त्रिशूलपर लटकल गाम
अप्पन नित्यकर्मसँ निवृत्त होइत, माने भोरुपहरक नित्यकर्म, जेना सुतिकऽ उठिते ओछाइनकेँ समेट मोड़िकऽ राखि, बाहर निकैल पर-पैखानासँ आबि, मुँह-हाथ धोला पछाइत खुशीलाल भाय दरबज्जापर चाह पीबैले बैसला कि सात-आठ बर्खक मैझिली बेटी, गीता गिलासमे चाह नेने आबि हाथमे धड़बैत कहलकैन-
“बाबू, आइ सोमवारी पाबैन छी।”
बेटीक बात सुनि खुशीलाल भाय ‘हँ-हूँ’ किछु उत्तर नहि देलैन। कनीए काल ठाढ़ भेला पछाइत गीता पुन: आँगन चलि गेल। आधासँ बेसी चाह जखन गिलासक सठि गेलैन, कनी-कनी मन फुहराम हुअ लगलैन तखन खुशीलाल भाय बेटीक प्रस्तावपर विचार करए लगला। माने सोमवारी पावनिक विचार करए लगला। सौन मास छी, पखक अन्तिम दिनक सोम छी, ऐगला पखमे मलेमास चढ़त।
एकाएक खुशीलाल भाइक मन मासक गुण-धर्मपर पड़लैन। आन साल अन्तिम अखाढ़ अबैत-अबैत आम-जामुन झड़ि जाइ छल आ ऐबेर अखन तक माने आधा सौन तक, जहिना आम टेक धेने अछि तहिना जामुनो। ऐठाम जमुनीक चर्च नइ करै छी। जामुन आ जमुनीक रंगो आ सुआदो तँ एक्के रंग होइए मुदा आकार-प्रकारमे अन्तर अछिए। ओना, जामुनक अनेको किस्म अछि। जइसँ अनेको तरहक नाओं सेहो छइहे। मुदा से अखन नहि, अखन बस एतबे जे गुण-धर्म एक रहितो जामुन आ जमुनीमे अकारो-प्रकार आ फड़बो-पाकबमे अन्तर अछिए।
नमहर-नमहर रूप रहला पछातियो जामुन जेठे सँ पाकब शुरू होइए आ अखाढ़ अन्त होइत-होइत पाकिकऽ सभ झड़ि जाइए, मुदा जमुनीकेँ से नइ अछि। मोटा-मोटी यएह बुझू जे जामुनक अन्त भेला पछाइत जमुनीक मौसम अबैए। एहेन जामुने-जमुनीक बीच अछि से बात नहि, आमोक बीच सएह अछि। आमो एहेन अछिए जे एक नामक फल रहितो बम्बई, गुलाबखास जेठेसँ पाकब शुरू होइए आ आधा अखाढ़ अबैत-अबैत झड़ि जाइए, माने पकिकऽ खसि पड़ैए। बम्बई-गुलाबखासकेँ सठला पछाइत मालदह, कृष्णभोग इत्यादिक पाकब शुरू होइए आ अन्तिम अखाढ़ अबैत-अबैत अन्त हुअ लगैए। मुदा आकार-प्रकारमे, माने साइजमे राइर आ बथुआ छोट होइतो सभसँ पछुआकऽ पाकब शुरू करैए आ अन्त तक माने मौसमक अन्त तक धेने रहैए। की एहेन गति-विधि मनुक्खोक बीच अछि?
गीताक प्रस्ताव सुनि खुशीलाल भाइक नजैर पुन: वापस घुमलैन। वापस घुमिते खुशीलाल भाइक विचारमे उठलैन- गीताक जे प्रस्ताव अछि ओ पारिवारिक छी आकि सामाजिक? माने अपने बेटीटा पाबैन करत आकि समाजक आनो-आन परिवारमे हएत?
चाह पीब पान खा खुशीलाल भाय गामक समाज दिस बढ़ैक विचार केलाह। विचार करिते मनमे उठलैन जे बाल-बोध गीता अछि, घरसँ निकलैसँ पहिने जँ किछु तोष-भरोस नइ देबै तँ ओ निराश भऽ जाएत। आशे ने जीवन छी, जाबे आस ताबे बिसवास आ जाबे बिसवास ताबैये तक ने जीवनक आस। खुशीलाल भाय बजला-
“बेटी गीता, एमहर आबह।”
पिताक आवाज सुनि गीता ओहिना हर्खसँ हरखित भऽ गेल जहिना सीतासँ गीता आ गीतासँ सीता परिमार्जित होइत, हँसैत-खेलैत सीता रूक्मिणी बनैत चलैए। पिताक आवाज सुनि गीता आँगनसँ आबि आगूमे ठाढ़ होइत बाजल-
“की कहै छी बाबूजी?”
बेटीक बात सुनि खुशीलाल भाय असमंजसमे पड़ि गेला। असमंजसमे ई पड़ि गेला जे अपना मनमे गीताकेँ पावनिक विचार देब अछि तँए शोर पाड़लिऐ, आ गीते उनैटकऽ पुछि रहल अछि जे ‘की कहै छी?’, माने की अढ़बै छी। गीताकेँ बाल-बोध बुझि विचारक मथनकेँ मनमे रोकि खुशीलाल भाय बजला-
“बुच्ची, की सोमवारी पाबैन कहने छेलह?”
जहिना तपस्याक पछाइत आराध्यदेव अपन दर्शन दैत तपस्वीकेँ आगू बढ़ैक वरदान दइ छैथ आ वरदान पेला पछाइत तपसी अपन जीवन श्रद्धापूर्ण संचालित करए लगै छैथ तहिना गीताक मनमे सेहो भेल। गीता बाजल-
“भरि दिन उपास करब, माने अन-जल नइ करब आ सूर्यास्त भेला पछाइत फलहार करब आ रातिमे अन्नाहार करैत जागल दिनक विसर्जन करब।”
ऐठाम जागल दिनक माने ई जे दिन-राति मिलाकऽ चौबीस घन्टाक समयक खण्डमे तीन अवस्था होइए। पहिल जागल, दोसर मरल आ तेसर सुषुप्त जहिना ज्वालामुखी पहाड़ होइए तहिना। माने ई जे जागल ओ अवस्था भेल जइमे आगि-राख-धुआँ निकलैत रहैए। मरल अवस्था ओ भेल जे पहिने तँ जीवित छल, माने आगि-धुआँ निकालै छल मुदा आब सदाक लेल बन्न कऽ लेलक, मरि गेल। आ तेसर अवस्था अछि सुषुप्तिक। सुषुप्तिक माने भेल जे जागलो छी आ सुतलो छी, माने दुनू छी। गीताक विचार सुनि खुशीलाल भाय मने-मन तुष्ट भऽ गेला जे तत्काल कोनो भार नहि पड़ल, किए तँ अपन भार वएह ने भेल जे भरि दिन सहलाक पछाइत साँझमे फलहार करत, तइले फलक ओरियान कऽ देब अछि। खुशीलाल भाय बजला-
“बुच्ची, अखन अपना काजे मकशूदन काका ऐठाम जा रहल छी, तोहूँ अपना पावनिमे लगि जा, ओमहरसँ एला पछाइत तोरो ओरियान भऽ जेतह।”
पिताक विचार सुनि गीता मने-मन खुशी होइत अप्पन पावनिपर नजैर दौड़बैत आँगन गेल। लगसँ गीताकेँ हटिते खुशीलाल भाइक मन ओहिना हल्लुक भेलैन जहिना कोनो काज सम्पन्न भेला पछाइत वा काज-मुक्त भेला पछाइत होइए। खुशीलाल भाय उठिकऽ मकशूदन काका ऐठाम विदा भेला। दरबज्जासँ आगू बढ़ि जखन गामक रस्तापर एला कि धक-दे मनमे उठलैन जे अपनेटा परिवारमे सोमवारी पाबैन होइए आकि गामोमे होइए? परिवारसँ गामपर नजैर पड़िते, ऐठाम ‘परिवार’ आ ‘गाम’ शब्दमे अन्तर अछि। गामक माने गाममे बसनिहार सभ भेला, मुदा जखन कियो पुछै छैथ जे फल्लाँ भायसँ भेँट करैक अछि, तखन यएह ने कहै छिऐन जे ‘गामपर नइ छैथ’। ओइठाम गामक माने बेकतीगत परिवार भऽ जाइए, खुशीलाल भाइक मनमे उठलैन जे किए ने सौंसे गाम घुमि-फिरि पता लगाबी जे औझुका पाबैन, माने सोमवारी, अहूँ सभ, माने सभकियो करै छी आकि गामक किछुए परिवार करैए। सौंसे गाम घुमि-फिरिकऽ भाँज लगाएब भरियो दिनमे पाड़ लागत कि नहि..!
