डॉ. उमेश मण्डलक तीन गोट कथा (कहानी)-
1- अनुकूल नहि अछि
आइसँ दस वर्ष पूर्व, जहिया ललितबाबू सेवा निवृत्त भऽ गाम आएले छला, जे प्रतिष्ठा गामसँ लऽ कऽ इलाकामे रहैन तइमे आइ ओहिना भऽ गेलैन जेना दिवार लागि गेलापर बिनु सारीलबला लकड़ीक होइत अछि। असार लकड़ीमे घून लगलापर जहिना ओ झझरी भऽ जाइए, ऐन-मेन तहिना आइ ललितबाबूकेँ बुझि पड़ि रहल छैन।
असार लकड़ीक चरचा भेने अपनेलोकनि ई जुनि बुझब जे ललितबाबू साधारण लोक रहला। राज्यक सभसँ पैघ पुलिस प्रशासनिक पदसँ सेवा निवृत्त भेल छैथ। चारि भाँइक भैयारीमे ललितबाबू ने सभसँ जेठ, ने छोट आ ने माझिल, साझिल छैथ। जेठ भाय, कौलेजमे इकोनोमिक्स विषयक प्रोफेसर, तइसँ छोट राजनीति शास्त्रक रीडरसँ रिटायर केलाह आ ललितबाबू अपने आइसँ दस वर्ष पूर्वहि आई.जी.सँ अवकाश प्राप्त केलैन, से तँ कहबे केलौं। सभसँ छोट भाए महेशजी, डॉक्टर छथिन गाए-मालक, माने भेटनरी डॉक्टर। मुदा ओहो सभ दिन गामसँ बाहरे रहला, वर्तमानमे पलामूमे बशिन्दे भऽ कऽ रहि रहला अछि। महेशजीकेँ गाममे नीक नहि लगलैन। मुदा आर सभ भाँइ सेवा निवृत्तिक पछाइत गामे एला। जेठका भैयाक तँ ऐ बेर पाँचिम वर्षी रहैन। बाँकी तीनू भाँइ जीविते छैथ।
गामे भरिमे नहि, इलाकामे सेहो चुनमुन बाबूक परिवारक चरचा होइत रहलैन। चरचो केना ने होइतैन। गामक बारहअना लोक हुनके खेतमे काज करि गूजर-बसर करैथ। दू साए बीघा जमीन रहैन। पिताक अमलदारीमे दरबज्जापर जहिना हाथी-घोड़ा सभकिछु रहैन तहिना अपना अमलदारीमे चुनमुन बाबू जीप रखने रहैथ। चुनमुन बाबूक अपना लग तक एकपुरुखियाह परिवार रहलैन मुदा से आगाँ आबि कऽ, माने अपनासँ आगाँ बदललैन। चारू बेटा-दे कहबे केलौं जे जेठ-माझिल प्रोफेसर, साझिल आई.जी. आ छोट डॉक्टर।
चुनमुन बाबू जहिना धन-सम्पन्न लोक तहिना शिक्षा प्रेमी सेहो रहैथ। तखने तँ बेटा सभकेँ बाहर राखि-राखि पढ़ौलैन-लिखौलैन। ऐठाम ई नहि आलोचना हुअए जे चुनमुन बाबू जखन एतेक पैघ जमीनदार लोक रहैथ तखन ओ ई किए ने बुझि सकला जे बेटासभकेँ अपन सम्पैतिक अनुकूल शिक्षा दिआबी? वास्तवमे से नहि बुझि सकला चुनमुन बाबू, जे बादमे अपनो खूब चिन्ता भेलैन। चिन्ता की भेलैन जे ओही चिन्ते मरबो केलाह।
चुनमुन बाबूकेँ मरैबेर मे हीक लगले रहलैन जे सभ बेटाकेँ एक-बेर एकसंग सभकेँ अपना सोझमे देखितैथ। अबैत-अबैत खाली छोटका बेटा-टा एलैन। बाँकी तीनूमे कियो ने एलैन। कियो कहैन जे बेटीक परीक्षा छी। तँ कियो कहैन पत्नी बीमार छैथ आ कियो कहैन अखन जे ऑडिट चलि रहल अछि। अखन ऐठामसँ निकलब महाग मोसकिल अछि।
खाएर जे भेल से ओइ दिनक बात भेल जइ दिनमे ललितबाबूक पिता जीबैत रहैथ।
रिटायर केलाक बाद ललितबाबू जखन गाम एला तँ सभसँ पहिने सोचलैन जे गाम-समाज लेल किछु करबाक चाही। जाधैर गामक लोक ले किछु करब नहि ताधैर गौंआँ पुछबे किए करत आ जखन कोनो पुछे-आछ नहि, तखन माने-सम्मान आकि माने-सरोवर की?
