परोपकार वृक्ष
एक परोपकार वृक्ष को जब – जब देखती हूं मन ही मन में तब एक बात को अक़्सर मैं सोचती हूं। कि नहीं है इसे कोई चाह किसी से कुछ लेने की बस सहनशीलता हैं इसमे भरी लाख तपिश सहकर दूसरों को सदैव खुशहाल रखने की ना सर्द में इसे मैं मायूस देखती हूं ना तेज तुफान के आने पर मैं इसके अंदर कोई अकुलाहट देखती हूं तब बड़ी नम्रता से मैं एक आकृति को हु बहु निर्भीकता से अपने समक्ष देखती हूं ये वृक्ष की कहानी को तब मैं इस कदर समझती हूं कि ईश्वर का दिया यह एकमात्र अनुपम उपहार हैं हां यह वही परोपकार वृक्ष है जिससे फला फूला संसार हैं फिर मेरी लेखनी की धार उस ओर मुड़ जाती हैं क्या मनुज को इतनी बड़ी नादानी करते वक्त थोड़ी सी भी दया ना आती हैं जो स्वंय हैं रक्षक उसके जीवन की भला उसको ही क्यूं वो भक्षक कर जाते है जिससे मानव को भरपूर रुप से ऑक्सीजन हैं मिलते भला उसी वृक्ष को दिन प्रतिदिन काट वो गिराते हैं अरे मानव? कब सुधरोगे रोकोगे अपनी नादानी अभी है वक्त सुधर जाओ नहीं तो बात में तेरे पछतावे की ना कोई सुनेगा कोई कहानी यह परोपकार वृक्ष के ऊपर वक्त रहते तुम भी करदो नेकपन की एक मेहरबानी।
– रितु झा वत्स
बिहार जिला-सुपौल
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