मैं रितिक हूं हिंदी कविता

मैं रितिक हूं।

न कोई खास, न कोई बहुत अलग,

पर हां, इतना अलग ज़रूर कि

खुद को भी कभी-कभी समझ नहीं पाता।

 

मैं वो हूं जो भीड़ में भी अकेला रहता है,

और अकेले में भी खामोश नहीं होता,

मैं चुप होता हूं बाहर,

पर भीतर हज़ारों ख्यालों की आवाजें गूंजती हैं।

 

लोग मुझसे मिलते हैं और कहते हैं,

“तू थोड़ा अलग सोचता है”

मैं मुस्कुरा देता हूं,

क्योंकि उन्हें नहीं पता कि

ये ‘अलग सोच’ मेरी मजबूरी है, मेरी आदत नहीं।

 

मैं अक्सर खुद से लड़ता हूं,

खुद को मनाता हूं,

कभी-कभी खुद से ही रूठ जाता हूं,

मैं वो हूं जो खुशियों को पकड़ना नहीं चाहता।

 

मैं जानता हूं

खुशियां अक्सर सबसे तेज़ भागती हैं,

और सबसे जल्दी छूट भी जाती हैं।

 

मैंने सीखा है कि ,

हर इंसान के अंदर कुछ तो ख़ास होता है,

जहां सिर्फ वही पहुंच पाता है,

और मैं उस जगह पर रोज़ जाता हूं,

जहां मैं सबसे ज़्यादा टूटा हूं,

मैं रितिक हूं,

 

मैं बस जी रहा हूं,

हर शब्द, हर एहसास, हर ख्याल को,

उकेरते हुए कागज़ों पर,

एक ऐसी दुनिया बनाते हुए

जहां मैं सच में ज़िंदा हूं,

मैं रितिक हूं।

     – रितिक शुक्ला

 

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