कबीर जी की कुछ चुनिंदा हिन्दी कविताएं और दोहे

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार

नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार।

साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये।

 

हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं।

अंतरयामी एक तुम आतम के आधार।

 

जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार।

गुरु बिन कैसे लागे पार।

 

मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार।

तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार।

 

झीनी झीनी बीनी चदरिया

काहे कै ताना काहे कै भरनी,

कौन तार से बीनी चदरिया।

 

इडा पिङ्गला ताना भरनी,

सुखमन तार से बीनी चदरिया।

 

आठ कँवल दल चरखा डोलै,

पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया।

 

साँ को सियत मास दस लागे,

ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया।

 

सो चादर सुर नर मुनि ओढी,

ओढि कै मैली कीनी चदरिया।

 

दास कबीर जतन करि ओढी,

ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया।

 

अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़।

जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज।

गुरु बिन कैसे लागे पार ॥

 

राम बिनु तन को ताप न जाई,

जल में अगन रही अधिकाई,

राम बिनु तन को ताप न जाई

 

तुम जलनिधि मैं जलकर मीना,

जल में रहहि जलहि बिनु जीना,

राम बिनु तन को ताप न जाई।

 

तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा,

दरसन देहु भाग बड़ मोरा,

राम बिनु तन को ताप न जाई।

 

तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला,

कहै कबीर राम रमूं अकेला,

राम बिनु तन को ताप न जाई।

 

कबीर की साखियाँ

कस्तूरी कुँडल बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ,

ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ।

 

प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय,

राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय।

 

माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर,

कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर।‏

 

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर,

आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर।

 

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद,

खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।

 

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर,

परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर।

 

साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय,

तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय।

 

सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार,

दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार।

 

जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं

ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं।

 

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ,

कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ।

 

तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय,

कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय।

 

बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि,

हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि।

 

ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय,

औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।

 

लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी,

चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी।

 

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय,

बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय।

 

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं,

  1. मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं।
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