नमहर आ भारी काज देखि जहिना मन पाछू हिचकए लगैए तहिना खुशीलाल भायकेँ सेहो भेलैन। मनकेँ हिचैकते विचार थकमका गेलैन। जइसँ डेग रूकि गेलैन। खुशीलाल भाय बीच रस्तापर ठाढ़ भऽ गेला। अपनाकेँ विचित्र स्थितिमे देखि खुशीलाल भाइक अपनहि मन कहलकैन, जखन मकशूदन काकासँ भेँट करए विदा भेल छी तखन बीच रस्तामे रूकि जाएब, विचारक अवहेलना भेल।
लोकक उसकौलसँ जहिना लोक उसकैए तहिना अप्पन विचारक उसकौलसँ खुशीलाल भाइक मन उसकलैन। उसैकते मनमे मोन पड़ैत अपन बालपन एलैन। तीन भाए-बहिनिक बीच अपन बालपन बीतल। कहाँ कहियो दुनू बहिनकेँ सोमवारी पाबैन करैत देखलिऐ। माए रवि पाबैन करै छल। माने समाजक चलैनमे रवि पाबैन होइ छल, मुदा से आब मेटा गेल आ आन-आन पाबैन- सोमवारी, बुधवारी, शुक्रवारी इत्यादि आबि गेल अछि। खाएर जे आएल अछि, से जानए जौ आ जानए जत्ता। माने ई जे जानए पाबैन केनिहार आ जानए पाबैन।
ओना, ऐठाम एकटा दोसरो प्रश्न उठिते अछि। ओ उठैए जे कोनो चीज पेबा लेल ओकर आधार की? चीज पबैक आधारित आधार आकि काल्पनिक, भावित आधार? भावित आधारसँ भावभूमि भलेँ किए ने अरधि जाए मुदा वास्तुकि (वास्तविक) तँ नहियेँ अरधि सकैए। ओ तँ अरधत वस्तुनिष्ठ आधार पकड़लाक पछातिये। जहिना जीवनक कोनो कल्पना मनमे उठैए आ उठला पछाइत जखन क्रियमान शक्तिसँ ओकरा संचालित करै छी, तखुनका भाव भूमि आ जखन मनक भीतरे-भीतर संचालित करै छी तखुनक भाव भूमिमे अन्तर भइये जाइए। कहैकाल भलेँ किए ने कहल जाए जे ‘ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या’ मुदा जगत सत्यम नहि अछि, सेहो केना नहि मानल जाए। जइ दुनियाँ (जगत)मे रहि (बसि) जीवन संचालित होइए, तइमे ब्रह्मक अंश नहि अछि सेहो केना नहि कहल जाए..!
जहिना सौन-भादो मासमे, माने बरसातक मौसममे वा बर्षा ऋतुमे, जखन करियाएल मेघसँ अकास घीरि जाइए, जइमे गर्जन-तर्जन शुरू होइत वायुक सृजन करैत वायुएक संग बरखा-बुन्नी सेहो झहरैए आ ठनका-बिजली सेहो लोकिते-खसिते अछि, तहिना खुशीलाल भाइक मनमे सेहो उठए लगलैन। जइसँ बुझि पड़ैन जे अप्पन चारू दिशा जेना अन्हार भेल जा रहल अछि। माने ई जे बेकतीगत पर्व आ सामाजिक पावनिमे एते तँ भइये रहल अछि जे ने एकोटा पावनिक रूप एकरंग अछि आ ने एकरंग गतिसँ सभ करितो छैथ।
अप्पन हेराएल विचारमे खुशीलाल भाइक सुतल विचार जगलैन। जगलैन ई जे अपना समाजमे अदौसँ कहबीक रूपमे आबि रहल अछि जे ‘असगर वृहस्पतियो फूसि’। एकाएक खुशीलाल भाइक बीच रस्तापर ठाढ़ भेल शरीरमे, शरीरीक रूप कहियौ आकि दैहिक, चेत जगलैन। चेत जगिते शरीरमे चेतनशक्ति जगलैन। चेतनशक्ति जगिते मनमे विचार उठलैन जे अनेरे दुनियाँक मोह-पाशमे पड़ब उचित नहि। देखिते छी जे रंग-रंगक करामाती लोक सभ अप्पन करामात करिते अछि जे कहियो माइटिक वा जरल-पथराएल माटि, माने पाथरक बनल गणेशजीक मूर्ति दूध पीबैए, तँ कहियो मनुक्खे मनुखदेवा बनि एक चुटकी माइटिक परसादसँ दुनियाँक सभ रोग-बीमारीक इलाज सेहो करिते अछि। तहूसँ जाबीर ओहनो सभ छथिए जे छठियारे राति केकरो राजा बना मुँहमंगा दैछना सेहो पबिते छैथ। एकर विपरीत ई नइ बुझब जे केकरो कंगाल वा कंगालक पाठ नइ पढ़बैए.!
एकाएक खुशीलाल भाइक मन मानि गेलैन जे दुनियाँक लाखो जीव-जन्तुमे अपना सभ मनुक्ख रूपमे छी, मनुक्खसँ पैछला माने पूर्वक रूप, तात्त्विक दृष्टिसँ, माने छिति जल पावक गगन समीरा इत्यादि, विकास क्रममे बढ़ैत जीवक विकासमे मनुक्ख अन्तिम जीव छैथ, माने पाँचो तत्त्वसँ सम्पन्न, तँए सभ गुण सम्पन्न छथिए। ऐठाम ई नइ बुझब जे त्रेतायुगक रामकेँ साठिये कलाक बोध छेलैन आ द्वापर युगक कृष्णकेँ चारि कला बेसी भेने चौंसठ कलाक बोध भेलैन। ऐठाम अबैत-अबैत, माने विचारक मथन करैत-करैत खुशीलाल भाय विचारि लेलैन जे असगरमे किछु सोचब-विचारबसँ नीक जे कम-सँ-कम दू गोरे बीच विचार करी जे बेसी नीक हएत। बेसी नीकक माने ई जे जखने दुनू गोरेक कर्म आ विचारमे एकरूपता औत तखने जीवनमे एकरूपता सेहो बढ़त। जखने दू गोरेक जीवनमे एकरूपता बढ़त आ ओइ एकरूपतामे केतौ भूर-भार (छेद-बिच्छेद) नहि बनाएब, तखने जीवन पद्धतिक रूप बदलए-बढ़ए लगत। तँए जखन मकशूदन काका ऐठाम विदा भेल छी तखन पहिने ओहीठाम पहुँचब नीक, पछाइत बुझल जेतइ।
चिन्तित मन जखन विचारक जलसँ सिंचित होइए तखन जहिना माटिक सुगन्ध उठैए तहिना खुशीलाल भाइक मनमे सेहो उठलैन जइसँ डेग बढ़ैक गति, गति पकड़लकैन। जहिना आवश्यक काज एलासँ डेग नम्हरो होइए आ तेज सेहो होइए तहिना खुशीलाल भायकेँ सेहो भेलैन। रस्ताक सुधिये-बुधि बेसुधि-बुधि भऽ गेलैन। जइसँ बुझबे ने केलाह जे मकशूदन काका ऐठाम केना पहुँच गेलौं।
अप्पन जीवनक बेवहारक अनुकूल खुशीलाल भायकेँ दरबज्जापर अबैत देखिते मकशूदन काका बजला-
“बौआ खुशी, खुशीसँ रहल करह।”
मकशूदन कक्काक विचार सुनि खुशीलाल भाय बजला-
“काका, हमर प्रणाम करब बाँकीए अछि आ अहाँ जे पहिने आसीरवादे दऽ देलौं से अगुताएब भेल।”
खुशीलाल भाइक मन टोबैले, ऐठाम अर्जुन आ अभिमन्युक माथ टोबब नइ बुझू, मकशूदन काका बजला-
“बौआ खुशी, हम्मर आसीरवाद की भकभकौलकह जे एना भकभका कऽ बजलह अछि?”
