अच्छा नहीं है,
खेल ये हाथों की लकीरों का।
दिल मिलते ही क्यों हैं यहां,
जब मेल नहीं तकदीरों का।
ये इंतजार अब मरने के बाद ही,
खत्म होगा।
मंजिल तो सामने है, मगर
क्या करूं पैरों में पड़ी जंजीरों का।
हम दोनों लिख जाएंगे कुछ ऐसा,
इक ग्रंथ नया।
याद रखेगी दुनिया हमेशा
सार उसमें लिखी तहरीरों का।
ऐ साहिब,
कुछ ख्वाब अधूरे ही अच्छे लगते हैं।
होता है रंग बहुत गहरा
इन प्यार भरी तस्वीरों का।
– सुशी सक्सेना
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