आधा ही सही मगर,
उसका आधार तो हूँ।
मुझे नहीं मिली मगर,
उसका इंतजार तो हूँ।
वो कहीं और भटक रही है,
मैं कहीं और भटक रहा।
जिंदगी जंगल सी जरूर है,
मगर सदाबहार तो हूँ।
मेरी रातें काली जरूर हैं,
मगर उसका करार तो हूँ।
उसकी हर बेबसी पर मैं,
आज भी बेकरार तो हूँ।
मंजिल एक ही है राहें,
जुदा – जुदा हैं तो क्या हुआ?
इस पड़ाव पर न मिल सके,
उस पड़ाव का इंतजार तो हूँ।
जानता हूँ बंदीशे हैं मगर,
बंदिशों के पार तो हूँ।
मैं उसका वीणा न बन सका,
मगर वीणा का तार तो हूँ।
जब वो बोली मेरी जिंदगी,
तरंन्नुम सी हो गयी।
जिसका अंत नहीं उसका,
वो एतबार तो हूँ।
तोड़ न पाए तिलस्म भले हो,
गया तार – तार तो हूँ।
जलती जवानी को लेकर हो,
गया आज भी बेजार तो हूँ।
गिन – गिन के तारे कटती हैं,
रातें उसकी आज भी।
रुखसत करके भी रुखसत,
न हो सकी वो सुमार तो हूँ।
जिसने सब,कुछ वारे मुझ पर,
मैं भी उसका वार तो हूँ।
उसकी मुहब्बत मैं साढ़े साती,
बनकर सवार तो हूँ।
विकास जिंदगी की घड़ी,
कितनी भी टिक टिक कर ले।
वो सोमवार सी व्यस्त है मैं
आज भी उसका रविवार तो हूँ।
– राधेश विकास
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश