लेखक परिचय
नाम: राजदेव मण्डल, जन्म: 15 मार्च 1960 ईं.मे। पिता: स्व. सोनेलाल मण्डल, माता: स्व. फूलवती देवी, पत्नी: श्रीमती चन्द्रप्रभा देवी, पुत्र: निशान्त मण्डल, कृष्णकान्त मण्डल, विप्रकान्त मण्डल, पुत्री: रश्मि कुमारी।
मातृक: बेलहा (फुलपरास, मधुबनी) मूलगाम: मुसहरनियाँ, पोस्ट- रतनसारा, भाया-नरहिया, जिला- मधुबनी। बिहार- 847108,
शिक्षा: एम.ए. द्वय (मैथिली, हिन्दी, एल.एल.बी)
ई पत्र: rajdeokavi@gmail.com
सम्मान: पद्मश्री डॉ. लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति सम्मान- 2021, सुभद्रा कुमारी चौहान जन्म शताब्दी सम्मान- 2004, हिन्दी सेवी सम्मान- 2005, विदेह समानांतर साहित्य अकादेमी पुरस्कार- 2012, वैदेह सम्मान- 2013’, कौशिकी साहित्य सम्मान- 2016
प्रकाशित कृति: (1) अम्बरा- कविता संग्रह (2010), (2) बसुंधरा कविता संग्रह (2013), (3) हमर टोल- उपन्यास (2013), (4) जाल- पटकथा (2015), (5) जल भँवर- उपन्यास (2017), (6) लाज- एकांकी (2017), (7) पंचैती- एकांकी (2017), (2) त्रिवेणीक रंग- कथा (2021) तथा ‘राजदेव प्रियंकर’ नामसँ हिंदीमे प्रकाशित कृति: (1) जिन्दगी और नाव- उपन्यास (1991), (2) पिंजरे के पंछी- उपन्यास (1994), (3) लाशों का हंगामा- उपन्यास (1995), (4) दरका हुआ दर्पण- उपन्यास (2001), जीवन संग्राम- उपन्यास (2020), (1) मिट्टी और चाक- उपन्यास (2024)
रचना –
दू टा कविता, दू टा कथा (कहानी)
अकाल
परसाल तँ बचलौं बाल-बाल
ऐबेर धऽ लेलक असुर अकाल
खाली पेट नै फुटतै गाल
सबहक भेल अछि हाल-बेहाल।
हर-हर पुरबा बहि रहल अछि
कानि-कानि काका कहि रहल अछि-
झर-झर आगि बरिस रहल अछि
धानक बीआ झड़कि रहल अछि।
पियाससँ धरती फाटि रहल अछि
मवेशी दूबिकेँ चाटि रहल अछि
केतेको माससँ नै खसल एको बून पानि
की भेलै केना भेलै से नै जानि
अपनहि उजारलहक अपन सुख-चैन
गाछ कटौलहक फानि-फानि।
जलक महत बुझए पड़त
नै तँ ई दुख सहए पड़त
काल चढ़ए तँ बिगड़ए बानि
घुन सँगे सतुआ देलहक सानि
चारूभर पसरल घुसखोरबा पापी
खसल पड़ल अछि पूरा चापी
टक-टक तकैत अछि अफारे खेत
पानि बिनु उड़ैत अछि सूखल रेत
पछिला करजासँ हाल-बेहाल
ऐबेर बिका जाएत देहक खाल
नै रोपल जाएत एको कट्ठा धान
केना कऽ बचत सालभरि प्राण
ऊपर अछि धूरा भरल आसमान
नीचा अछि परिवारक मान-सम्मान।
लोक कहैत अछि-
धीरज धरह सरकार देतह
हम कहैत छी-
तेजगर लोक सभटा खेतह
रहब छूच्छे केर छूच्छे
आमजनकेँ केतौ ने कियो पूछए
बाहर केतए जाएब यौ भाय बेंगू
परदेशमे धऽ लेत डेंगू
