आवाज
नींद में भी उठती हैं आवाजें
वाणी भी तो बंधी है किनारों में,
शब्द कब पहुँच पाते हैं?
प्रत्येक पूर्वा ग्रहों में।
कितनी पुकारें
अनसुनी रहकर
परत दर परत की निस्तब्धता
में समा रही है।
समयावधि में कृष्ण विवर से
टकराकर,
कोई रश्मि किरण
प्रत्यागत नही होती।
वे सारे शब्द, निर्देश
वर्ण और आवाजें,
जो अब तक कहे,
और न सुने गये।
उनके आविर्भाव का
कोई निशान तलाशती है,
यह मौन का प्रहर
यह अकेलापन,बड़ा ही अद्भुत है।
इसमें कल्पनाओं की
क्षणिका विद्यमान है,
कृष्ण विवर- जहाँ से प्रकाश की किरणें भी नही लौटती।
– डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा‘
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल, मध्यप्रदेश