प्रतिशोध हिंदी कविता – मोहन तिवारी

प्रतिशोध

प्रतिशोध की ज्वाला में,

हर जाती है विवेक की बुद्धि।

अपने ही बन जाते हैं पराये,

रहती नहीं कर्म में शुद्धि।

 

अहम भाव पहुँचता है चर्म पर,

ढह जाती है नींव लगाव की।

बढ़ जाती है गैर की मध्यस्थता में,

बहती है हवा पड़ोस के प्रभाव की।

 

हो जाती है प्रतिशोध मे शामिल,

गीदड़ों की दहाड़ भी।

समाधान रहता चुटकी भर का,

रह जाता है छोटा पहाड़ भी।

 

थे न कभी जो हमारे,

वे ही बन जाते हैं समर्थक आकर।

जरूरत क्या थी दखल अंदाजी की,

सोचिये आ गये क्यों दूर जाकर।

 

प्रतिशोध जला देता है सर्वस्व,

घटा देता है अपना ही वर्चस्व।

निर्णय में जरूरी है समझदारी

बुझ जाती है स्वयं ही चिंगारी।

– मोहन तिवारी, मुंबई

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