ने खेबाक नीक आ ने सुतबाक ठीक
जेबीसँ पाइ लेत उचक्का झपटि-झींक
कियो लेत बेचि कियो लेत कीनि
ठामहि रहि जाएत कपार परक ऋृण
केतए बेचब केतएसँ आनब
पाइ नै रहत तँ कथी लऽ कऽ फानब।
आब अछि आशा अगिला जेठ
यौ अन्नदाता घटा दियौ अन्नक रेट
सभ काटि रहल एक-दोसरकेँ घेंट
केना कऽ भरतै सबहक पेट।
मनमे छल चाह
धियाकेँ करब बिआह
धऽ लेलक अकालक ग्राह
आब केना कऽ करब निरवाह
केना कऽ पढ़तै धिया-पुता
फाटल वस्त्र आ टुटल जूत्ता
देहमे नै बचल आब तागत-बुत्ता
दुआरिपर कनैत अछि भूखल कुत्ता।
सभमे परिवर्त्तन सभमे उत्थान
ठामहिपर अछि हमर गहुम-धान
धन्य हे ज्ञान धन्य विज्ञान
हमरो दिस दियौ एकबेर धियान
वएह खेत-पथार, वएह खरिहान
घरो छै टुटले केतए देखबै मकान
केतए बेचबै केतए रखबै धान
नै छै बजार नै छै गोदाम
वएह खाद-बीआ ओहिना पानिक दाम
वएह हड़-बड़द ओहिना बथान।
यौ सरकार करू जलक प्रबन्ध
फेर उठतै धरासँ धानक गन्ध
दमकल, नलकूपक करू उपाय चन्द
धार-नदीपर करू तटबन्ध।
हम छी ऐ अंचलक किसान
देशक बढ़ेबाक अछि मान-सम्मान
बचेबाक अछि सबहक प्राण
भूखसँ दिएबाक अछि त्राण
हम करब संघर्ष नै छी बेजान
फेरसँ गाएब कृषि गान।
घरक आँखि
रहै छलौं केतबो व्यस्त
देखबाक अभ्यस्त
ठमैक जाइत छल पएर
ठीक ओही स्थलपर सम्हारि
एकबेर झाँकि
घरक आँखि
मध्य ओ मोहक रूप
ठाढ़ भेल गुप-चुप
चित्र आँखिमे चमैक उठैत छल
मनक कण-कण गमैक उठैत छल
किछु दिनसँ भेल निपत्ता
बिनु देने अता-पत्ता
तैयो आदतिसँ लचार भऽ
ठाढ़ भऽ गेलौं शून्यमे ओहिना
जहिना पहिने छल तहिना।
ओ नै अछि
ई छी मनक खेल
ठमैक ठाढ़ भेल तकै छी
ई हमरा की भेल
की हमरा आँखिमे
हुनक बास भऽ गेल
आकि हमर आँखि ओ रूप मिलि
एकेटा अकास भऽ गेल।
रूसल बौआ
दुर्गापूजाक मेला शुरू भऽ गेल छइ। अष्टमी बीत गेलै, आबो नै हेतै मेला। मेलामे तँ होइते छै, खुशी, उत्साह, मनोरथ, मिलन। घर-घर बनि रहल छै मेवा-मिष्टान, तरुआ-भुजुआ आर कते चीज-बोस। रंग-बिरंगक नुआ-बस्तर पहिरने धिया-पुताक मुँहपर खुशी नाचि रहल अछि। सभ मेला देखबाक लेल तैयार भऽ रहल अछि। फेकन हड़बड़ाइत अँगना आएल आ पत्नीसँ पुछलक-
“बेचू बौआ कहाँ अछि? खेलक आकि भुखले अछि?”
पत्नीक मोनमे तामस औनाइते छलै। एकबेर तामससँ भरल आँखिए ताकलक आ बजल किछो नै। ओकरा दिश बिनु देखनहि फेकन फेर बजल-
“एकोटा रुपैया तँ घरमे छलै नै। सोचलौं- छौड़ा मेला देखैले जाए लगितै तँ मांगबे करतै। एक गोड़ेसँ हथपैंच लेलौं। आ बौआकेँ देखबे नै करै छी। कते गेल अछि?”
“जेतै कते, कने छलै। दुआरिपर रुसल बैसल छइ।”
“की भेलै से?”
