कविता लिखने की खातिर मैं
शब्द-सिन्धु को जाता हूं।
शब्दों के सागर में जाकर,
गोते ख़ूब लगाता हूं।
रत्नाकर के रत्नों से फिर
मोती चुन-चुन लाता हूं,
शब्दों के मोती मैं कोरे,
कोरे पन्नों पर बिखराता हूं।
मन-विहंग पर हो सवार फिर,
अमित-शून्य में जाता हूं।
क्षण भर में ही खुद को मैं,
पाताल लोक में पाता हूं।
मन तो अति चंचल होता है,
अगणित भ्रमण कराता है।
अवनि, अम्बर और रसातल,
कहाॅं-कहाॅं भटकाता है।
भूत-भविष्य का दर्शन कर,
जब वर्तमान में लाता है।
फिर वापस आ बैठ पत्र पर,
कुछ भाव नए सजाता हूं।
भ्रमण कर लिया वाह्य जगत,
अब अन्तर्मन में जाता हूं।
मन के द्वारे जाते ही मैं,
विस्मय से भर जाता हूं।
अति गहरा है मन का सागर,
अति विशाल मन का संसार।
यहीं-कहीं से फूट रही है,
कविता रूपी रस की धार।
इन्हीं रसों की बना के स्याही,
फिर अपनी कलम चलाता हूं।
मैं कविता नई बनाता हूं,
मैं कविता नई बनाता हूं।
– अमित पासवान