खुशीलाल भाय मने-मन विचारलैन जे फाँटिपर मकशूदन काका चढ़ि गेला। फेर लगले अपने मन रोकैत विचार देलकैन जे एहेन कोनो आइये भेल अछि से बात नहि, अदौसँ होइत आबि रहल अछि जे गुरु-शिष्यक बीच सेहो कहा-कही होइत रहल अछि। तैठाम एते गुण तँ रहबे कएल जे कहा-कहीक पछातियो दुनू गोरे, माने गुरु-शिष्य, मनुक्खकेँ एकलव्य जकाँ बीचमे ठाढ़ करैत रणकौशलक सामंजस्य करबे करैत आबि रहला अछि। समतुल्य होइत खुशीलाल भाय बजला-
“काका, अपने जँ खुशीसँ रहौ चाहब तँ समाजक लोक थोड़े खुशीसँ रहए देता।”
समाजक नाओं सुनि आकि कोनो दोसरे तरहक विचारसँ मकशूदन कक्काक मन काँट भेल जे अँटकल छेलैन से तँ मकशूदन काका अपने जनता, मुदा तुरैछकऽ बजला-
“बौआ खुशी, समाजकेँ मारह मुँह।”
‘समाजकेँ मारह मुँह’ सुनि खुशीलाल भाइक मनमे जिज्ञासा भेलैन जे एना समाजपर मकशूदन काका बिगड़ल किए छैथ, मुदा सोझा-सोझी कहबो केना करितैन जे जखन ‘समाजकेँ मुँह मारब तखन रहब केतए?’
ऐठाम मुँह मारबक एक अर्थ अछि खुलिकऽ बाजब आ दोसर अर्थ अछि, समाजसँ कोनो मतलबे ने राखब। ओझराएल विचार सुनि खुशीलाल भाय बजला-
“से की काका?”
मकशूदन काका बजला-
“बौआ खुशी, राजसत्तासँ साहित्य-कला जहिना कखनो आगू बढ़ि जाइए तहिना पाछू सेहो होइते अछि। मुदा दुनू जखन संग-संग चलत तखन ने संग मिलि चलब भेल। मुदा से तँ होइ नइ अछि, तँए त्रिशंकुपर लटकल गामे जकाँ सभ किछु भऽ गेल अछि।”
मकशूदन कक्काक विचार खुशीलाल भाय अधा-छिधा बुझबो केलैन आ अधा-छिधा नहियोँ बुझलैन, तँए मन घोर-मट्ठा हुअ लगलैन। घोर-मट्ठा होइत मनमे उठलैन जे अनेरे मकशूदन कक्काक शिकारमे ओझराएब उचित नहि, अपने सभ साल जुड़शीतल पावनिमे नढ़िया-खिखिरक शिकार खेलाइ छी, तैठाम हरिण आकि मृगक शिकार खेलाएब असान अछि। मनकेँ थतमारि खुशीलाल भाय बजला-
“काका, एकटा काजे गाम दिस विदा भेल छी, मनमे भेल जे पहिने मकशूदन काकासँ विचारि लेब बेसी नीक हएत तँए एलौं अछि।”
अप्पन उड़ल मनक विचारकेँ समटैत मकशूदन काका बजला-
“भने तूँ मोन पाड़ि देलह। तोहर आसीरवादो बाँकीए रहि गेल छेलह किने।”
खुशीलाल भाय बजला-
“काका, आइ सोमवारी पाबैन छी, सएह पुछए एलौं। ओना, ऐठामसँ उठि गामे दिस होइत जाएब, मुदा…।”
खुशीलाल भाइक विचार सुनि हँसैत मकशूदन काका बजला-
“बौआ खुशी, एकटा कहबी अछि जे ‘अपना मनक मौजी, बहुकेँ कहलौं भौजी’। ओना, गाड़ी-सवारीक यात्रामे एहेन होइतो अछि, मुदा परिवार तँ परिवार छी।”
विचारक सहमे खुशीलाल भाय बजला-
“हँ से तँ छीहे।”
खुशीलाल भाइक विचारक सह पेब मकशूदन काका सहियारिकऽ बजला-
“बौआ, पुरना माने पहिलुका बहुत पावनियो आ पावनिक विधो-बेवहार मेटा रहल अछि, बहुत मेटाइयो गेल, मुदा आजुक वैज्ञानिक युगमे अन्ध-विश्वासो कम बढ़ल अछि सेहो नहियेँ कहल जा सकैए।”
ओना, मकशूदन काका झाँपि-तोपिकऽ बजला, जइसँ खुशीलाल भाइक मन तुष्ट नहियेँ भेलैन, मुदा मनक जे जिज्ञासा छेलैन तइ निमित्ते गाममे घुमि-फिरिकऽ देखब नीक बुझलैन। खुशीलाल भाय बजला-
“काका, अखन जाइ छी, काल्हि साँझूपहर आएब आ निचेनसँ सभ गप करब।”
मकशूदन काका बजला-
“बड़बढ़ियाँ, जाह।”
मुराम जगह
आने गाम जकाँ कुमारघाट सेहो एकटा गाम अछि। गामक चौबगली गाम जहिना ऊँचगर अछि, जइसँ चासक संग बासो ऊँचगर रहने नीक सेहो अछिए। ओना, कुमारघाटमे अखन, वर्तमानमे कोनो धार-धुर नहि अछि, जे अछियो से गामसँ आठ-दस किलोमीटर हटले अछि, मुदा गामक किछु गहींर जमीन जे उत्तरसँ दच्छिन-मुहेँ अछि, ओकरा लोक अखनो नदीए कहैए। आन-आन खेतसँ माटियो भिन्न अछिए। माने ई जे गामक जेतेक जमीन अछि ओ अछि मटियार, खरिआइ, चिक्कैन इत्यादि माटिक, आ नदीक बगलक जे जमीन अछि ओकर माटि दोरस, दोमट अछि आ नदी पेटक जे माटि अछि ओ गोंगा बाउल आ दोखरा बालुक तँ नहि अछि मुदा मेहिकी कोसिपुरिया बाउल जरूर अछि। गहींरगर रहने आने गहींर खेत जकाँ फसल सेहो होइते अछि। लोकक अबाहि