न लगाई तो कान पकड़ कर निकाल दूँगी। सबेरे सोकर उठी, तो देखती हूँ कमरे में झाड़ू लगी हुई है और हरेक चीज़ करीने से रखी हुई है। गर्दगुबार का नाम नहीं। मैं चकित होकर देखने लगी, तो आप हँसकर बोले- देखती क्या हो; आज घूरे ने बड़े सबेरे उठकर झाड़ू लगाई है। मैंने समझा दिया। तुम ढंग तो बताती नहीं, उलटे डाँटने लगती हो।
मैंने समझा। खैर, दुष्ट ने कम-से-कम एक काम तो सलीके से किया।अब रोज कमरा साफ-सुथरा मिलता। घूरे मेरी दृष्टि में विश्वासी बनने लगा। संयोग की बात एक दिन मैं जरा मामूल से सबेरे उठ बैठी और कमरे में आयी, तो क्या देखती हूँ कि घूरे द्वार पर खड़ा है, और आप तन-मन से कमरे में झाड़ू लगा रहे हैं। मेरी आँखो में ख़ून उतर आया। उनके हाथ से झाड़ू छीन कर घूरे के सिर जमा दी। हरामखोर को उसी दम निकाल बाहर किया। आप फरमाने लगे उसका महीना तो चुका दो। वाह री समझ। एक तो काम न करे, उस पर आँखें दिखाये। उस पर पूरी मजूरी भी चुका दूँ। मैंने एक कौड़ी भी न दी। एक कुरता दिया था, वह भी छीन लिया। इस पर जड़ भरत महाशय मुझसे कई दिन रूठे रहे। घर छोड़कर भागे जाते थे। बड़ी मुश्किलों से रुके। ऐसे-ऐसे भोंदू भी संसार में पड़े हुए हैं। मैं न होती, तो शायद अब तक इन्हें किसी ने बाज़ार में बेच दिया होता।
एक दिन मेहतर ने उतारे कपड़ों का सवाल किया। इस बेकारी के जमाने में फ़ालतू कपड़े तो शायद पुलिसवालों या रईसों के घर में हों, मेरे घर में तो ज़रूरी कपड़े भी काफ़ी नहीं। आपका वस्त्रालय एक बकची में आ जायगा, जो डाक के पारसल से कहीं भेजा जा सकता है। फिर इस साल जाड़ों के कपड़े बनवाने की नौबत न आयी। पैसे नजर नहीं आते, कपड़े कहाँ से बनें। मैंने मेहतर को साफ़ जवाब दे दिया। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था; इसका अनुभव मुझे कम न था। ग़रीबों पर क्या बीत रही है, इसका भी मुझे ज्ञान था। लेकिन मेरे या आपके पास खेद के सिवा इसका और क्या इलाज है। जब तक समाज का यह संगठन रहेगा, ऐसी शिकायतें पैदा होती रहेंगी। जब एक-एक अमीर और रईस के पास एक-एक मालगाड़ी कपड़ों से भरी हुई है, तब फिर निर्धनों को क्यों न नग्नता का कष्ट उठाना पड़े? खैर मैंने तो मेहतर को जवाब दे दिया, आपने क्या किया कि आपका कोट उठाकर उसको भेंट कर दिया। मेरी देह में आग लग गयी। इतनी दानशील नहीं हूँ कि दूसरों को खिलाकर आप सो रहूँ, देवता के पास यही एक कोट था। आपको इसकी जरा भी चिंता न हुई कि पहनेंगे क्या? यश के लोभ ने जैसे बुद्धि ही हर ली। मेहतर ने सलाम किया, दुआएँ दीं, और अपनी राह ली। आप कई दिन सर्दी से ठिठुरते रहे। प्रात:काल घूमने जाया करते थे। वह बंद हो गया। ईश्वर ने उन्हें हृदय भी एक विचित्र प्रकार का दिया है। फटे-पुराने कपड़े पहनते आपको जरा भी संकोच नहीं होता; मैं तो मारे लाज के गड़ जाती हूँ, पर आपको जरा फ़िक्र नहीं। कोई हँसता है, तो हँसे, आपकी बला से। अंत में जब मुझसे न देखा गया, तो एक कोट बनवा दिया। जी तो जलता था कि खूब सर्दी खाने दूँ; पर डरी कि कहीं बीमार पड़ जायें, तो और बुरा हो। आखिर काम तो उन्हीं को करना है।
महाशय अपने दिल में समझते होंगे, मैं कितना विनीत, कितना परोपकारी हूँ। शायद इन्हें इन बातों का गर्व हो। मैं इन्हें परोपकारी नहीं समझती, न विनीत ही समझती हूँ, यह जड़ता है, सीधी-सादी निरीहता। जिस मेहतर को आपने अपना कोट दिया, उसे मैंने कई बार रात को शराब के नशे में मस्त झूमता देखा है और आपको दिखा भी दिया है। फिर दूसरों की विवेकहीनता की पुरौती हम क्यों करें? अगर आप विनीत और परोपकारी होते, तो घरवालों के प्रति भी तो आपके मन में कुछ उदारता होती। या सारी उदारता बाहरवालों ही के लिए सुरक्षित है? घरवालों को उसका अल्पांश भी न मिलना चाहिए? मेरी इतनी अवस्था बीत गयी; पर इस भले आदमी ने कभी अपने हाथों से मुझे एक उपहार भी न दिया। बेशक मैं जो चीज़ बाज़ार से मँगवाऊँ; उसे लाने में इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं, बिलकुल उज्र नहीं, मगर रुपये मैं दे दूँ, यह शर्त है। इन्हें खुद कभी यह उमंग नहीं होती। यह मैं मानती हूँ कि बेचारे अपने लिए भी कुछ नहीं लाते। मैं जो कुछ मँगवा दूँ उसी पर संतुष्ट हो जाते हैं; मगर आखिर आदमी कभी-कभी शौक़ की चीज़ें चाहता ही है। अन्य पुरुषों को देखती हूँ, स्त्री के लिए तरह-तरह के गहने, भाँति-भाँति के कपड़े, शौक-सिंगार की वस्तुएँ लाते रहते हैं। यहाँ इस व्यवहार का निषेध है। बच्चों के लिए भी मिठाइयाँ, खिलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये हों। शपथ भी खा ली है; इसलिए मैं तो इन्हें कृपण कहूँगी, अरसिक कहूँगी, हृदय-शून्य कहूँगी, उदार नहीं कह सकती। दूसरों के साथ इनका जो सेवा-भाव है, उसका कारण है, इनका यश-लोभ और व्यावहारिक अज्ञानता। आपके विनय का यह हाल है कि जिस दफ़्तर में आप नौकर हैं, उसके किसी अधिकारी से आपका मेल-जोल नहीं। अफसरों को सलाम करना तो आपकी नीति के विरुद्ध है, नजर या डाली तो दूर की बात है। और तो और, कभी किसी अफसर के घर नहीं जाते। इसका ख़ामियाज़ा आप न उठायें, तो कौन उठाये। औरों को रिआयती छुट्टियाँ मिलती हैं, आपका वेतन कटता है; औरों की तरक्कियाँ होती हैं, आपको कोई पूछता भी नहीं; हाजिरी में पाँच मिनट की भी देर हो जाय, तो जवाब पूछा जाता है। बेचारे जी तोड़कर काम करते हैं, कोई बड़ा कठिन काम आ जाता है, तो इन्हीं के सिर मढ़ा जाता है, इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं। दफ़्तर में इन्हें ‘घिस्सू’, ‘पिस्सू’ आदि उपाधियाँ मिली हुई हैं, मगर पड़ाव कितना ही बड़ा मारें इनके भाग्य में वही सूखी घास लिखी है। यह विनय नहीं है, स्वाधीन मनोवृत्ति भी नहीं है, मैं तो इसे समय-चातुरी का अभाव कहती हूँ, व्यावहारिक ज्ञान की क्षति कहती हूँ। आखिर कोई अफसर आपसे क्यों प्रसन्न हो। इसलिए कि आप बड़े मेहनती हैं? दुनिया का काम मुरौवत और रवादारी से चलता है ! अगर हम किसी से खिंचे रहें, तो कोई कारण नहीं कि वह भी हमसे न खिंचा रहे। फिर जब मन में क्षोभ होता है, तो वह दफ़्तरी व्यवहारों में भी प्रकट हो ही जाता है। जो मातहत अफसर को प्रसन्न रखने की चेष्टा करता है, जिसकी जात से अफसर का कोई व्यक्तिगत उपकार होता है, जिस पर वह विश्वास कर सकता है, उसका लिहाज़ वह स्वभावत: करता है। ऐसे सिरागियों से क्यों किसी को सहानुभूति होने लगी। अफसर भी तो मनुष्य है। उसके हृदय में जो सम्मान और विशिष्टता की कामना है, वह कहाँ पूरी हो। जब अधीनस्थ कर्मचारी ही उससे फिरन्ट रहें, तो क्या उसके अफसर उसे सलाम करने आयेंगे? आपने जहाँ नौकरी की, वहाँ से निकाले गये। कभी किसी दफ़्तर में दो-तीन साल से ज़्यादा न टिके। या तो अफसर से लड़ गये, या कार्याधिक्य के कारण छोड़ बैठे।
आपको कुटुंब-सेवा का दावा है। आपके कई भाई-भतीजे होते हैं, वह कभी इनकी बात भी नहीं पूछते; आप बराबर उनका मुँह ताकते रहते हैं।
इनके एक भाई साहब आजकल तहसीलदार हैं। घर की मिल्कियत उन्हीं की निगरानी में है। वह ठाट से रहते हैं। मोटर रख ली है; कई नौकर-चाकर हैं मगर यहाँ भूले से भी पत्र नहीं लिखते। एक बार हमें रुपये की बड़ी तंगी हुई। मैंने कहा, अपने भ्राताजी से क्यों नहीं माँग लेते? कहने लगे उन्हें क्यों चिंता में डालूँ। उन्हें भी तो अपना खर्च है। कौन-सी ऐसी बचत हो जाती होगी। जब मैंने बहुत मजबूर किया; तो आपने पत्र लिखा। मालूम नहीं पत्र में क्या लिखा, पत्र लिखा या मुझे चकमा दे दिया; रुपये न आने थे, न आये। कई दिनों के बाद मैंने पूछा कुछ जवाब आया श्रीमान् के भाई साहब के दरबार से? आपने रुष्ट होकर कहा, अभी केवल एक सप्ताह तो खत पहुँचे हुए, अभी क्या जवाब आ सकता है। एक सप्ताह और गुजरा, मगर जवाब नदारद। अब आपका यह हाल है कि मुझे कुछ बातचीत