कोरे कागज सा मन,
सुर्ख रंग से सजी देह,
मुख पर दमकता अर्क सा तेज,
लड़ जीवन के जद्दोजहद से,
जल रही थी चिता में,
एक सुहागन की विधवा देह।
छोड़ गई सब आधा अधूरा,
सुहाग की निशानी बनी थी बेड़ियां जिसकी,
ढूंढती प्रेम ,मांगती अधिकार,
धुएं में विलीन हुई एक स्त्री की गुहार।
रिश्तों में छली गई,
घर के भीतर अस्मियत कुचली गई,
उठाई जो आवाज दामन में,
चरित्रहीनता थोपी गई।
सहज स्वीकार नहीं था,
मौन मृत्यु का चुनाव,
बाहर नोच खाने को दुनिया खड़ी थी,
भीतर खुद से खुद की जंग चल रही थी।
कई वर्षों से चल रहा जीवन का संघर्ष,
एक लंबी रात के आगे,
यूं ही सब शून्य सा ठहर गया।
देखकर भीड़ के झूठे प्रेम विलाप,
मुस्कुरा रही थी चिता की राख,
खैर,छोड़ कर दुनिया से उम्मीद,
अंततः, गंगा में विलीन हो,
मुक्त हुई रूह।
– सोनिका शुक्ला