कुमार विश्वाश, हिंदी कविताएं

1 –

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

 

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है,

 

तुम अगर नहीं आई गीत गा न पाऊँगा,

 

साँस साथ छोडेगी, सुर सजा न पाऊँगा।

 

तान भावना की है शब्द-शब्द दर्पण है,

 

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है।

 

तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है,

 

तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है

 

रात की उदासी को याद संग खेला है,

 

कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है।

 

औषधि चली आओ चोट का निमंत्रण है,

 

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है।

 

तुम अलग हुई मुझसे साँस की ख़ताओं से,

 

भूख की दलीलों से वक्त की सज़ाओं से।

 

दूरियों को मालूम है दर्द कैसे सहना है,

 

आँख लाख चाहे पर होंठ से न कहना है,

 

कंचना कसौटी को खोट का निमंत्रण है,

 

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है।

 

2 –

स्वर्ग के द्वार तक

 

मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक

 

रोज आता रहा, रोज जाता रहा,

 

तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई

 

मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा।

 

जिन्दगी के सभी रास्ते एक थे

 

सबकी मंजिल तुम्हारे चयन तक गई

 

अप्रकाशित रहे पीर के उपनिषद्,

 

मन की गोपन कथाएँ नयन तक रहीं।

 

प्राण के पृष्ठ पर गीत की अल्पना

 

तुम मिटाती रही मैं बनाता रहा।

 

तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई

 

मंच से मैं तुम्हें गुनगुनाता रहा।

 

एक खामोश हलचल बनी जिन्दगी

 

गहरा ठहरा जल बनी जिन्दगी

 

तुम बिना जैसे महलों में बीता हुआ,

 

उर्मिला का कोई पल बनी जिन्दगी।

 

दृष्टि आकाश में आस का एक दिया

 

तुम बुझती रही, मैं जलाता रहा।

 

तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई

 

मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा

 

तुम चली गई तो मन अकेला हुआ

 

सारी यादों का पुरजोर मेला हुआ

 

कब भी लौटी नई खुशबुओं में सजी,

 

मन भी बेला हुआ तन भी बेला हुआ।

 

खुद के आघात पर व्यर्थ की बात पर

 

रूठती तुम रही मैं मनाता रहा।

 

तुम ग़ज़ल बन गई, गीत में ढल गई

 

मंच से में तुम्हें गुनगुनाता रहा।

 

मैं तुम्हें ढूँढने स्वर्ग के द्वार तक,

 

रोज आता रहा, रोज जाता रहा।

 

3 –

कल नुमाइश में फिर गीत मेरे बिके

 

कल नुमाइश में फिर गीत मेरे बिके

 

और मैं क़ीमतें ले के घर आ गया,

 

कल सलीबों पे फिर प्रीत मेरी चढ़ी

 

मेरी आँखों पे स्वर्णिम धुआँ छा गया।

 

कल तुम्हारी सुधि में भरी गन्ध फिर

 

कल तुम्हारे लिए कुछ रचे छन्द फिर,

 

मेरी रोती सिसकती सी आवाज़ में,

 

लोग पाते रहे मौन आनंद फिर।

 

कल तुम्हारे लिए आँख फिर नम हुई

 

कल अनजाने ही महफ़िल में मैं छा गया।

 

कल नुमाइश में फिर गीत मेरे बिके

 

और मैं क़ीमतें ले के घर आ गया।

 

कल सजा रात आँसू का बाज़ार फिर

 

कल ग़ज़ल-गीत बनकर ढला प्यार फिर,

 

कल सितारों-सी ऊँचाई पाकर भी मैं

 

ढूँढता ही रहा एक आधार फिर,

 

कल मैं दुनिया को पाकर भी रोता रहा

 

आज खो कर स्वयं को तुम्हें पा गया,

 

कल नुमाइश में फिर गीत मेरे बिके

 

और मैं क़ीमतें ले के घर आ गया।

 

4-

बाँध दूँ चाँद

 

बाँध दूँ चाँद, आँचल के इक छोर में

 

माँग भर दूँ तुम्हारी सितारों से मैं

 

क्या समर्पित करूँ जन्मदिन पर तुम्हें,

 

पूछता फिर रहा हूँ बहारों से मैं।

 

गूँथ दूँ वेणी में पुष्प मधुमास के

 

और उनको ह्रदय की अमर गंध दूं,

 

स्याह भादों भरी, रात जैसी सजल

 

आँख को मैं अमावस का अनुबंध दूं

 

पतली भू-रेख की फिर करूँ अर्चना,

 

प्रीति के मद भरे कुछ इशारों से मैं।

 

बाँध दूं चाँद, आँचल के इक छोर में

 

मांग भर दूं तुम्हारी सितारों से मैं

 

पंखुरी-से अधर-द्वय तनिक चूमकर

 

रंग दे दूं उन्हें सांध्य आकाश का

 

फिर सजा दूं अधर के निकट एक तिल,

 

माह ज्यों बर्ष के माश्या मधुमास का।

 

चुम्बनों की प्रवाहित करूँ फिर नदी

 

करके विद्रोह मन के किनारों से मैं

 

बाँध दूं चाँद, आँचल के इक छोर में,

 

मांग भर दूं तुम्हारी सितारों से मैं।

 

5 –

मैं तो झोंका हूं

 

“मैं तो झोंका हूँ हवाओं का उड़ा ले जाऊँगा,

 

जागती रहना, तुझे तुझसे चुरा ले जाऊँगा।

 

हो के क़दमों पर निछावर फूल ने बुत से कहा,

 

ख़ाक में मिल कर भी मैं ख़ुश्बू बचा ले जाऊँगा।

 

कौन-सी शै तुझको पहुँचाएगी तेरे शहर तक,

 

ये पता तो तब चलेगा जब पता ले जाऊँगा।

 

क़ोशिशें मुझको मिटाने की मुबारक़ हों मगर,

 

मिटते-मिटते भी मैं मिटने का मज़ा ले जाऊँगा।

 

शोहरतें जिनकी वजह से दोस्त-दुश्मन हो गए,

 

सब यहीं रह जाएंगी मैं साथ क्या ले जाऊँगा”।

 – कुमार विश्वाश

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