करने का अवसर ही नहीं देते। इतने प्रसन्न-चित्त नजर आते हैं कि क्या कहूँ। बाहर से आते हैं तो खुश-खुश ! कोई-न-कोई शिगूफा लिये हुए। मेरी खुशामद भी खूब हो रही है, मेरे मैके वालों की प्रशंसा भी हो रही है, मेरे गृह-प्रबंध का बखान भी असाधारण रीति से किया जा रहा है। मैं इस महाशय की चाल समझ रही थी। यह सारी दिलजोई केवल इसलिए थी कि श्रीमान् के भाईसाहब के विषय में कुछ पूछ न बैठूँ। सारे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, आचारिक प्रश्नों की मुझसे व्याख्या की जाती थी, इतने विस्तार और गवेषणा के साथ, कि विशेषज्ञ भी लोहा मान जायें। केवल इसलिए कि मुझे वह प्रसंग उठाने का अवसर न मिले; लेकिन मैं भला कब चूकनेवाली थी। जब पूरे दो सप्ताह गुजर गये और बीमे के रुपये भेजने की मिती, मौत की तरह सिर पर सवार हो गयी तो मैंने पूछा क्या हुआ, तुम्हारे भाई साहब ने श्रीमुख से कुछ फरमाया या अभी तक पत्र नहीं पहुँचा? आखिर घर की जायदाद में हमारा भी कुछ हिस्सा है या नहीं? या हम किसी लौंडी-दासी की संतान हैं? पाँच सौ रुपये साल का नफा तो दस साल पहले था। अब तो एक हज़ार से कम न होगा, पर हमें कभी एक कानी कौड़ी भी नहीं मिली। मोटे हिसाब से हमें दो हज़ार मिलना चाहिए। दो हज़ार न हों, एक हज़ार हों, पाँच सौ हों, ढाई सौ हों, कुछ न हों, तो बीमा के प्रीमियम भर के तो हों। तहसीलदार साहब की आमदनी हमारी आमदनी की चौगुनी है, रिश्वतें भी लेते हैं; तो फिर हमारे रुपये क्यों नहीं देते? आप हें-हें, हाँ-हाँ, करने लगे। कहने लगे, वह बेचारे घर की मरम्मत करवाते हैं। बंधु-बांधवों का स्वागत-सत्कार करते हैं, नातेदारियों में भेंट-भाँट भेजते हैं। और कहाँ से लावें जो हमारे पास भेजें? वाह री बुद्धि ! मानो जायदाद इसीलिए होती है कि उसकी कमाई उसी में खर्च हो जाय। इस भले आदमी को बहाने गढ़ने भी नहीं आते। मुझसे पूछते मैं एक नहीं, हज़ार बता देती, एक-से-एक बढ़कर कह देते घर में आग लग गयी, सब कुछ स्वाहा हो गया था, या चोरी हो गयी, तिनका तक न बचा या दस हज़ार का अनाज भरा था, उसमें घाटा रहा, या किसी से फ़ौजदारी हो गयी, उसमें दिवाला पिट गया। आपको सूझी भी तो लचर-सी बात। तकदीर ठोंककर बैठ रही। पड़ोस की एक महिला से रुपये कर्ज़ लिए, तब जाकर काम चला। फिर भी आप भाई-भतीजों की तारीफ के पुल बांधते हैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती है। ऐसे कौरवों से ईश्वर बचाये।
ईश्वर की दया से आपके दो बच्चे हैं, दो बच्चियां भी हैं। ईश्वर की दया कहूँ; या कोप कहूँ। सब-के-सब उधमी हो गये हैं कि खुदा की पनाह ! मगर क्या मजाल है कि यह भोंदू किसी को कड़ी आँखो से देखें ! रात के आठ बजे गये हैं, युवराज अभी घूमकर नहीं आये। मैं घबरा रही हूँ, आप निश्चिंत बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। झल्लाई हुई जाती हूँ और अखबार छीनकर कहती हूँ, जाकर जरा देखते क्यों नहीं, लौंडा कहाँ रह गया? न जाने तुम्हारा हृदय कितना कठोर है। ईश्वर ने तुम्हें संतान ही न जाने क्यों दे दी। पिता का पुत्र के साथ कुछ तो धर्म है। तब आप भी गर्म हो जाते हैं। अभी तक नहीं आया? बड़ा शैतान है। आज बचा आते हैं, तो कान उखाड़ लेता हूँ। मारे हंटरों के खाल उधेड़कर रख दूँगा। यों बिगड़कर तैश के साथ आप उसे खोजने निकलते हैं। संयोग की बात, आप उधर जाते हैं, इधर लड़का आ जाता है। मैं पूछती हूँ, तू किधर से आ गया? तुझे वह ढूँढ़ने गये हुए हैं। देखना, आज कैसी मरम्मत होती है। यह आदत ही छूट जायगी। दाँत पीस रहे थे। आते ही होंगे ! छड़ी भी उनके हाथ में है। तुम इतने मन के हो गये हो कि बात नहीं सुनते ! आज आटे-दाल का भाव मालूम होगा। लड़का सहम जाता है और लैंप जलाकर पढ़ने बैठ जाता है। महाशयजी दो-ढाई घंटे के बाद लौटते हैं; हैरान, परेशान और बदहवास। घर में पाँव रखते ही पूछते हैं आया कि नहीं?