संयोगसँ ओइ समयमे सागवानक खेतीक हवा चलल रहबे करइ। पैघ पदपर सभ दिन ललितबाबू नौकरी केलैन तँए पैघ-पैघ पदाधिकारी सभसँ जानो-पहिचान आ ओइ तरहक बातो-विचार बुझैक लूरि रहबे करैन। प्रभावकारी लोक छलाहे। इलाकामे सभ गामसँ बेसी सागवानक खेती अपना गाममे ललितबाबू करबौलैन। गौआँ सभकेँ सपटिया-सपटियाकऽ अपना खर्चासँ गाड़ीपर बैसाकऽ ब्लॉक लऽ जाइथ। करीब साल भरि ऐ कार्यमे ललितबाबू तन-मनसँ लागल रहला। सरकारोक योजना रहबे करइ। गौंआँ-घरूआ लोक सरकारी योजनाकेँ अंगीकार करैत, सागवान-महोगनीक खेती करब नीक बुझलैन। तहूमे एहेन हवा बनियेँ गेल छल जे तीनियेँ वर्षमे पचीस लाखक एकटा गाछ हएत आ तैपर सँ आई.जी. साहैबक सह भेटने लोक ओइ पाछू टुटिकऽ पड़ि गेल। ..शत-प्रतिशत लोक सागवानक खेती केलक। हलाँकी गामक किछु ओहनो लोक सागवानक खेतीसँ वंचित रहला, जनिका अपना जमीन नहि छेलैन आ जिनका सभकेँ जमीन रहैन तइमे सेहो एक बेकती ओहन भेला जे सरकारक ऐ योजनाकेँ विरोध केलैन। मुदा से बेकतीगत स्तरपर। ओ छैथ जीतन काका।
जीतन काका ऐ बातकेँ नीक जकाँ बुझै छला जे सागवान-महोगनीक पाछू सरकारक की मंशा अछि। मुदा जेहेन हवा बनि गेल छल तइमे जीतन काका किनको मनाहियोँ केना करितैथ। जैठाम आई.जी.ए साहैब पिलकऽ पड़ल छैथ तैठाम हमरा सन-सन लोकक केतेक मोजर। तहूमे मनुक्खो तँ मनुक्खे छी। ओ तँ चाहिते अछि जे हमरा करए पड़ए किछु ने मुदा पूर्ति हुअए सभकथुक। तथापि जीतन काका मने-मन ई निर्णय कऽ लेने छला जे जँ कियो राय-विचार पूछता तँ हुनका जरूर कहबैन जे अनेरे ऐ जंगल-झाड़क चक्करमे नहि पड़ह। मुदा कियो पुछ-आछ नहि केलकैन। जीतन कक्काक सुगबुगी नहि देखि उलटे ललितबाबू किछु लोककेँ हिनका लग पठौलकैन जे सागवानक खेतीक महत्वकेँ जीतनजी केतेक बुझि रहला अछि।
जीतन काका दरबज्जापर बैसल किछु सोचि रहल छला। तखने चारि-पाँच आदमी, गौंआँ सभ, पहुँचलैन। चारू-पाँचू बेकतीकेँ देखिते जीतनकाका कुर्सीपर सँ उठि सभकेँ बैसबैत बजला-
“बैसै जाउ, केना-केना एनाइ भेलै?”