भेने गाम-समाजक जनसंख्या सेहो बढ़िते आबि रहल अछि। जखने जनसंख्याक बढ़ोत्तरी हएत तखने परिवार बढ़त आ परिवारमे भीन-भीनौज भेने घर-अँगना बढ़बे करत, जइसँ घराड़ीक खगता सेहो बढ़बे करैए। से कुमारघाटमे सेहो भेल जइसँ नदीकेँ, माने मुइलहा नदीकेँ भरि-भरि घर-अँगना सेहो करीब पचास गोरे बना नेने छैथ। गामक माटिये जकाँ गाममे अनेको जातिक बास सेहो अछिए। ऐठाम ई नहि कहए चाहै छी जे गाम भलेँ सभ जाइतिक किए ने हुअए मुदा कहबैए खास जातिक गाम, कारण जे होइ, बस एतबे कहए चाहै छी जे जहिना सभ गाममे खूबलाल, बिपैतलाल आ कारीलाल छैथ तहिना कुमारघाटमे सेहो खूबलालो, बिपैतलालो आ कारियोलाल छथिए। नाम भलेँ एहने आन गाममे नहि हुअए, मुदा लोक तँ ओहन छेबे करैथ जेकर किरिया-करम आ चालि-ढालिमे एकरंगाहे जकाँ अछि।
परोपट्टामे पान-सातटा सभसँ ऊँचगर गाम अछि, ऊँचगर गामक माने ऐठाम भौगोलिक अछि। भौगोलिक ई अछि जे एकोठामक दू गाम एहेन अछि जे एकटा गाम खूब ऊँचगर अछि आ दोसर गाम नीचरस। जइसँ विपरीत परिस्थिति एकठाम दूटा गामकेँ रहितो भइये जाइ छै। जँ बरखा-बाढ़िक प्रभाव बेसी पड़ल तँ ऊँचगर गामक मुँह-कान लाल भऽ जाइ छै आ नीचरस गामक मुँह मलिन भऽ कारी भऽ जाइ छै। मुदा लगले विपरीत परिस्थिति सेहो बनिते अछि। ओ बनैए जे जँ बरखा कम भेल जइसँ बाढ़ियो ने आएल आ रौदी भऽ गेल, तखन नीचरस गामक, उपजा-बाड़ी भेने, मुँह-कान लाल भऽ जाइए आ ऊँचगर गामक मुँह मलिन भऽ करिया सेहो जाइते अछि।
परोपट्टाक पाँचो-सातो गामक एहेन सौभाग्य बनियेँ गेल अछि जे उपजाक दृष्टिसँ परोपट्टामे खुशहाल गाम मानले जाइए। मानलो केना ने जाएत? मानि लिअ अहाँ आमक बजार जाइ छी, जाइते अपन मिथिलाक आम मोन पड़बे करैत हएत। जखने मोन पड़त तखने करपुरियाक करपुरक सुगन्ध आ बेलबाक बेलक सुगन्ध मनमे लगबे करत। जखने से भेल, माने आमक प्रति आकर्षण बढ़ल तखने ने विचारए पड़त जे गाम अछि कोसी-कमलाक सासुर बनल आ अपने मन दौड़बै छी फल-फुलवनपर.! ऐठाम एकटा विचारणीय प्रश्न अछि, ओ अछि जे की ओहन गाम जे गामक बीच गाम अछि, माने कोसी-कमलाक झमारसँ बाहरक गाम अछि, तेही गामटा मे करपुरियाक आ बेलबाक सुगन्ध लगि सकैए आ बाँकी गाममे नहि लागि सकैए, सेहो बात नहियेँ अछि। जँ नीचरस गाम अछि तँ ओइमे किछुकेँ विशेष गहींर बना माछ, मखान, सिंगहार, बर्ड़ी इत्यादि उपजौल जा सकैए आ भरोठापर फल-फुलवन सेहो लगौले जा सकैए।
आने-आन गाम जकाँ कुमारघाटक लोक सेहो एहने छैथ जे पढ़ैक माने नोकरीए बुझै छैथ। गुलटेन आ तेतर सेहो कँवरिया जकाँ, गाम लग माने पैरक नापसँ दू कोसपर कौलेज खुजने, बी.ए. तक पहुँच गेल। पाछुआएल लोक जँ सिहन्ते करत तँ ओते ओजार-पाती जुटा केना पाबि सकैए। तखन तँ भेल जे साँपो मरि जाए आ लाठियो ने टुटए। स्नातक सेहो भऽ जाएब आ बेसी ओजार-पातीक ओरियानसँ सेहो बँचि जाएब। तँए जहिना तेतर दर्शनशास्त्र, मैथिली विषय रखि स्नातक बनए जा रहल अछि तहिना गुलटेन सेहो बनए जा रहल अछि। गामक स्कूलसँ कौलेज धरि दुनूक एके रंग जिनगी रहल तँए परिस्थिति दोस्तीक लग आनिये देने छेलइ। दुनूक बीच दोस्ती भइये गेल। ओना, दुनू दू जाइतिक छी मुदा परिवारक अर्थेपार्जनक साधन एकरंग रहने जिनगीक आचार-विचार-बेवहारमे एकरूपता आबिये गेल अछि।
संजोग बनल, बी.ए.मे जखन दुनू गोरे माने तेतरो आ गुलटेनो पढ़ै छल, दर्शनशास्त्रक शिक्षक ट्यूटोरियल क्लासमे पहुँचला, तखन मात्र दूइयेटा विद्यार्थी, तेतर आ गुलटेनकेँ दीनानाथ बाबू देखलैन। देखिते दीनानाथ बाबूक मन मुसैक गेलैन। मुसकैक कारण भेलैन जे संजोग नीक अछि। आइये किए ने दुनूकेँ जिनगीक मुराम जगह देखा दिऐ।
सामान्य क्लासमे शिक्षक पढ़बै छैथ, मुदा ट्यूटोरियल क्लास तँ से नहि छी, शिक्षके विद्यार्थीकेँ पुछै छैथ। भेल तँ जइ मुहेँक प्रश्न उठल, उत्तर देनिहार तइ मुहेँ विदा हएत। सएह भेल। शिक्षक प्रश्न रखलैन-
“अध्यात्म दर्शन की छी?”
