एक ज़माना वो भी था
जब हम रहते थे गाँव में,
वो याद बहुत तड़पती है
जब हम रहते थे गाँव में।
छिपकर दबे पांव जाते थे
कड़ी दुपहरी में,
मिलते थे सारे सखा
जहाँ पीपल की ठंडी छांव में।
{एक जमाना..}
पीना ठंडा नलकूप का जल,
वो नमक मिर्च घर से लाना,
बनाकर बंडल पुआल का,
वो कच्चा भुना आम खाना।
वो लड़ना झगड़ना आपस का,
फिर संग चलना इक राह में,
{एक जमाना..}
आती जुलाई होती थी ख़ुशी,
मिलती थी नई किताब हमें,
बस्ता होता था नया, नया
जूते भी होते पांव में।
मिलते थे नए पुराने यार,
पहले पहले दिन चाव में,
{एक जमाना..}
आता दशहरा, होता मेला,
सुन यह खुश हो जाता मन,
जाता चाचा के संग वहाँ,
फिरता फिर पूरा पूरा दिन।
वो ज़िद करना झूले की,
फिर जाना जादू भावों में,
{एक जमाना..}
वो दिवाली में दिए जलाना,
वो मीठे पकवान का खाना,
छोटा सा इक महल बनाकर,
फिर उसको खूब सजाना।
बहुत मज़ा आता था बच्चों की
किलकारी कांव में,
{एक जमाना..}
होती होली, आती पिचकारी,
जाते हम हर घर बारी-बारी,
किसी का भिगाते कमीज़-कुर्ता,
किसी की भिगाते सारी।
लगता था रंग बदन में,
पूरे हाथ से लेकर पांव में,
{एक जमाना..}
याद वो दिन जब आते हैं,
दिल में एक टीस सी उठती है,
जीवन की कैसी रीति है ये,
हर उम्र छोड़नी पड़ती है।
बीता बचपन, वो ख़ुशी गई,
पड़ गई बेड़ियाँ पांव में,
एक ज़माना वो भी था,
जब हम रहते थे गाँव में!
– अभिषेक विक्रम सिंह
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