इक मकाँ और बुलंदी पे बनाने न दिया , ग़ज़ल – मंज़र भोपाली

इक मकाँ और बुलंदी पे बनाने न दिया,

हम को पर्वाज़ का मौक़ा ही हवा ने न दिया।

 

तू ख़ुदा बन के मिटाएगा हमें ही इक दिन,

सर तिरे दर पे इसी डर ने झुकाने न दिया।

 

मुत्तहिद होने का जज़्बा था सभी में लेकिन,

मुत्तहिद होने का मौक़ा ही हवा ने न दिया।

 

तुम पे छा जाते शजर बनते जो नन्हे पौदे,

तुम ने अच्छा ही किया पाँव जमाने न दिया।

 

वो तो आमादा था बंदों की शिकायत सुन कर,

कुछ फ़रिश्तों ने ज़मीं पर उसे आने न दिया।

 

आप डरते हैं कि खुल जाए न असली चेहरा,

इस लिए शहर को आईना बनाने न दिया।

    – मंज़र भोपाली

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