मैं उनका क्रोध उत्तेजित करने के विचार से कहती हूँ- आकर बैठा तो है, जाकर पूछते क्यों नहीं? पूछकर हार गयी, कहाँ गया था, कुछ बोलता ही नहीं।
आप गरजकर कहते हैं- मन्नू, यहाँ आओ।
लड़का थरथर काँपता हुआ आकर आँगन में खड़ा हो जाता है। दोनों बच्चियाँ घर में छिप जाती हैं कि कोई बड़ा भयंकर कांड होने वाला है। छोटा बच्चा खिड़की से चूहे की तरह झाँक रहा है। आप क्रोध से बौखलाये हुए हैं। हाथ में छड़ी है ही, मैं भी वह क्रोधोन्मत्त आकृति देखकर पछताने लगती हूँ, कि कहाँ से इनसे शिकायत की? आप लड़के के पास जाते हैं, मगर छड़ी जमाने के बदले आहिस्ते से उसके कंधों पर हाथ रखकर बनावटी क्रोध से कहते हैं- तुम कहाँ गये थे जी? मना किया जाता है, मानते नहीं हो। खबरदार, जो अब कभी इतनी देर होगी। आदमी शाम को घर चला आता है, या मटरगश्ती करता है?
मैं समझ रही हूँ कि यह भूमिका है। विषय अब आयेगा। भूमिका तो बुरी नहीं; लेकिन यहाँ तो भूमिका पर इति हो जाती है। बस, आपका क्रोध शांत हो गया। बिलकुल जैसे क्वार की घटा घेर-घार हुआ, काले बादल आये, गड़गड़ाहट हुई और गिरी क्या चार बूँदें ! लड़का अपने कमरे में चला जाता है और शायद खुशी से नाचने लगता है।
मैं पराभूत होकर कहती हूँ- तुम तो जैसे डर गये। भला दो-चार तमाचे तो लगाये होते ! इसी तरह तो लड़के शेर हो जाते हैं।
आप फरमाते हैं- तुमने सुना नहीं, मैंने कितने ज़ोर से डाँटा ! बचा की जान ही निकल गयी होगी। देख लेना, जो फिर कभी देर में आए।
‘तुमने डाँटा तो नहीं, हाँ, आँसू पोंछ दिये।’
‘तुमने मेरी डाँट सुनी नहीं?’
‘क्या कहना है, आपकी डाँट का ! लोगों के कान बहरे हो गये। लाओ, तुम्हारा गला सहला दूँ।’
आपने एक नया सिद्धांत निकाला है कि दंड देने से लड़के ख़राब हो जाते हैं। आपके विचार से लड़कों को आज़ाद रहना चाहिए। उन पर किसी तरह का बंधन, शासन या दबाव न होना चाहिए। आपके मत से शासन बालकों के मानसिक विकास में बाधक होता है। इसी का यह फल है कि लड़के बे-नकेल के ऊँट बने हुए हैं। कोई एक मिनट भी किताब खोलकर नहीं बैठता। कभी गुल्ली-डंडा है, कभी गोलियाँ, कभी कनकौवे। श्रीमान भी लड़कों के साथ खेलते हैं, चालीस साल की उम्र और लड़कपन इतना। मेरे पिताजी के सामने मजाल थी कि कोई लड़का कनकौवा उड़ा ले, या गुल्ली-डंडा खेल सके। ख़ून पी जाते। प्रात:काल से लड़कों को लेकर बैठ जाते थे। स्कूल से ज्यों ही लड़के आते, फिर ले बैठते थे। बस, संध्या समय आधा घंटे की छुट्टी देते थे। रात को फिर जोत देते। यह नहीं कि आप तो अखबार पढ़ा करें और लड़के गली-गली भटकते फिरें। कभी-कभी आप सींग कटाकर बछड़े बन जाते हैं। लड़कों के साथ ताश खेलने बैठा करते हैं। ऐसे बाप का भला लड़कों पर क्या रोब हो सकता है? पिताजी के सामने मेरे भाई सीधे ताक नहीं सकते थे। उनकी आवाज़ सुनते ही तहलका मच जाता था। उन्होंने घर में क़दम रखा और शांति का साम्राज्य हुआ। उसके सम्मुख जाते लड़कों के प्राण सूखते थे। उसी शासन की यह बरकत है कि सभी लड़के अच्छे-अच्छे पदों पर पहुँच गये। हाँ, स्वास्थ्य किसी का अच्छा नहीं है। तो पिताजी ही का स्वास्थ्य कौन बड़ा अच्छा था ! बेचारे हमेशा किसी-न-किसी औषधि का सेवन करते रहते थे। और क्या कहूँ; एक दिन तो हद ही हो गयी। श्रीमानजी लड़कों को कनकौवा उड़ाने की शिक्षा दे रहे थे यों घुमाओ, यों गोता दो, यों खींचो, यों ढील दो। ऐसा तन-मन से सिखा रहे थे मानो गुरु-मंत्र दे रहे हों। उस दिन मैंने इनकी ऐसी खबर ली कि याद करते होंगे- तुम कौन होते हो, मेरे बच्चों को बिगाड़ने वाले ! तुम्हें घर से कोई मतलब नहीं है, न