इक आग सी लगी है जो मेरे तन बदन में,
शोले भड़क रहे हैं फूलों की अंजुमन में।
ऐ काश मोजज़ा कोई मुझको जो अता हो,
तो इश्क़ अपना भर दूं उस बेवफ़ा के मन में।
इस देश को दिया है अब्दुल कलाम हम ने,
वैसा हुआ न कोई अब तलक वतन में।
दौलत वगरना लेकर जाता वो साथ अपने,
है शुक्र जेब कोई होती नहीं कफ़न में।
सारे जहां का गम लफ़्ज़ों में समेट पाना,
मुम्किन ये होता है तो बस शायरी के फन में।
डरता हूं अब कहीं मैं उस को न भू ल जाऊं,
लगती है कुछ कमी सी अब सीने की जलन में।
-ज़मीर अंसारी रायबरेली