माँ की क़हक़हे, एक मीठा सा नूर,
दिल को छू लेता था, हर एक सूर।
बचपन के दिनों में, जब खेलते थे हम,
माँ की हँसी छुपाती थी, हमारा हर गम।
क़हक़हे से भरा था, घर भी तो हमारा,
माँ की आँखों में, जगमगाता था तारा।
थक जाते जब हम, खेल-खेल के तो,
माँ की गोदी में क़हक़हे कर, हंसते हम ।
बड़े हुए हम, जब जीवन की राहों पर,
माँ की क़हक़हे, अब भी याद आती है।
मुश्किलों में भी, जब मन उदास होता,
माँ का क़हक़हे, ही हमें है संभालता।
आज भी सुनना चाहती हूँ, माँ की हंसी,
दिल को लगता ,जैसे कोई है अपना, साथ।
माँ का प्यार दुलार , माँ का आशीर्वाद,
बना हमेशा रहता है, दिल में मेरे साथ।
– गार्गी गुप्ता
रायबरेली, उत्तरप्रदेश