अध्यात्मक नाओं जहिना तेतर सुनने तहिना गुलटेन सेहो सुननहि रहए मुदा दार्शनिक शिक्षक लग जवाब देब असान नहियेँ छी, मुदा तैयो जहिना तेतर जाइतिक आधारपर अध्यात्मक उत्तर देलकैन तहिना गुलटेन सेहो सम्प्रदायिक आधारपर उत्तर देलकैन।
दुनूक उत्तर सुनि शिक्षक बिगड़ला नहि, ओना दर्शनशास्त्रक शिक्षककेँ क्रोध लगले उठि जाइ छैन से गुण दीनानाथ बाबूमे नहि छैन। धिया-पुताक गलती देखि जहिना माता-पिता हँसि कऽ कहै छैथ- ‘धुर बकलेल’, तहिना दीनानाथ बाबू बजला-
“धुर बकलेल, अध्यात्म दर्शन जीवनक ओ दिशा देखबैए जे जीबैक कलामे सभसँ असान अछि।”
दीनानाथ बाबूक विचार सुनि जहिना तेतरकेँ उत्कण्ठा जगल तहिना गुलटेनकेँ सेहो जगल। उत्कण्ठा जगिते जेना गुलटेनो मनमे आ तेतरोक मनमे अनेको जिज्ञासा जगि गेल, जे प्रश्न बनि मुहसँ निकलए चाहि रहल छेलै, तँए दुनू अपन-अपन प्रश्न उठबैले ब्रेंचपर सँ निच्चॉंमे दुनू गोरे ठाढ़ भेल। दुनूक जिज्ञासा देख, दीनानाथ बाबू दुनूकेँ कहलैन-
“अपन-अपन प्रश्न कागजपर लिखू।”
टटका प्रवाह तँए लिखबो लेल अनुकूले भेल, दुनू गोरे अपन-अपन प्रश्न अपन-अपन कागजपर लिखि दीनानाथ बाबूक हाथमे दऽ देलकैन।
दुनूक प्रश्न देखि दीनानाथ बाबू मने-मन विहियबैत विचारलैन जे किए ने आमक आँठीए लग पहुँच, धरतीसँ अकास धरिक वृतान्त बुझा दिऐ। दीनानाथ बाबू बजला-
“बौआ, एकरा नीक जकाँ बुझि लेब जे मनुक्ख अपने काज केने सुखो पबैए आ दुखो पबैए, यएह जवाब भेल अध्यात्म ज्ञान आ मानव भेल दर्शन।”
दीनानाथ बाबूक परिभाषाक शब्द एतेक असान छेलैन जे शब्दक ओझरौठक विचार दुनूमे सँ केकरो ने उठल। तँए कि परिभाषाक बीज परेख सकल, सेहो नहियेँ भेल। मुदा दुनूक मन जेना मस्त होइत आगू मुहेँ बढ़ए लगल तहिना दुनूकेँ भइये रहल छल। ओना, दीनानाथ बाबूक मनमे सेहो एकटा भ्रम पैदा लऽ लेलकैन। भ्रम ई जे अपने मने ने बुझलैन जे जहिना अपने अध्यात्म दर्शनक बाहरी रूप बुझि रहल छी तहिना गुलटेनो आ तेतरो बुझने हएत। मुदा से तँ भेल नहि, परिभाषा तँ जीवन-धारा नहि छी, जीवन-सूत्र छी, जैपर दीनानाथ बाबूक नजैर नहि गेलैन। नजैरियो केना जइतैन? अपन जानब, मानब आ करब माने अपन बुधि, विचार आ बेवहार एक बनि चलै छैन तँए नजैरसँ फड़ैक गेल छेलैन।
अध्यात्म दर्शनक परिभाषा सुनि जहिना गुलटेनकेँ भेल जे जीवनक रत्न भेट गेल तहिना तेतरोकेँ भेल। मुदा ई बुझबे ने केलक जे जखन देव-दानव समुद्र मथन केलैन तखन नूनगरहा पानिकेँ मथैत-मथैत जखन समुद्रक पेनी देखलैन माने समुद्रक थाह पौलैन तखन ने रत्न सभक खान भेटलैन। खाएर जे बुझलैन, मुदा एते आशा तँ मनमे आबिये गेलैन जे अध्यात्म दर्शन जीवनक पूर्ण सूत्र छी तँए जँ ऐ सूत्रकेँ पकैड़ जीवनक घाट पार करए चाहब तँ पार भइये सकै छी। गुलटेन बाजल-
“श्रीमान्, सूत्रक धागाक धारण केतएसँ शुरू होइए?”
गुलटेनक प्रश्न सुनि दीनानाथ बाबूक मनमे दोहरी विचार जगि गेलैन, पहिल आत्मात्मिक जिनगीक शुरूआत आ दोसर जगलैन रंगमंचपर जहिना सूत्रधार नाटकक रहस्यकेँ कवित्व स्वरमे सुना दइ छैथ तहिना सुना देब।
..दुनूक बीच माने दुनू विचारक बीच, दीनानाथ बाबूक मनमे द्वन्द्व उठिये गेल छेलैन। मुदा तेकरा ओ दर्शनक दृष्टिसँ मनेमे समाधान केलैन। समाधान केलैन जे अन्हार-इजोतक बीच द्वन्द्व रहैए, मुदा जहिना अन्हारकेँ मेटाइते द्वन्द्व समाप्त भऽ जाइए तहिना सभ किछुमे अछि। अपनाकेँ निरविचार दार्शनिकक रूपमे स्थापित करैत दीनानाथ बाबू बजला-
“बौआ सभ सुनह। दुनियाँकेँ देखैसँ पहिने अपनाकेँ देखि लएह। जखन अपन रूपक थाह पेब जेबह तखन दुनियोँक, ऐठाम दुनियाँक माने अपन जीवनक दुनियाँसँ अछि, थाह पेब सकबह।”
जहिना तेतर अधा-छिधा विचार दीनानाथ बाबूक बुझलक तहिना गुलटेनो बुझलक। जखने अधा-छिधा विचार बुझलक तखने दुनूक मनमे उठल- जे नइ बुझलौं से दोहरा कऽ किए ने बुझि ली। तँए दुनू अपन-अपन प्रश्न लऽ लऽ उठि कऽ ठाढ़ भेल।
दुनूकेँ उठि कऽ ठाढ़ होइत देखि दीनानाथ बाबूक मन हलैस कऽ कलैस गेलैन। कलैसते विचार जगलैन जे किए ने पहिने अपन जिनगीकेँ अपना हाथमे रखि चलैक विचार बुझा दिऐ। जखन लोककेँ जीबैक लूरि हएत तखने ने ओ आगू ताकत जे परिवार की छी, समाज की छी, कला की छी आ संस्कृति की छी…। दीनानाथ बाबू बजला-
“बौआ सभ, अखन तोरा दुनू गोरेकेँ माता-पिता कोन तरहक जीवन बनेने छथुन?”
जीवनक आँकक ठेकान ने तेतरेकेँ छल आ ने गुलटेनेकेँ छल। नइ रहैक कारणो स्पष्ट अछिए। जन्मसँ लऽ कऽ अखन तक माता-पिताक आश्रयमे रहल अछि। सभ माता-पिता अपन बाल-बच्चाकेँ छातीमे सटा ऊपरसँ ऊपर पहुँचैक कामना ता-जिनगी करिते छैथ जा-जिनगी बाल-बच्चाकेँ बाल-बोध बुझै छैथ। ऐठाम बाल-बोधक माने अछि एकबट्टू दिशाक। मुदा जखन बाल-बच्चामे अगर-मगर पनपए लगै तखने ओइमे मोड़ दैत सोझ करैत चली। जेकर अभाव मातो-पितामे भइये जाइ छैन। जइले कोनो साकार-स्वरूपक उदाहरण जरूरी भइये जाइए। ओना, उदाहरण आदि मानवसँ आजुक मानव धरिक वृतान्तसँ शास्त्र-पुराण भरले अछि, अपन जीवनक करीबक घटना तँ दोसरठाम भेट सकैए मुदा स्वयं घटित घटना तँ अपन-अपन होइते अछि..। विचारक गहराइमे दीनानाथ बाबूक मन जेना-जेना तरियाइत गेलैन तेना-तेना नव-नव प्रश्नो सभ सोझमे अबैत गेलैन। विचारसँ विचार जहिना जन्म लइए तहिना दोसरो विचार बनैए आ दोसरक सहायक सेहो बनिते अछि, तँए कहब जे विचारकेँ विचार उला-पका नहि खाइए, सेहो बात नहियेँ अछि, सेहो अछिए। ..द्वन्द्वमे पड़ल दीनानाथ बाबूक मन लगले सफेदसँ लाल हुअ लगैन आ लगले लालसँ करियाइयो लगलैन। बेसी रंग पड़ने एना होइतो अछिए।
द्वन्द्वसँ विचार निर्द्वन्द्व होइते दीनानाथ बाबूक मन गवाही देलकैन जे अपनो तँ दोसरेक अनुकरणसँ अनुक्रमित भेलौं, तहिना गुलटेनो आ तेतरो किए ने भऽ सकैए। तैसंग मन ईहो कहलकैन जे राम-रावणक थाह अथाह अछि, ने अयोध्याक ठेकान अछि आ ने लंकाक। जखन धरतियेक ठेकान नहि अछि तखन धरती-धारकक ठेकान की रहत। मुदा अपनो मिथिला जीवनदायिनी जानकीक जन्मभूमि नहि छी सेहो तँ नहियेँ कहल जा सकैए। जानकीक जीवन दर्शन पेबिते दीनानाथ बाबूक मन तड़तड़ा कऽ फड़फड़ा उठलैन। फड़फड़ाइते बजला-
“बौआ, लक्ष्मीनाथ गोसाईंक नाम सुनने छुहुन?”
दुनू गोरे अपना-अपना मने लक्ष्मीनाथ गोसाईंकेँ ताकए बुधिक वनमे बिचड़ए लगल। लकड़ी खोजनिहारकेँ वनमे लकड़ी नइ भेटै छै आ घर दिस जखन विदा होइए तखन जहिना आशा टुटि गेल रहै छै तहिना गुलटेनोकेँ भेल। ओना, तेतरक मनक चुहचुही थोड़-थाड़ जरूर चुहचुहा गेल छेलइ। चुहचुहाइक कारण भेलै जे जखन अपना गामसँ मात्रिक जाइए तखन लखनौरमे लक्ष्मीनाथ गोसाईंक स्थानक दर्शन होइ छै, जेकरा आगुए देने रस्ता अछि। स्थान बुझि जेबोकाल माने मात्रिक जेबाकाल आ एबोकाल लक्ष्मीनाथ गोसाईंक स्थानकेँ गोड़ लगिते अछि, तँए नाम मोन छेलै, जइसँ मनक चुहचुही चुहचुहा गेलइ…। तेतरक हरियर मन देखि दीनानाथ बाबू बुझि गेला जे जरूर किछु देखल वा सुनल बात तेतरकेँ अछि। दुखीकेँ दुख बेसाहब नीक नहि तँए जेत्तै दुख गुलटेनक मनमे छै ओकरा ओतै रोकि, ओइसँ काते-कात दोसर दिशामे मोड़ि किए ने जीवनक प्रवाहकेँ प्रवाहित कऽ दिऐ…।
तेतरकेँ दीनानाथ बाबू पुछलैन-
“बौआ, तोरा लक्ष्मीनाथ गोसाईंक विषयमे की सभ बुझल छह?”
ओना, दुनू गोरे माने तेतरो आ गुलटेनो अखन बी.ए.क ट्यूटोरियल क्लासमे दीनानाथ बाबूक संग गप-सप्प कऽ रहल अछि, मुदा जीवनो तँ जीवन छीहे।
तेतर बाजल-
“श्रीमान्, स्थानक घर तँ खढ़े-पातक छैन मुदा कुट्टीक बीचमे एक जोड़ खराम सेहो छैन।”
ओना, दीनानाथ बाबू लक्ष्मीनाथ गोसाईंक अनेको कुट्टी (स्थान) देखनहि छैथ, तँए किए मनमे उठितैन जे वन गमनक बीच जहिना रामक खराम अयोध्याक राजधानीकेँ सुशोभित केने रहल तहिना लक्ष्मीनाथ गोसाईंक खराम सेहो मिथिलाक धरतीकेँ सुशोभित केनहि अछि। दीनानाथ बाबू बजला-
“आरो किछु?”
तेतर-
“नहि।”
जहिना कोनो किसानकेँ आँखिक देखल कोनो फसलक खेती रहल से अनुभव आ सोझे कानसँ सुनल रहल तइ विचारमे अन्तर आबिये जाइए। एक भेल अनुभवयुक्त विचार, दोसर भेल अनुभवहीन विचार। दीनानाथ बाबू बजला-
“बौआ, एक्के घन्टाक घण्टीमे केते कहि सकबह आकि तोहीं केते सुनि सकबह। तँए लक्ष्मीनाथ गोसाईंक जे मुराम चारि जगह छैन, तेते तँ कहि देब आवश्यके नहि अनिवार्य सेहो अछि।”
दीनानाथ बाबूक विचार सुनि गुलटेनक मनमे उठल जे जँ श्रीमान् एकलखाइते जँ चारू बात संगे बजता तखन अपनेसँ अड़ियाएब कने भारी भऽ जाएत। भारीए टा नहि भऽ सकैए, एक-दोसरमे ओझरा सेहो सकैए, तँए नीक हएत जे किए ने श्रीमानेसँ चारू बातकेँ फुटा-फुटा कहैले पहिनहि कहि दिऐन। गुलटेन बाजल-
“श्रीमान्, चारू बातकेँ अड़िया-अड़िया कऽ कहबै तँ अपना बुझैमे बेसी नीक हएत।”
ओना, गुलटेनक विचारपर दीनानाथ बाबू ओते धियान नहि देलैन, जइ धियानसँ गुलटेन प्रश्न रखने छला। तेकर कारण दीनानाथ बाबूक मनमे ई एलैन जे एक-दू-तीन-चारि विषयमे प्रवेश करैसँ पहिने अंकसँ खतिया देब। एतबो जँ नहि बुझि सकत तँ लक्ष्मीनाथ गोसाईंक जीवन-दर्शन बुझि सकत। दीनानाथ बाबू बजला-
“पहिल अंक, लक्ष्मीनाथ गोसाईंक जन्म सत्तरह साए तिरानबे (1793) इस्वीमे भेलैन। ओना, किछु गोरे 1788 इस्वी सेहो मानै छैन। परसरमा वासी श्री बच्चा झाक ओ कनिष्ठ पुत्र छला। हिनकर बच्चाक नाओं ‘लच्छन’ छल। जिनकर जेठ भाए रघुनाथ झा छला। दरभंगा जिलान्तर्गत सोखदत ठाकुरक कन्याक संग विवाह भेलैन। हिनक मृत्यु अगहनक पंचमी, 5 दिसम्बर 1872 इस्वीमे भेलैन। 1811 इस्वीसँ रचना करए लगला।”
अपना जनैत गुलटेनो आ तेतरो अपन बुझबकेँ अँकलक। जइ हिसाबसँ दीनानाथ बाबू बजला ओइ हिसाबमे दुनूकेँ केतौ चमत्कार वा आश्चर्यचकित करैबला बात नजैरमे नहि आएल। एक अंक समाप्त करैत दीनानाथ बाबू श्रोताक प्रतिक्रियाक प्रतीक्षा करिते रहैथ कि तेतर बाजल-
“श्रीमान्, लक्ष्मीनाथ गोसाईंक जीवन तँ एक साधारणे मनुक्ख जकाँ छेलैन?”
तेतरक विचारकेँ समर्थन करैत गुलटेन बाजल-
“हमरो सएह बुझिमे आएल।”
तेतरो आ गुलटेनोक विचारमे जे एकरूपता छल ओकरा पकैड़ दीनानाथ बाबू बजला-
“सोल्होअना सही बुझलह। एकटा साधारण परिवारमे लक्ष्मीनाथ गोसाईंक जन्म भेल छेलैन। जहिना सबहक जन्म परिवारमे होइए।”
ऐगला विचार दीनानाथ बाबू ऐ दुआरे नहि अनलैन जे भने खत्ती दैत चलब जइसँ जिनगी खँतिया जाएत। जखने जिनगी खतियाइ छै आकि अनेरे ने लोक बुझए लगैए जे भाय पढ़ैमे अनठेलिऐ तँए भुसकौल भेलौं आ काजमे अनठेलौं तँए काजक चोर भेलौं। आब अहाँ कहब जे सर्टिफाइड कॉपी देखाउ, से हम केतएसँ देखाएब, ओ तँ अपन जीवने ने दर्शन करौत।
तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास इत्यादिकेँ अपन मनक पीपासा जहिना जगि गेल रहैन तहिना लक्ष्मीनाथ गोसाईंकेँ सेहो आध्यात्मिक चेतना तेना प्रवल रूपमे जगि गेलैन जे कवित्व शक्ति पैदा सेहो लऽ लेलकैन। अपनाकेँ ऊँच्चकोटिक आत्मिक जीवन धारण करैक पाछू लक्ष्मीनाथ गोसाईं संघर्षशील जीवनमे डेग बढ़ौलैन, जेकरा ता-जीवन, माने जीवनक अन्तिम समय तक, निर्वहन केलैन। सएह निरविचारी महात्मा लक्ष्मीनाथ गोसाईंजी छैथ।
तेतरो आ गुलटेनोकेँ दीनानाथ बाबू ई सोचि पुछए चाहलैन जे भोजैत केहनो अकवाली किए ने होथि मुदा भोजक भाग्य लिखता भोज खेनिहार। तँए एकबेर जस-अजसक विचार बुझि ली। दीनानाथ बाबू बजला-
“लक्ष्मीनाथ गोसाईं सोल्होअना मनुक्ख छला, तइमे केतौ शंको छह?”
