हिंदी का भी दिन
अब अपनों पर गर्व नहीं होता,
हिंदी हो या बिंदी गर्व नहीं होता,
मुंह देखने का ही रिश्ता सारा है,
अब दिल से दिल पर गर्व नहीं होता।
दो दिन का ही संबंध है रहता,
मतलब का ही अनुबंध है रहता।
गैरों से ही सबकी प्रीत लगी है,
जाने कैसी अब ये रीत जगी है।
हर आदर्श छिपा जब हिंदी में,
जीवन का सार बसा हिंदी में।
जीव जगत का मर्म हिंदी में,
तब भी रखा क्या है हिंदी में।
छपने के खातिर रचना है हिंदी मे,
नाम के खातिर वक्ता है हिंदी में।
शिक्षा के खातिर शिक्षक है हिंदी में,
दिन के बीते, व्यर्थ है सब हिंदी में।
यदि है सत्य प्रेम निज की भाषा से,
यदि है लगाव अपनी मातृभाषा से।
तब हिंदी में प्रथम प्रयास तुम्हारा हो,
तब प्रथम अटल विश्वास तुम्हारा हो।
– मोहन तिवारी