ओना, जीतन काका सभकेँ चिन्हते छैथ आ जनितो छथिए जे के केहन लोक अछि। तथापि दरबज्जापर आएल अभ्यागत बुझि सभकेँ आदरसँ बैसबैत अपनो बैसलाह।
बीचमे बैसल दिलेसर ललितबाबू दिस इशारा करैत जीतन काकाकेँ कहलकैन- “काका, ललितबाबूकेँ चिन्हते हेबैन, आईजी साहैबकेँ?”
जीतन काका बजला-
“किए ने चिन्हबैन। सुनै छी आब गामेमे रहता।”
दिलेसरकेँ बजैसँ पहिनहि पिन्टुजी बजला-
“हँ, आब गामेमे रहता। बजै छला जे कहियो हमरा कि ओतए नीक लागल। सभ दिन गामे मोन पड़ैत रहैन। मुदा नोकरी-चाकरीक बात रहने गामसँ हटल रहलैथ। आब गामेमे रहि समाज सेवा करता।”
जीतन काका- “बढ़ियाँ विचार।”
‘बढ़ियाँ विचार’ सुनिते दिलेसरजी बजला-
“से करितो छैथ। अहाँ तँ जनिते छी। ब्लॉकमे सागवानक गाछ ले मारा-मारी चलैए। तैठाम ललितबाबू एकतरफसँ अपन गौंआँ-सभकेँ जिनका जेतेक गाछ चाही से दिअबैले जी-जान लगौने छैथ। बेचारे अपना गाड़ीसँ, जेकरो ने मुँह-कान, सभकेँ अपन गौंआँ-समाज बुझि ब्लॉक लऽ लऽ जा कऽ गाछ दिआबै छथिन।”
जीतन काका नीक जकाँ जानि रहल छला जे एहेन-एहेन लोकक की किरदानी होइए, मुदा से मने-मन राखि किछु तेहेन बात बजला नहि। किएक तँ मनमे ईहो उठबे करैन जे जेकरे ले चोरि करू सएह कहत चोरा। सोचि-विचारिकऽ जीतन काका बजला-
“अच्छा तँ सागवान फड़बो करतै आम जकाँ आकि खाली लकड़ीए टा हेतइ?”
पिन्टुजी कहलकैन- “ई तँ लकड़ी प्रधान गाछ छी किने, काका।”
जीतन काका बजला- “अपना ऐठाम जखन फलक संग एतेक सुन्दर लकड़ी दइबला अनेको किसिमक गाछ अछिए तखन अनेरे बोन-झाड़बला गाछ लोक किए लगौत।”
जीतन कक्काक मनतव्यसँ ओ सभ जेना आगि भऽ गेला। ललितबाबूकेँ सभसँ बेसी खराप लगलैन। ओ इशारा केलखिन आ सभकियो उठि विदा भेला। ललितबाबूकेँ जेना अपना योजनापर पानि फेड़ गेलैन। प्रभावकारी लोक ललितबाबू छथिए। जीतन कक्काक खिलाफमे खूब हवा बनौलैन।
गौंआँ सबहक रूखि देखि जीतन काका सकदम भऽ रहैथ। समाजक प्रति हिनकर क्रिया-कलाप आ अवधारणा जेना गौन पड़ए लगलैन। गाममे एहेन महौल बनि गेल जइसँ जीतन काकाकेँ बुझि पड़ए लगलैन जे हम सभसँ बाड़ल छी।
