जीवन का फलसफा ढूंढ़ते ढूंढ़ते
शहरों की ख़ाक बन गए
निकल गया जो रेत की तरह
उस वक्त की खुराक़ बन गए
कदमों के निशान
गहरे थे पर ,
लहरों के साथ वो भी नदारद हो गए
एक दरख़्त था सूखा तेरे आंगन में
हम उसकी सूखी सी इक शाख बन गए ।
कहानियां आज भी ज़िंदा हैं
निशानियां आज भी हैं कुछ बाकी
पर तुमने जो सुनकर हँसी में उड़ा दिया
हम वो नसीब का मज़ाक बन गए ।
– देवांशू त्रिपाठी