दुनू गोरे एकेस्वरमे बाजल-
“नहि।”
दीनानाथ बाबू बजला-
“पहिने हुनकर विचार बुझि लएह, पछाइत देवत्व शक्ति केना जगलैन आ अपना जीवनमे ओ की सभ केलैन से कहबह।”
ओना, दुनूक मन माने तेतरो आ गुलटेनोक मन क्रमसँ आगू बढ़ि ओइ सीढ़ीपर पहुँच गेल जेतए हुनका देवत्व शक्ति प्राप्त भेलैन। मुदा तेकरा नजरअन्दाज करैत दीनानाथ बाबू बजला-
“लक्ष्मीनाथ गोसाईंकेँ समाजमे पसरल रूढ़िवादी विचारधारा, जेना पसरल अछि, तेना जँ ओकरा तोड़ल (हटौल) नहि जाएत तँ समाजक प्रवाह अन्धकार दिस बढ़ि जाएत।”
दीनानाथ बाबूक विचार सुनि तेतरो आ गुलटेनो सकपका गेल। सकपकाइक कारण दुनूकेँ दुनू भेल। पहिल विषयक गम्भीरता आ दोसर शब्दक गम्भीरता नहि बुझि सकल। जे बात दीनानाथ बाबू सेहो मने-मन आँकि लेलैन, मुदा प्रश्नक बरखा दुनूक मनमे तेना झहरए लगल जेना बदरीहन मेघ अकासमे मर्ड़ाइत रहैए। तँए प्रश्नक टोहकेँ टोहियबैक सीमापर दीनानाथ बाबू अपनाकेँ ठाढ़ केलैन।
विचारक गम्भीरताकेँ ने तेतरे सोझरा कऽ बुझि सकल आ ने गुलटेने बुझि सकल तँए अपन-अपन मनक आशा हारि दुनू संगे बाजल-
“श्रीमान्, नीक जकाँ नहि बुझि पेलौं तँए नीक जकाँ कनी..?”
दीनानाथ बाबू बजला-
“गमैया भाषामे बुझा दइ छिअ। दूटा विचारक प्रश्न अछि, पहिल- लक्ष्मीनाथ गोसाईंकेँ जाइतिक रूपमे जे जागरण छेलैन आ दोसर- सम्प्रदायकेँ सघन धार्मिक सीमाक रूपमे जे जागरण छेलैन।”
गुलटेन बाजल-
“श्रीमान्, नीक जकाँ नहि बुझि पेब रहल छी।”
गुलटेनक विचारकेँ दीनानाथ बाबू मने-मन आँकि लेलैन जे समाजक जे तलहत्थी छै तइमे आ वैचारिक जे धरातल समाजमे अछि तइमे अकास-पतालक अन्तर अछिए। तेकरा अकानैत दीनानाथ बाबू बजला-
“दुनू गोरे नीक जकाँ सुनह। लक्ष्मीनाथ गोसाईंक जन्म जहिया भेलैन तहिया अंगरेजी शासन देशमे पसैर गेल छल। तैसंग राजा-रजबारक राजशाही शासन सेहो पहिनहिसँ आबि रहल छल। पैछला जे इतिहास रहल सेहो राजे-रजबारासँ होइत आबि रहल छल।”
इतिहासक नव बात सुनने, नव बातक माने भेल विद्यार्थी तेतर आ गुलटेनक रूपमे जहिना तेतरक जिज्ञासा जगल तहिना गुलटेनक सेहो जगल। गुलटेन बाजल- “कनी आरो फरिछा कऽ कहियौ।”
विचारकेँ विराम दैत दीनानाथ बाबू बजला- “जेतबे समय घन्टीक शेष बँचल अछि तेतबे ने अखन कहि सकबह, तँए आन दिन नीक जकाँ कहबह। अखन एतबे बुझह जे समाजमे पसरल जे जाति-सम्प्रदाय अछि तइसँ बहुत ऊपर उठल विचार लक्ष्मीनाथ गोसाईंक छेलैन। ओ जहिना देशक प्रमुख देवस्थानक भ्रमण केलैन तहिना मिथिला-भ्रमण सेहो केलैन। अखन से सभ नहि। लक्ष्मीनाथ गोसाईंकेँ जहिना क्रिश्चन धर्मबला शिष्य जौन-वरिआही कोठीक छेलैन तहिना मुसलमानी सम्प्रदायक मुंगेरक मुहम्मद गौस सेहो छेलैन, तहिना प्रयागक राजाराम शास्त्री सेहो छेलैन। अखन एतबे। किए तँ जन-जनमे बास करैबला लक्ष्मीनाथ गोसाईं जन-जागरण केना केलैन, मुख्य विषय से अछि।”
ओना, जन-जागरण शब्द दुनू गोरे सुनने अछि मुदा ओकर बेवहारिक पक्ष की अछि तइसँ ने तेतरेकेँ आ ने गुलटेनेकेँ भेँट भेल छल। एक तँ नव शब्द, दोसर ओइ शब्दक माने जन-जागरण शब्दक बेवहारिक रूप सुनि दुनूक मनमे एकटा आरो नव चेतनाक जन्म भेल। ओ भेल ई जे जेते शब्द अछि की ओकर बेवहारिक पक्ष माने क्रियागत पक्ष सेहो अछि? मुदा बाजल दुनूमे सँ कियो ने किछु। तेकर कारण भेल जे दीनानाथ बाबूक मुहेँ सुनि चुकल छल जे जेतबे समय घन्टीक (ट्यूटोरियल क्लासक) शेष बँचल अछि तेतबे ने कहि सकबह। दुनूक मनमे छेलैहे जे पहिनहिसँ जे कहैत आबि रहला अछि पहिने ओ सुनब प्रमुख भेल। गुलटेन बाजल- “तीनटा बात तँ मोटा-मोटी आबिये गेल, शेष चारिम बाँकी अछि। तेकर उत्तर बुझला पछाइत जँ समय बँचत तँ रस्तो-रस्तो ऐ पश्नकेँ बुझि लेब।”
गुलटेनक बात सुनि दीनानाथ बाबूक मनमे उठलैन जे जखन मनक पिपासा एते उग्र भऽ जगि गेल छै तखन अपनो किए ने स्वाति नक्षत्रक बून जकाँ बरैसिये जाइ। मुदा लगले मन बिचड़ैत विचार देलकैन जे कोनो रोगक दबाइ खोराके-खोराक देब अधिक हितकर होइए, तहूमे जे सामाजिक रोग गाम-समाजक बीच पसरल अछि तेकरा जँ रानी सरंगाक खिस्सा जकाँ भरि राति सुनाइये देब तइसँ जे लाभक इच्छासँ सुनबए चाहि रहल छी से थोड़े हएत। ओ तखने हएत जखन एक-एक डेगकेँ हाथसँ नापि, हाथकेँ बीतसँ नापि आ बीतकेँ आँगुरसँ नापि ओकर रूप प्रकट करब। से तँ तखने सम्भव अछि जखन ओकर वैचारिक पक्षक संग बेवहारिक पक्ष सेहो राखल जाए। दीनानाथ बाबू बजला-
“पहिल आ दोसर-तेसर विचार बुझैमे केतौ कोनो बाधो बुझि पड़ि रहल छह?”