हो; लेकिन आप मेरे बच्चों को ख़राब न कीजिए। बुरी-बुरी आदतें न सिखाइए। आप उन्हें सुधार नहीं सकते, तो कम-से-कम बिगाड़िए मत। लगे बगलें झाँकने। मैं चाहती हूँ, एक बार यह भी गरम पड़ें, तो अपना चंडी रूप दिखाऊँ, पर यह इतना जल्द दब जाते हैं कि मैं हार जाती हूँ। पिताजी किसी लड़के को मेले-तमाशे न ले जाते थे। लड़का सिर पटककर मर जाय, मगर जरा भी न पसीजते थे और इन महात्माजी का यह हाल है कि एक-एक से पूछकर मेले ले जाते हैं चलो, चलो, वहाँ बड़ी बहार है, खूब आतिशबाजियाँ छूटेंगी, गुब्बारे उड़ेंगे, विलायती चर्खियाँ भी हैं। उन पर मजे से बैठना। और तो और, आप आप लड़कों को हाकी खेलने से भी नहीं रोकते। यह अंग्रेजी खेल भी कितने जानलेवा होते हैं, क्रिकेट, फुटबाल, हाकी एक-से-एक घातक। गेंद लग जाय तो जान लेकर ही छोड़े; पर आपको इन सभी खेलों से प्रेम है। कोई लड़का मैच में जीतकर आ जाता है, तो ऐसे फूल उठते हैं, मानो किला जीतकर आया हो। आपको इसकी जरा भी परवाह नहीं कि चोट-चपेट आ गयी, तो क्या होगा। हाथ-पाँव टूट गये, तो बेचारों की ज़िंदगी कैसे पार लगेगी !
पिछले साल कन्या का विवाह था। आपको ज़िद थी कि दहेज के नाम कानी कौड़ी भी न देंगे, चाहे कन्या आजीवन क्वाँरी बैठी रहे। यहाँ भी आपका आदर्शवाद आ कूदा। समाज के नेताओं का छल-प्रपंच आये दिन देखते रहते हैं, फिर भी आपकी आँखें नहीं खुलतीं। जब तक समाज की यह व्यवस्था क़ायम है और युवती कन्या का अविवाहित रहना निंदास्पद है, तब तक यह प्रथा मिटने की नहीं। दो-चार ऐसे व्यक्ति भले ही निकल आवें जो दहेज के लिए हाथ न फैलावें; लेकिन इसका परिस्थिति पर कोई असर नहीं पड़ता और कुप्रथा ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। पैसों की तो कमी नहीं है, दहेज की बुराइयों पर लेक्चर दे सकते हैं; लेकिन मिलते हुए दहेज को छोड़ देनेवाला मैंने आज तक न देखा। जब लड़कों की तरह लड़कियों की शिक्षा और जीविका की सुविधाएँ निकल आयेंगी, तो यह प्रथा भी विदा हो जायगी। उसके पहले संभव नहीं। मैंने जहाँ-जहाँ संदेश भेजा दहेज का प्रश्न उठ खड़ा हुआ और आपने प्रत्येक अवसर पर टाँग अड़ाई। अब इस तरह पूरा साल गुजर गया और कन्या को सत्रहवाँ लग गया, तो मैंने एक जगह बात पक्की कर ली। आपने भी स्वीकार कर लिया, क्योंकि वरपक्ष ने लेन-देन का प्रश्न उठाया ही नहीं, हालाँकि अंत:करण में उन लोगों को पूरा विश्वास था कि अच्छी रकम मिलेगी और मैंने भी तय कर लिया था कि यथाशक्ति कोई बात उठा न रखूँगी। विवाह के सकुशल होने में कोई संदेह न था; लेकिन इन महाशय के आगे मेरी एक न चली यह प्रथा निंद्य है, यह रस्म निरर्थक है, यहाँ रुपये की क्या ज़रूरत? यहाँ गीतों का क्या काम? नाक में दम था। यह क्यों, वह क्यों, यह तो साफ़ दहेज है, तुमने मेरे मुँह में कालिख लगा दी, मेरी आबरू मिटा दी। जरा सोचिए इस परिस्थिति को कि बारात द्वार पर पड़ी हुई है और यहाँ बात-बात पर शास्त्रार्थ हो रहा है। विवाह का मुहूर्त आधी रात के बाद था। प्रथानुसार मैंने व्रत रखा; किंतु आपकी टेक थी कि व्रत की कोई ज़रूरत नहीं। जब लड़के के माता-पिता व्रत नहीं रखते, जब लड़का तक व्रत नहीं रखता, तो कन्या पक्षवाले ही व्रत क्यों रखें ! मैं और सारा ख़ानदान मना करता रहा; लेकिन आपने नाश्ता किया, भोजन किया। खैर ! कन्या-दान का मुहूर्त आया। आप सदैव से इस प्रथा के विरोधी हैं। आप इसे निषिद्ध समझते हैं। कन्या क्या दान की वस्तु है? दान रुपये-पैसे, जगह-जमीन का हो सकता है। पशु-दान भी होता है लेकिन लड़की का दान ! एक लचर सी बात है। कितना समझाती हूँ; पुरानी प्रथा है, वेद-काल से होती चली आई है, शास्त्रों में इसकी व्यवस्था है; संबंधी समझा रहे हैं, पंडित समझा रहे हैं, पर आप हैं, कि कान पर जूं नहीं रेंगती। हाथ जोड़ती हूँ, पैरों पड़ती हूँ, गिड़गिड़ाती हूँ, लेकिन मंडप के नीचे न गये। और मजा यह है कि आपने ही तो यह अनर्थ किया और आप ही मुझसे रूठ गये। विवाह के पश्चात् महीनों बोलचाल न रही। झक मारकर मुझी को मानना पड़ा।
