हम वो नसीब का मज़ाक बन गए कविता, देवांशू त्रिपाठी

 

 

जीवन का फलसफा ढूंढ़ते ढूंढ़ते

शहरों की ख़ाक बन गए

 

निकल गया जो रेत की तरह

उस वक्त की खुराक़ बन गए

 

कदमों के निशान

गहरे थे पर ,

लहरों के साथ वो भी नदारद हो गए

 

एक दरख़्त था सूखा तेरे आंगन में

हम उसकी सूखी सी इक शाख बन गए ।

 

कहानियां आज भी ज़िंदा हैं

निशानियां आज भी हैं कुछ बाकी

पर तुमने जो सुनकर हँसी में उड़ा दिया

हम वो नसीब का मज़ाक बन गए ।

– देवांशू त्रिपाठी

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