लगा कर दिल सज़ा वो पा रहा है,
मुकद्दर यूं बिगड़ता जा रहा है।
दबा कर हसरतें दिल में वो देखो,
मुहब्बत करने वाला जा रहा है।
दगा अब दे रही हैं क्यों फ़ज़ायें,
ये मौसम क्यों बदलता जा रहा है।
तेरी बातें हैं क्यूं अब ख़ार जैसी,
समझ में मेरी कुछ ना आ रहा है।
दिखा कर मुझको सहरा में समंदर,
कोई यूं भी मुझे भरमा रहा है।
उसे उम्मीद थी आयेंगी खुशियां,
वो किश्तों में यहां दुःख पा रहा है।
बहुत देखा था परछाई में खुद को,
वो मंज़र याद अब भी आ रहा है।
चमन है ऐसे माली के हवाले,
कि उल्फत का शज़र मुरझा रहा है।
तेरा जैसा रहा अख़लाक “अकबर”,
तू उतनी आज़ इज़्ज़त पा रहा है ।
– अकबर खान ‘ अकबर ‘