किंतु सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इन सारे दुर्गुणों के होते हुए भी मैं इनसे एक दिन भी पृथक् नहीं रह सकती- एक क्षण का वियोग नहीं सह सकती। इन सारे दोषों पर भी मुझे इनसे प्रगाढ़ प्रेम है। इनमें यह कौन-सा गुण है, जिस पर मैं मुग्ध हूँ, मैं खुद नहीं जानती; पर इनमें कोई बात ऐसी है, जो मुझे इनकी चेरी बनाये हुए है। वह जरा मामूली सी देर में घर आते हैं, तो प्राण नहों में समा जाते हैं। आज यदि विधाता इनके बदले मुझे कोई विद्या और बुद्धि का पुतला, रूप और धन का देवता भी दे, तो मैं उसकी ओर आँखें उठाकर न देखूँ। यह धर्म की बेड़ी नहीं है, कदापि नहीं। प्रथागत पतिव्रत भी नहीं; बल्कि हम दोनों की प्रकृति में कुछ ऐसी क्षमताएँ, कुछ व्यवस्थाएँ उत्पन्न हो गयी हैं, मानो किसी मशीन के कल-पुरजे घिस-घिसाकर फिट हो गये हों, और एक पुरजे की जगह दूसरा पुरजा काम न दे सके, चाहे वह पहले से कितना ही सुडौल, नया और सुदृढ़ क्यों न हो। जाने हुए रास्ते से हम नि:शंक आँखें बंद किये जाते हैं, उसके ऊँच-नीच, मोड़ और घुमाव सब हमारी आँखो में समाये हुए हैं। अनजान रास्ते पर चलना कितना कष्ट प्रद होगा। शायद आज मैं इनके दोषों को गुणों से बदलने पर भी तैयार नहीं हूं।
सोर्स – प्रेम मंजूषा ( प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां )
चयन एवं सम्पादन – अमृतराय
पृष्ट संख्या – दूध का दाम ( 136 )
गिला ( 143 )
मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ समाज की विभिन्न समस्याओं और मानवीय भावनाओं को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती हैं।
1.दूध का दाम – यह कहानी मानवीय करुणा, परिश्रम और न्याय की भावना को दर्शाती है। कहानी में एक गरीब किसान गोपाल की कहानी है, जो अपनी गाय का दूध बेचने के लिए शहर आता है। वह एक संपन्न व्यापारी के घर जाकर दूध बेचता है, लेकिन व्यापारी दूध का उचित मूल्य नहीं देता। गोपाल को लगता है कि उसने अपनी मेहनत और ईमानदारी से जो दूध दिया है, उसका सही दाम उसे मिलना चाहिए। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने समाज में गरीबों के साथ होने वाले अन्याय और उनके शोषण पर तीखा व्यंग्य किया है। कहानी यह संदेश देती है कि मेहनत और ईमानदारी का सही मूल्य मिलना चाहिए, चाहे व्यक्ति कितना ही गरीब क्यों न हो।
2 – गिला – “गिला” कहानी मानवीय रिश्तों की उलझनों और उनमें उपजने वाली शिकायतों को दर्शाती है। इस कहानी में प्रेमचंद ने पति-पत्नी के बीच के संबंधों को दिखाया है, जहां दोनों एक-दूसरे से शिकायतें रखते हैं, लेकिन उनके बीच का प्रेम भी बना रहता है। कहानी में दिखाया गया है कि छोटी-छोटी शिकायतें (गिला) और नाराजगियाँ रिश्तों में तनाव उत्पन्न करती हैं, लेकिन यह रिश्तों की मजबूती का भी एक हिस्सा होती हैं। प्रेमचंद इस कहानी के माध्यम से रिश्तों की गहराई और उनके भीतर छिपी भावनाओं को उजागर करते हैं।
लेखनशाला – मुंशी प्रेमचंद की ये कहानियाँ हमारे समाज की वास्तविकताओं और मानवीय भावनाओं की सजीव झलक पेश करती हैं। उनके लेखन में सरलता और गहराई का अनूठा मिश्रण है, जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है।