“हेतै की, लवका पेण्ट-शर्ट लेतै।”
“ओह, अखनी तँ पैसाक बड्ड अभाव छइ। ओकरा समझा-बुझा दैतिऐ से नै।”
“अहाँक धिया-पुताकेँ के समझाइत। कहै छलै जे अमितकेँ लवका पेण्ट-शर्ट ओकर बाबू आनि देलकै। ओ भोरेसँ देखा-देखा कऽ हमरा बुड़बक बनबैत अछि। औंठा देखा कऽ इहू-इहू कहैत अछि।”
“अहाँकेँ कहबाक चाही ने जे अमितक बाप धीरेन्द्र बाबू बड़का लोक छथि। पलिबारमे सरकारी नौकरीयो छइ। जमीनो हमरासँ बहुत बेशी छइ। हुनकर बराबड़ि हम केना करबै?”
“से गप्प हम कहलिऐ। रौ बौआ, अमित बड़का लोक छिऐ। उनटे तमसाकेँ बजल-
“अमितवा कद-काठीमे हमरासँ छोट अछि। परीक्षामे हमरासँ कम नम्बर लाबैत अछि। खेलो-कूदमे हमरासँ हारले रहैत अछि। ऊ हमरासँ नम्हर केना भेलै।– आब अहीं कहू जे केना बुझेबै? की कहबै?”
बझल कंठे फेकन बजल-
“आ हमहीं की करबै? एक साल रौदी तँ एक साल दाही। जी-जान लगा कऽ काज करै छी, तइयो उपजा ओतने होइत अछि। देह रोगाएल रहैत अछि। बाहरो कमेबाक लेल केना जाएब। हमरा सन छोट गिरहतकेँ देखनिहार कियो नै। अहाँ तँ देखबे करै छी। घरक खर्चा नै जुमैत अछि, तइयो धिया-पुताकेँ पढ़बै छी।”
पत्नीक सुरमे तामस भरल छल- “हमर सऽख-सेहन्ता तँ डहि-जरि गेल। आब धीयो-पुतोक वएह गति भऽ रहल अछि। अहाँ कोनो करमक लोक नै छी। अहाँ बुत्ते नै किछो भेल आ नै हएत।”
अहाँ कोनो करमक लोक नै छी, ई वाक्य जेना फेकनक कलेजामे बरछी बनि गड़ि गेलै। तन-मनसँ समर्पित भावे काज केनिहारकेँ जँ फलक रूपमे दुत्कार भेटै तँ एकर प्रतिकार की? फेकनक मोन औना रहल छइ। बेवश, लचार। ओकरा आँखिसँ भरभरा कऽ लोर खसि पड़लै। आसमे जेना आगि लागि गेल होइ। ओकर बेचू बेटा अढ़मे ठाढ़ भऽ कऽ सब किछो सुनै छलै। बापकेँ कनैत देख नै रहल गेलै तँ लगमे जा कऽ बाजल-
“बाबू अहाँ नै कानू। कोनो कि अंगे-पेण्टसँ लोक मेला देखै छइ। ऊ लवका पेण्ट-शर्ट देखा कऽ हमरा बुड़बक बनबै छइ। हम परीक्षामे ओकरासँ बेसी नम्बर लाबि कऽ ओकरा बुड़बक बनेबै।”
सपना सन….। क्षण भरिक लेल जेना नम्हर-छोट, ऊँच-नीच एके रंग बुझेलै। फेकन बेटाकेँ भरि पाँज पकड़ि लेलक। बाप-बेटा मिलैत देख पत्नी मुस्की मारलक जे बाप-बेटा दुनूक लेल प्रश्न बनि ठाढ़ भऽ गेल।
डरक नदी
सरिताकेँ निन्न नै होइ छेलइ। आ जिन्न पड़लैं तँ सपनामे डुमि गेल। सपनामे देखैत अछि जे-
ऊँचगर जगहपर एकटा नमहर मूसक बिल अछि। चारूभर झौंकड़ा-झौकड़ी आ बिच्चेमे बिल। बिलसँ कनी हटि कऽ मूसक पूरा पलिवार घुरिया रहल अछि। सभ डेराएल, आपसी कनफूसकी करैत। ओइमे बेटा-पुतोहु, पोता-पोती, काका-भतीजा सभ गोटे। बाबाक प्रतीछा कऽ रहल अछि।
संकटकालमे बुढ़ बुजुर्गसँ सलाह-विचार केनाइ बड़ जरूरी होइ छइ। ओहन बुढ़ जे अपन काज-वेपारसँ पलिवारमे धाक जमौने रहै छइ। ओकरासँ काजक पहिने पुछि लेब आरो आवश्यक।
कनीओं खड़-पात खड़खड़ाइते मुसक धिया-पुता डेरा जाइत अछि। डेराएल तँ सभ अछि किन्तु किछु गोटे अपना डरकेँ झँपने अछि आ ऊ सभ रहि-रहि कऽ अपनासँ छोट डेराएल धिया-पुताकेँ रपैट दैत अछि।
“रौ, कनै छेँ किए। चुप रह। डेरा नै हम छियौ ने।”
“हौ काका जमराज आबि जेतै तँ तोरा सभ पहिने भागि जेबहक। तब की करबै? तूँ सभ तँ नांगरि ठाढ़ कऽ बड़ी रेशमे भगै छहक, हमरा सभकेँ तँ एके झपटमे पकड़ि लेतै।”
“धू बुड़बक, बड़ डेरबुक छेँ, एनए एतै तब ने रौ।”
बुढ़बा मूस जखैत-तपैत आबि रहल अछि। ओकरा देखते मूसक धिया-पुता सभ चारूभरसँ घेर लेलक-
“हौ बाबा, जुलुम भऽ गेलै हौ, आब केतए रहबहक?”