गुलटेन बाजल-
“नहि।”
तेतरकेँ सकपकाइत देखि दीनानाथ बाबू बजला-
“तेतर तोरा?”
तेतर बाजल-
“हँ। दोसर आ तेसर माने जाति आ सम्प्रदायक बीच स्पष्ट अन्तर नहि बुझिमे आएल।”
समयकेँ नजैरमे रखैत दीनानाथ बाबू बजला-
“दुनूक बीच अन्तर की अछि से नहि बुझि पेलह। मुदा दुनू की छी, केहेन अछि से तँ बुझबे केलह?”
तेतर-
“हँ।”
दीनानाथ बाबू बजला- “चलह, आगू चारिम बातमे आबह। साधारण परिवारमे जन्म नेने लक्ष्मीनाथ गोसाईं बच्चेसँ गाइयक चरवाहि करै छला। बच्चेसँ हुनकामे ज्ञानक पिपासा जगि गेलैन। जगैक अनेक कारणमे एकटा कारण ईहो रहलैन जे, ओना जन्म अठारहम शताब्दीमे भेल छेलैन मुदा से भेल छेलैन शताब्दीक उत्तरार्द्धमे। मात्र साते-आठे बर्खक अवस्थामे अठारहम शताब्दी समाप्त भऽ गेल। मिथिलांचलमे उन्नैसमी शताब्दीमे पच्चीसटा रौदी भेल अछि।”
रौदी सुनि गुलटैन बिच्चेमे बाजल- “बहुत रौदी भेल.!”
विचारक प्रवाहमे तँ गुलटेन बाजि गेल मुदा रौदीक प्रभाव की होइए, से थोड़े बुझैत रहए। मुराम जगह देखि दीनानाथ बाबू बजला-
“पहिने एक सालक रौदीक फलाफल सुनि लएह। पछाइत दू-सलिया, तीन-सलिया, चरि-सलिया, पँच-सलिया इत्यादि केते कहबह, अपना ऐठाम माने मिथिलामे बारह बर्ख तकक रौदी भेल अछि। बुझले हेतह जे सीताक जन्म जखन भेलैन तखन मिथिला बारह बर्खक रौदीमे चलि रहल छल।”
अखन तक जहिना गुलटेन तहिना तेतर, किताबमे तँ रौदी-दाही पढ़ने छल मुदा रौदी-दाहीक प्रभाव की होइ छै से थोड़े बुझै छल। दीनानाथ बाबूकेँ विषयमे आगू बढ़ैत देखि तेतर बाजल-
“श्रीमान्, पहिने एक-सलिया रौदीक प्रभाव कहियौ, पछाइत दू-सलिया-तीन-सलियाक विषयमे कहबै।”
तेतरक खँतियाएल विचार सुनि दीनानाथ बाबू बजला-
“बेस मोन पाड़ि देलह। एक-सलिया रौदीक भरपाइ करैमे परिवारकेँ पाँच साल लगैए। ओना, समय कम अछि, मोटा-मोटी ई बुझह जे आजुक जे परिवेश अछि माने आर्थिक रूपेँ, ओ बाबा लक्ष्मीनाथ गोसाईंजीक समयमे नहि छल। मुदा मनुक्खक की मूल समस्या अछि से नहि बुझै छला, सेहो बात नहियेँ अछि। जन-जनकेँ चिन्हैक चेतना लक्ष्मीनाथ गोसाईंकेँ छेलैन। एक तँ ओहुना दस-एगारह बर्खक पछाइत लक्ष्मीनाथ गोसाईं घरसँ निकैल विद्वत समाजक बीच अपन मनक जिज्ञासाकेँ पूर्ति करै छला, तैसंग अपन चिन्तन-मननकेँ सेहो प्रवाह-पूर्ण बनबैत आगू बढ़ैत रहला। नेपालक यात्राक बीच नाथ सम्प्रदायबला सभसँ सेहो भेँट भेलैन जइसँ विचारमे आरो परिपक्वता एलैन।”
ओना, लक्ष्मीनाथ गोसाईं देशक प्रमुख धार्मिक तीर्थ-स्थानक भ्रमण सेहो केलैन, मुदा से दोसर-तेसर भ्रमणकर्तासँ भिन्न विचारक रूपमे केलैन। ओ भिन्न-रूप छेलैन देश-कोससँ लऽ कऽ ओइठामक जीवन-दर्शनकेँ परिखब। तैबीच कवित्व शक्ति प्राप्त भेने अपन जीवन-दर्शनक हिसाबसँ गीत-भजन सेहो रचना करै छला। अपन जीवन-दर्शनक माने भेल उच्चकोटिक आध्यात्मिक दृष्टिकोण। एक राम वा कृष्ण वा कोनो आने ईश्वर किए ने होथि मुदा बेवहारिक रूपमे जे चलैन समाजक बीच माने मनुक्खक बीच भावात्मक रूपमे चलि रहल अछि तइसँ गम्भीर दृष्टिये लक्ष्मीनाथ गोसाईं अपन रचना केने छैथ।
उन्नैसमी शताब्दीमे पच्चीसटा रौदी एक-सलियासँ चरि-सलिया-पन-सलिया धरिक भेल छल, तइ शताब्दीक तीन-चौथाइ समय लक्ष्मीनाथ गोसाईं अपना आँखियो आ नजैरियोसँ देखि कऽ नीक जकाँ परेख चुकल छला जे जीव-जन्तु ले पानिक की महत्व अछि आ ओकरा प्राप्त करैक उपाय की अछि। जन-जनमे जागरण अनैले लक्ष्मीनाथ गोसाईंजी जान अरोपि लागि गेला। लोककेँ जीबैक उपायक जड़ि-मूलकेँ पकैड़ लोकक बीच अपनाकेँ रखि टोली बनबए लगला। जेकर उपयोग दू दृष्टिये करैथ। पहिल, वैचारिक रूपमे आ दोसर बेवहारिक रूपमे। जखने लोक बेवहारिक जीवनकेँ पकैड़ चलए लगैए तखने जीवनक जे बाधा-रूकाबट अछि ओ हल हुअ लगैए। से साधारण जन-गणक बीच भेल। जइसँ गाम-गाममे लक्ष्मीनाथ गोसाईंक स्थानक (रहैक स्थान) निर्माण भेल। स्थानक निर्माणक संग-संग पाइनिक उपाय सेहो कएल गेल। जन-सहयोगसँ पोखरिक निर्माण सेहो भेल। अखन तक बत्तीस स्थानक चर्च अछि। घुमन्तु सोभावक रहबे करैथ। घुमन्तु सोभाव लक्ष्मीनाथ गोसाईंक ऐ दुआरे बनि गेल छेलैन जे मन तेते ललैक गेलैन जे होनि एक्के दिनमे मनुक्खक सभ दुख हेरि ली। मुदा जुग-जुगसँ अबैत जन-समाजक पराधीन जीवन रहल, जइसँ जहिना विचारक रूपमे तहिना बेवहारमे, जीवन टुटि कऽ एते निच्चाँ गिर पड़ल जे चिन्ह-पहचिन्ह लोकक मेटा गेल।”
दीनानाथ बाबूक मुँह बन्न होइते गुलटेन बाजल- “एते पैघ महात्म्य लक्ष्मीनाथ गोसाईंमे छेलैन?”
हँसैत दीनानाथ बाबू बजला- “जेते बुझै छहुन बौआ, तहूसँ बेसी छेला, मुदा समाजो-सत्ता आ शासनो-सत्ता तेना ग्रसित करैत रहलैन जे जेते मनमे छेलैन तेते तँ नहि मुदा एते जरूर केलैन जेते एक साधारण मनुक्खक लेल असाध्य अछि। समैयो भऽ गेल, ऐगला विचार दोसर दिन करब।”