जीवन परिचय
उपनाम :’प्रेमचंद’
मूल नाम :धनपत राय श्रीवास्तव
भाषा – उर्दू और हिंदी
जन्म :31 जुलाई 1880 | लमही, उत्तर प्रदेश
निधन :8 अक्तूबर 1936 | बनारस, उत्तर प्रदेश
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के पास लमही नामक गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। नाम रखा गया धनपतराय श्रीवास्तव। पिता का नाम मुंशी अजायबलाल और माता का नाम आनंदी देवी था। किसानी से गुज़ारा न होता था तो पिता ने डाकख़ाने में 20 रुपए पगार पर मुंशी की नौकरी कर ली थी। सात वर्ष के थे तो माता का देहांत हो गया और पिता ने दूसरा विवाह कर लिया। पंद्रह की आयु में उनका विवाह करा दिया गया और सोलह की आयु में पिता चल बसे।
उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव के मदरसे में हुई। गाँव में रहते थे और हाई स्कूल की पढ़ाई करने शहर जाते थे। ट्यूशन पढ़ाते थे और रात में कुप्पी जलाकर ख़ुद पढ़ते थे। दसवीं पास कर कॉलेज में दाख़िला लिया। मेहनत बहुत करनी पड़ती थी। हिसाब की परीक्षा में दो बार फ़ेल हुए। फिर शहर में रहने लगे। एक वकील के लड़के को ट्यूशन पढ़ाते थे और अस्तबल के ऊपर कच्ची कोठरी में रहते थे। पढ़ने-लिखने का चस्का पहले ही लग चुका था। उन्होंने स्वयं लिखा है, ‘‘इस वक़्त मेरी उम्र कोई तेरह साल की रही होगी। हिंदी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने का उन्माद था… उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी वहीं के मिशन स्कूल में आठवीं में पढ़ता था, जो तीसरा दरजा कहलाता था। रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दूकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दूकान से अँग्रेज़ी पुस्तकों की कुंजियाँ और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और इसकी एवज़ में उपन्यास दूकान से घर लाकर पढ़ता था। दो-तीन वर्षों में सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे…’’
दसवीं की परीक्षा क्वींस कॉलेज, बनारस से पास की 18 रुपए मासिक पर अध्यापक की नौकरी करने लगे थे। इस दौरान बहराइच, प्रतापगढ़, महोबा, गोरखपुर, कानपुर, इलाहाबाद —कई शहरों में रहना हुआ। प्रोन्नति भी मिली और स्कूल इंस्पेक्टर बन गए। 1904 में उर्दू और हिंदी में विशेष वर्नाकुलर परीक्षा पास कर ली थी। स्वाध्याय से हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अँग्रेज़ी का ज्ञान भी बढ़ा रहे थे। फ़रवरी 1921 में गाँधी जी इलाहबाद आए। वह देश से असहयोग की माँग कर रहे थे। प्रेमचंद भी सरकारी नौकरी छोड़ आंदोलन में शरीक़ हो गए। पहले वह महावीर प्रसाद पोद्दार के साथ चर्खे का प्रचार करते रहे, फिर कई निजी संस्थानों में अध्यापकी की। इस बीच पत्रकारिता भी शुरू कर दी थी। पहले ‘मर्यादा’ पत्रिका का संपादन किया, फिर सरस्वती प्रेस की स्थापना से संलग्न हुए। इसी सरस्वती प्रेस से आगे ‘हंस’ और ‘जागरण’ का प्रकाशन किया। आगे उन्होंने गंगा पुस्तक माला के साहित्यिक सलाहकार, ‘माधुरी’ पत्रिका के संपादक और हिंदुस्तानी अकादेमी के काउंसिल सदस्य के रूप में भी योगदान दिया। वह प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्ष भी रहे थे।
