इक मकाँ और बुलंदी पे बनाने न दिया,
हम को पर्वाज़ का मौक़ा ही हवा ने न दिया।
तू ख़ुदा बन के मिटाएगा हमें ही इक दिन,
सर तिरे दर पे इसी डर ने झुकाने न दिया।
मुत्तहिद होने का जज़्बा था सभी में लेकिन,
मुत्तहिद होने का मौक़ा ही हवा ने न दिया।
तुम पे छा जाते शजर बनते जो नन्हे पौदे,
तुम ने अच्छा ही किया पाँव जमाने न दिया।
वो तो आमादा था बंदों की शिकायत सुन कर,
कुछ फ़रिश्तों ने ज़मीं पर उसे आने न दिया।
आप डरते हैं कि खुल जाए न असली चेहरा,
इस लिए शहर को आईना बनाने न दिया।
– मंज़र भोपाली