कभी किसी को दो पल की खुशियाँ देती,
तो, कभी खून के आंसू भी रुलाती है।
कभी बेवजह झूठे सपने दिखाती,
तो, कभी उन सपनों को भी तोड़ देती है।
है न, अजीब सी ये गलतफहमी,
शायद है कारण रिश्तों में दरार की,
कभी, नादानी तो कभी तकरार की।
आईना, हटाने से कुछ भी न होगा,
ये बात है, गलतियों की दीवार की।
है न, अजीब सी ये गलतफहमी,
जरा सी बातों में अनबन क्या हुई,
अब तो, चूल्हे सुलगने लगते हैं।
गलती, इनकी, उनकी, किसी की नहीं,
ये तो, दो खनकते बर्तन भी समझते हैं।
है न, अजीब सी ये गलतफहमी,
हर भोर इसे अपने बीच जगह देते हैं,
ना जाने क्यूँ, पर बेवजह ही देते हैं।
हर बात, हर दर्द, ज़हर नहीं होती जिज्ञासा,
वो, एक गलतफहमी नहीं निकाल फेंकते हैं।
है न, अजीब सी ये गलतफहमी,
– जिज्ञासा