प्रेमचंद ने अपना साहित्यिक सफ़र एक उपन्यासकार और आलोचक की हैसियत से शुरू किया था। उनका पहला उपन्यास 1901 में प्रकाशित हुआ और दूसरा 1904 में। वह तब उर्दू में लिखते थे और उनका नाम था नवाब राय। उन्होंने 1907 से कहानियाँ लिखना भी शुरू कर दिया था। वे आरंभिक कहानियाँ उस ज़माने की मशहूर पत्रिका ‘ज़माना’ में प्रकाशित हुईं। उनका पहला कहानी-संग्रह ‘ सोज़े वतन’ तब प्रकाशित हुआ जब प्रथम विश्वयुद्ध की तैयारियाँ ज़ोरों पर थी। इस संग्रह को अँग्रेज़ शासक द्वारा ख़तरे के रूप में देखा गया और लेखक को इसकी पाँच सौ प्रतियों को आग लगा देने के लिए मजबूर किया गया। यहीं से फिर प्रेमचंद ने नवाबराय नाम छोड़कर प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया। उन्हें यह नाम उर्दू लेखक और संपादक दयानारायण निगम ने दिया था। युद्धकाल में ही उन्होंने अपना पहला महान उपन्यास ‘सेवा सदन’ लिखा और युद्ध की समाप्ति पर ‘प्रेमाश्रम’ भी पूरा कर लिया था। हिंदी में जब ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ तो हिंदी संसार में धूम मच गई। ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ को इतनी तारीफ़ उर्दू में नहीं मिली थी। इसी क्रम में प्रेमचंद ने रंगभूमि उपन्यास की रचना पहले हिंदी में की, फिर उसे उर्दू में प्रकाशित करवाया। वह अब हिंदी और उर्दू दोनों में लिखने लगे थे, जहाँ कभी पहले उर्दू में लिखकर उसे हिंदी में ढालते थे तो कभी हिंदी में लिखकर उसे उर्दू में भी ले जाते थे।
हिंदी-उर्दू में प्रेमचंद की विशेष ख्याति एक उपन्यासकार के रूप में है। उन्हें हिंदी समाज में प्रेमपूर्वक ‘उपन्यास सम्राट’ पुकारा जाता है। उनके उपन्यास समाज के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करते हैं। हिंदी उपन्यास के इतिहास में उनके के समय को ‘प्रेमचंद युग’ के नाम से जाना जाता है। वह हिंदी के अत्यंत लोकप्रिय कहानीकार भी हैं। जयशंकर प्रसाद के साथ वह हिंदी कहानी की विकास यात्रा में एक युग का निर्माण करते हैं। उन्होंने उद्देश्यपरक कहानियाँ लिखी हैं जहाँ जीवन की सच्चाई को भाषा की सहजता-सरलता में प्रकट किया है। नाटक विधा में भी उनकी रुचि रही थी और इस क्रम में उन्होंने तीन नाटकों की रचना की, जबकि कुछ नाटकों का अनुवाद भी किया। लेखन के आरंभिक दौर में उन्होंने टैगोर की कहानियों का भी अनुवाद किया था।
प्रेमचंद ने विपुल मात्रा में वैचारिक गद्य भी लिखा जो उस दौर की प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। स्वयं एक संपादक और पत्रकार के रूप में उन्होंने समय और समाज के मसलों पर गंभीर टिप्पणियों के रूप में योगदान किया।
प्रेमचंद की रचनाओं का देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनकी रचनाओं पर फ़िल्म, टीवी सीरीज़ का निर्माण हुआ है और उनके नाट्य-मंचन किए गए हैं।
प्रमुख कृतियाँ
उपन्यास : सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, प्रतिज्ञा, गबन, कर्मभूमि, गोदान, मंगलसूत्र (अपूर्ण)।
कहानी-संग्रह : सप्तसरोज, नवनिधि, समरयात्रा, मानसरोवर (आठ खंडों में प्रकाशित)।
चर्चित कहानियाँ : दो बैलों की कथा, ईदगाह, ठाकुर का कुआँ, पूस की रात, कफ़न, बूढ़ी काकी, पंच परमेश्वर, दो बैलों की कथा, बड़े घर की बेटी, नमक का दारोग़ा, कर्मों का फल, बलिदान, शतरंज के खिलाड़ी।
नाटक : संग्राम, कर्बला, बलिदान।
बाल-साहित्य : रामकथा, कुत्ते की कहानी, मनमोदक।
कथेतर साहित्य: प्रेमचंद: विविध प्रसंग, प्रेमचंद के विचार (तीन खंडों में प्रकाशित) साहित्य का उद्देश्य, चिट्ठी-पत्री (दो खंडों में पत्रों का संग्रह)।
अनुवाद : (अहंकार) अनातोल फ़्रांस के नॉवेल ‘दइस’ का भावानुवाद, (आज़ाद कथा) रतन नाथ धर सरशार के ‘फ़साना-ए-आज़ाद’ का अनुवाद, (चाँदी की डिबिया) जॉन गाल्सवर्दी के ‘द सिल्वर बॉक्स’ का अनुवाद, टॉलस्टॉय की कहानियाँ।