समय बीतल। जैठाम हल्ला छल जे दूइए वर्षमे लाखो रूपैआक लकड़ी सागवानक भऽ जाइए, तैठाम चारि वर्ष बीतलाक बादो एकटा बाँसो-जोकर सागवानक गाछ नइ भेल। मुदा पात देखि सभकेँ होइ जे समय जे लगौ मुदा जइ गाछक एते-टा-टा पात भेल अछि, तेकर लकड़ियो ने तेहेन हएत। पाँच वर्ष समय आरो बीतल मुदा तैयो किछु नहि।
दस वर्षक बाद, आब लोक नीक जकाँ बुझए लागल जे सागवानक खेती, अपना ऐठामक लेल अनुकूल नहि अछि। ❑
2- लोके चौपट्ट अछि
बुझिते छिऐ चाहक दोकानपर कोनो गपकेँ मात्र चलै भरिक देरी रहैए। एक-पर-एक समीक्षक-आलोचक कि टिप्पणीकार, ओइठाम रहिते छैथ। जेतए चाह अछि तेतइ ने राहो अछिए।
चाहक दोकानपर किछु-ने-किछु समीक्षा-आलोचना होइते अछि। आइयो सएह भेल। ओइठाम की भेल से कहै छी, मुदा तइसँ पहिने अपन एक शुभचिन्तक केर बात सुना दइ छी।
शुभचिन्तक बेसी काल बजैत रहै छैथ जे वर्तमानमे बेसी लोकक मानसिक स्थिति ठीक नहि अछि। जँ गौर करिकऽ देखब तँ बुझि पड़त पागले लोक बेसी अछि। हँ, तखन पागल जेकरा सामान्य तौरपर बुझि रहल छी तेकर फलकपर विचार कऽ लिअ पड़त।
आब अहाँ कहब जे अनेरे पागलपर विचार करब हमरा सबहक काज थोड़े छी, ओ राँची-काँकेक हिस्सामे अछि। नहि, जँ पागलक स्तरपर विचार करब तँ स्पष्ट बुझि पड़त जे जे काज जनता-सँ-सरकार धरिक जिम्मामे अछि, माने सरकारक अपन आ जनताक अपन, तहूमे पगलपन्नी खेल पसैर जाइए।
हँ, से तँ अछिए। सबहक अपन-अपन काज अछि तँए सभकेँ अपन किरदानीपर विचार करैये पड़त। हलाँकि अनका दोखी बनाएब केकरो लेल आसान होइते अछि, तँए अपनाकेँ बँचाइयो सकिते छी। ई कहि बँचा सकै छी जे, जे काज फल्लाँक छिऐ तैपर अनेरे हमसभ कथी-ले मगजमारी करब। खाएर जे जे करी। सभ अपन-अपन कर्मक मालिक छैथ।
आब आउ चाहक गप-सप्पपर। भिनसरे जखन चाहक दोकानपर पहुँचलौं तँ देखै छी महेशजी आ दुर्गाबाबूक बीच हॉट टॉक चलि रहल छैन।
महेशजीक कहनाम रहैन, तीन किलो चाउर आ दू किलो गहुम जे सरकार फ्रीमे आकि कम दाममे दऽ रहल अछि, से सभकेँ काहिल बना रहल अछि। भाय, जखने केकरो कमाएल भेटतै, पुड़बैले अपना मिहनत नहि करए पड़तै, माने पेटसँ निचैन भऽ जाएत, तँ किए ओ श्रम करत। जखन श्रमे नहि करत तँ देशक विकास केना हएत?
