जिम्मेदारी
बचपन में खुशियाँ थी कितनी प्यारी,
माँ की गोद और पिता की सवारी।
खेलते-कूदते बीता हर एक दिन,
ना फिक्र थी कल की, ना चिंता की कोई कहानी।
फिर आई पढ़ाई की वो कठिन घड़ी,
घर की जिम्मेदारी बन गई जीवन की कड़ी।
पढ़-लिख के निकले, अच्छे अंक लेकर,
नौकरी की राहें लगीं जैसे अंधेरे में ढलकर।
कभी पेट खाली, कभी पैरों में छाले,
रोज़ पैदल चलता हूँ इन सपनों के ताले।
ना खा पाऊँ ठीक से, ना बैठ पाऊँ चैन से,
मध्यमवर्ग का बेटा हूँ, चलता हूँ मेहनत के खेल से।
मेरी कोशिशों से पूरी हो उनके अरमान,
पर, नौकरी के दरवाज़े लगे सब वीरान।
सपनों के परिंदे टूटे पंखों के संग झूलते,
हर उम्मीद के तिनके अब धीरे-धीरे छूटते।
फिर भी हर सुबह नई उम्मीद संग उठता हूँ,
दिल में हौसला लिए हर मुश्किल से लिपटता हूँ।
कभी नहीं हारेगी ये जिम्मेदारी, ये बेटा,
माँ-बाप का सपना पूरा करेगा, ये बेटा।
– रोहित मालाकार