ये आँखें पूंछ रहीं हैं अब प्रश्न कई,
क्या उनके उत्तर कभी मिलेंगे सही!
समाज में अब क्या अस्तित्व है मेरा?
एक लड़की हूं ,यही सच है मेरा!
मेरी आँखें पूछ रही हैं, कई सवाल,
क्या मेरा लड़की होना ही है पाप?
तन भले ही हैं हमारे ढंके हुए,
फिर क्यों नजरें हमारी आबरू हैं घेरे ?
सारे बंधन क्यों सिर्फ हमारे लिए?
सारे पुरुष भी तो नहीं हैं दूध के धुले।
क्यों दर्द सह, बस हम ही चुप रहें
समाज के ताने भी हम ही क्यों सहे?
ये आँखें रोकर कोसती हैं तकदीर,
बस इक तरफ़ा बनी, मर्यादाओं की लकीर।
क्यों समाज दफ़ना गया हमारा अधिकार?
पुरुष ही तो करता है मर्यादाओं पर प्रहार।
भले ही तरक्की की ओर अग्रसर हैं हम
लड़कियां हैं सुरक्षित, एकमात्र यही भ्रम।
– शिवानी तिवारी