दुर्गाबाबूक कहब रहैन जे सरकार केकरो कोढ़ि-काहिल बनबए नहि चाहि रहल अछि। असलमे, अनाज दुइर भऽ रहल छेलै, तँए गरीब लोकक बीच ओकरा बाँटिये देब नीक बुझलक।
हमरा बैसते देरी पवन चाहक गिलास हाथमे धरा देलक। हम चाह पीबए लगलौं। मुदा मनक पकड़मे चाहक स्वादसँ बेसी दुनू गोरेक गप आबि रहल छल। जखन दस घोंट चाह पीलौं कि एकाएक मुहसँ निकैल गेल-
“अनेरे अहाँ दुनू गोटा कथीले चाउर-गहुमसँ लऽ कऽ सरकारक पाछू पड़ल छी। औझुका मौसम-दे सुनबो केलिऐ जे साँझखन अन्हर-बिहाड़ि अबैबला अछि।”
महेशजी बजै-भुकैबला लोक छथिए। हिनक पिता दरभंगा राजमे रहथिन, जमीनदार लोक, मुदा एकलखाइत सभ जमीन कोसीमे कटि गेने अखन से नहि छैथ ओ फराक बात। महेशजी बजला-
“मौसम विभागक सभ बात सोल्हन्नी सत्ये नहि होइए, डाकडर साहैब।”
डॉक्टर नहि आ ने डाक्टर, ‘डाकडर’ बजला महेशजी। मुदा, महेशजीक मनमे शब्द सम्बन्धी कोनो ओझरी नहि रहैन। ओना, शब्दकेँ ओझरा-ओझराकऽ खाइबला लोक लेल ओझरियो होइते अछि। मुदा महेशजी सभ डॉक्टरकेँ ‘डाकडर’ माने डाकडरे कहै छथिन, एकरूपता रहने अनेरे ओम्हर कथीले जाएब। महेशजी आगू बजला-
“अन्हर-बिहाड़ि कि पानि-पाथर आकि भुमकम-अनडोलन जे अबै-के हेतै एबे करत। ओकरा सभकेँ छोड़ू। अखैन जे गप चलि रहल अछि तैपर आउ।”
“की गप चलि रहल अछि?” – हम पुछलयैन।
तइ बिच्चेमे एक व्यक्ति, हुनक नाओं केना कहब, चिह्नते ने छेलिऐन। ओना, ओ चेहरा-मोहरा आ लत्ता-कपड़ासँ महात्मा सदृश बुझिये पड़ि रहल छला। जेहने लाल टुहटुह चेहरा तेहेन तँ नहि मुदा तइसँ थोड़ेक मधिम रंगक एकरंगा कपड़ा पहिनहि रहैथ। ओ महत्माजी बिच्चेमे बजबाक उपक्रम केलैन कि दुर्गाबाबू रोकैत अपन बात बाजए चाहला। जे हमरा नीक नहि बुझि पड़ल। मना करैत दुर्गाबाबूकेँ कहलयैन-
“दुर्गाबाबू, महात्माजी जे बाजए चाहै छैथ से सुनि लिअ तखन बाजब।”
महेशजीक चेहरा देखबैत, माने इशारा करैत महात्माजी खूब तरंगि कऽ बजला-
“ओ जे कहि रहला हेन, अक्षरस: सत्य कहि रहला हेँ। अँइ यौ, सरकारक घरमे अनाज दुइर हेतै तँ हेतइ। देखै छी जे प्रत्येक थानामे लाखोक गाड़ी-घोड़ा सड़ि रहल अछि। कहाँ एको रती केकरो ममत छै। देशेक धन माटि भऽ रहल अछि किने। असलमे मनुक्खकेँ काहिल बनबैक परियास छी अनाज देब। भाय, जखने बैसले-बैसल पेट भरतै तँ लोक कोढ़ि हेबे करत ने।”
आब अहाँ एना नहि सोचए लागब जे पेटे भरब मात्र मनुक्खक उद्देश्य थोड़े छी? नइ छी, मुदा ई ओइ स्तरमे पहुँचल जगह परक गप हएत। अखन अपन सबहक बीचक बात दोसर अछि।
महेशजीक चेहरापर जेना खुशी छिटकए लगलैन। हुनका बुझि पड़लैन जे हमर विचार ऊपर भेल।
महात्माजीक विचारसँ स्पष्ट भइये गेल जे केहेन गरीब लोकक महात्मा छैथ। मन तँ भेल किछु कहिऐन। मुदा तइ बिच्चेमे एकगोरे, जनु हुनका महात्माजीक तरङब नहि सोहेलैन, बाजए चाहला। महेशजी हुनका रोकए चाहलैन, मुदा तइ बिच्चेमे अपने महेशकेँ रोकैत बजलौं-
“चाह पीबैक जगह छी। सबहक मनमे किछु ने किछु अछि, जँ ओ बाजए चाहै छैथ तँ हुनको सुनि लियौन।”
ओइ बेकतीकेँ जेना आरो सह भेटलैन, महात्माजी दिस मुखातिब होइत बजला-
“महात्माजी, कोन एहेन परिवार अछि माने माए-बाप अछि जे अपना बेटा-पोता ले जमा करिकऽ रखने नइ छैथ आकि रखैले भरि दिन अपसियाँत नइ रहै छैथ। जहाँ तक कि नीक-बेजाए कि बेजाए-नीक, सेहो करैले बुधिक प्रयोग करिते छैथ, तैठाम किए ने हम सभ बुझि पबै छी जे ओहो मनुक्खकेँ काहिल बनबैत हेता?”