“की भेलै रौ?”
“हौ, अपना बिलक मुँहपर बड़का साँप बैसल छइ। चलह दोसरे ठाम रहबै। ऐठिनासँ भागह जल्दी।”
“रौ केतए जेबही। मनकेँ थिर कर बौआ। संसारक कोनो कोणमे नुकेबही डर ओतौ पाछूसँ पहुँच जेतौ। केतौ खतरासँ खाली जगह नै छइ। रौ नूनू, जीबैले संघर्ष करए पड़तौ।”
बुढ़ मूसक जेठका पोता फनकि कऽ बाजल-
“हे यौ बाबा, गप तँ खौब हँकै छी। तँ जा कऽ देखियौ। एकबेर संघर्ष करियौ।”
मूसक दोसर पोता बाजल-
“ठीके यौ बाबा, अहाँ तँ खिस्सा सुनबै छेलिऐ जे जुआनीमे जमराजकेँ पछाड़ि देने रहिऐ, एकबेर वएह चितरसेना दाउ-पेंच लगाउ बुढ़ाड़ीमे।”
बुढ़बा मूस मने-मन सोचलक, छौड़ा सभ गरपर चढ़ा देलक। बँचबाक उपए ताकए पड़त। बुझबैत बाजल-
“हे रौ ई सभ जवान-जुआनक काज छिऐ। जवान जँ लड़तै तँ किछ देर लड़ाइमे ठठबो करतै। हमरा सबहक उमेर आब संघरषक जोग छै? ठीकसँ सुझबो ने करैए। की कहबो-सभटा दुख चढ़ल बुढ़ाड़ी, नैन बिनु पंथ भारी।”
बुढ़बा मूसक जेठका पोताकेँ नै रहल गेल तँ फेर बाजल-
“हे, माए-बाबू, काकी-काका सबहक विचार इहए भेल छै जे बिल लग सभसँ पहिने तोरे जाए पड़तह। सभ कहै छेलै जे बुढ़बा आब बेसी जीब कऽ की करतै। पलिवारोपर तँ भारे बनल छइ।”
बुढ़बा चौंक कऽ बाजल-
“अँए, तँ आब हम भार बनि गेलियौ रौ। तेकर मतलब हमर कएल-धएल पानिमे चलि गेलै। आरौ तोरीकेँ ठीके कहै छै…।”
बुढ़ मूसक जेठकी पुतोहु मुँह दाबि कऽ बजली-
“एकटा गप पुछै छी बाबू। अपना सोझहामे बेटा-पोताकेँ मरैत देखबै से नीक लागत? एकरा सभकेँ तँ देश-दुनियाँ देखबाक आ भोगबाक समय छै- अखनी।”
मूसक जेठका बेटा मुँह फेड़ दोसर दिस तकैत बाजल-
“हम तँ तखैने जाइ छेलिऐ। देखबै एक धक्का। ऐपार आकि ओइपार। की करबै। सभ गोटे टाँग छानि कऽ कानए लगलै आ कहलकै- सौंसे पलिवारक भार अहीं उठौने छिऐ। अहाँकेँ किछो भऽ जाएत तँ पलिवारक देख-भाल केना हेतै।”
पोता चट दऽ टपैक उठल-
“काका, कहै छेलै जे बुढ़बा तँ भरि दिन बिछौना धेने रहै छइ। ओकरा रहने की आ नै रहने की। आबए दही, काल लग पहिने वएह जेतै।”
गप सुनि बुढ़बाकेँ सभसँ मन टुटि गेलै। जेना चारू पाजासँ हारल लोक। केकरोसँ कोनो मोह ममता नै। बुझेलै आब ऐ दुनियाँसँ चलि जाइ, सएह नीक। तैयो प्राणक मोह सभसँ बड़का मोह।
दुनियाँसँ केतबो विराग भऽ जाए। सभसँ नाताक डोरि टुटि जाए। तैयो साक्षात कालक मुँहमे जाइ बखत डर समेनाइ सोभाविके छइ।
बुढ़बा मूस जोशमे किछु कदम तँ खौब लफड़ि कऽ चलल तेकर बाद टाँग नै उठै। खुच-खुच लगही लगै। जखनि बिलक निकट चलि गेलै आ साँपक आकृति देखाइ पड़ए लगलै, तखनि मल-मूत्रपर सँ नियंत्रन हटि गेलै।
दड़बड़ मारि बिलक लगमे जे झौंकड़ा रहै तइमे ढूकि गेलै। किछु देर तक कोनो तरहक आक्रमण नै भेलै, तब झाँकुरसँ नांगरि निकालि साँपक आँखि दिस डोलोलकै। तैयो कोनो प्रतक्रिया नै भेलै। बुढ़बाकेँ भारी अचरज भेलै, ओकर पकल दिमाग दौगए लगलै।
“कहीं मुइल साँप तँ ने छै?”
मनमे प्रश्न उठलै डर किछु छँटि गेलै। देव-पितरकेँ सुमरैत देह-हाथ सम्हारि बाहर निकलल। पूरा सतर्क भेल। टक-टक तकैत साँप दिस बढ़ल। भागैले तैयारो अछि। घुसकैत-घुसकैत लग जा कऽ देखलक, ठीकसँ देखते ठिठिया कऽ हँसल आ हँसैत बाजल-
“रौ तोरी! साँप कहाँ छै ई तँ साँप खोल छिऐ। केचुआ।”
जोरसँ सोर पाड़लक-
“रौ आबै जो, आब डेराइक कोनो गप नै।”
धिया-पुता दौग कऽ लग आएल आ पुछलक-
“बाबा, जीअत छै की मुइल हौ?”
बुझबैत बुढ़बा बाजल-
“हे रौ, ई तँ खोल छिऐ ओकर। ऊ तँ ऐ मे सँ निकैल गेल छइ।”
“निकैल कऽ केतए गेलै हौ?”
“हेतौ तँ अही आसे-पासेमे। जँ मुइलाक बादो जीव खोल छोड़ैले तैयार नै रहै छै, तँ जीअत की करतै…।”
फेर डर सबहक मनमे नाचए लगलै।
मूसक जेठका पोता बाजल-
“अच्छा, हटि जा बिलक मुँहपर सँ। एेते बात किए बनबै छहक।”
बुढ़बा कऽ जल्दीसँ नै हटल भेलै। सभटा मूस एकेबेर बिल दिस रेड़ देलक। बुढ़बाक देह-कपारपर चढ़ैत। ठेलैत-धकियबैत। बुढ़बा केंकिआइत ओंघरा कऽ खसल। मूसक जेठका बेटा अपना पत्नीक मुँहपर दाँत गड़ा देलक। दुनू एकेबेर खेंखियाइत बिलमे ढुकि गेल।
सरिताकेँ सपनामे बुझेलै जे कियो ओकरो गालपर किछु गड़ा देलक आ जेना मूस सभ देहपर दौगए लगल।
ओकर देह चमैक उठलै। सौंसे देह सिहरि कऽ काँटो-काँट भऽ गेलै। सपना भंग भऽ गेलै। बुझेलै देहपर एगो हाथ चलि रहल अछि। अन्हारमे टेबलक। ई हाथ ओकर पतिक छेलइ। फेर मन पड़लै, अपना धिया-पुताक फौज। जे निरंतर बढ़ले जा रहल छेलइ। अनन्त आवश्यकताक संग।
किछु चलैत-चलैत जेना ठाढ़ भऽ गेलै। मनमे जे डरक नदी बहै छेलै ओइमे अकस्मात बाढ़ि आबि गेलै।