हम चुप्पे रहि गेलौं। बात समीचीन बुझि पड़ल। हमरा अपन शुभचिन्तक विचार मोन पड़ए लगल। चाह तँ कखन ने खतम भऽ चुकल छल।
महात्माजी अपन चालिये कि महेशजीकेँ पाबि आकि की सोइच, एकाएक संस्कृतमे श्लोक-पर-श्लोक बाजए लगला।
अपना हाथमे खाली गिलासटा रहए, कहबे केलौं चाह सठि गेल छल। खाली गिलासकेँ ब्रेंचतर राखि पान दिस बढ़ि गेलौं। ❑
3- काजक सतहपर
भोरे, जखन बिछौनपर कम्मल ओढ़ि कऽ रही पड़ले मुदा रही आँखि तकैत जागल, मनमे 25 दिसम्बर नाचल। गोष्ठी लगिचाएल जा रहल अछि मुदा कथा कहाँ लिखलौं? गोष्ठीक माने ‘सगर राति दीप जरय’क 107म कथागोष्ठी। आइ 24 दिसम्बर भऽ गेल मुदा अखन तक कथा लिखैमे हाथो ने लगेलौं हेन.! महान लेखक जकाँ एक्केबेर मे अर्थात् एक्के खेपमे कथा लिखि कऽ फाइनलो तँ नहियेँ कएल होइत अछि.! बुझू जे चिन्तित जकाँ भऽ गेलौं।
रातिमे थोड़ेक अबेर भऽ गेल रहए सुतैमे। अबेरक माने दुनू दिस होइए। माने, जैठाम 10 बजे रातिमे सुतैले बिछौनपर चलि जाइ छी तैठाम जँ 11 बाजि गेल, एकटा अबेर ई भेबे कएल। मुदा जँ 10 बजेक बदला नबे बजेमे सुतैले चलि गेलौं तँ एकरा की कहबै? सबेर कहबै, मुदा भेल तँ ईहो अबेरे, माने बेरपर नहियेँ भेल।
खाएर अबेर-सबेरमे नहि पड़ि हम अपन खिस्सा जे सुनबए चाहै छी से सुनल जाए। कहबे केलौं लिखैसँ पूर्व चिन्तित जकाँ भऽ गेल रही। ‘सगर राति दीप जरय’क मंचपर कथा पाठक अवसरि भेटत अछि।
एकाएक गोष्ठीक मूल भावनापर नजैर गेल। केतेको महान साहित्यकार लोकैन ऐ मंचसँ बाजि चुकल छैथ जे ऐ गोष्ठीक परसादे रचनाकारकेँ नव कथा लिखबाक संयोज बनै छैन।
वास्तवमे अपनौं ई अनुभव भेले अछि। अही गोष्ठीक बहन्ने किछु कथा अपनो लिखि पेलौं अछि। जहिना सभ कथाकारकेँ नव कथा लिखबाक विवस्ता भऽ जाइ छैन तहिना अपनो भेल। काल्हिए गोष्ठी छी आ अखन धरि कथा नहि लिखलौं।
इच्छा भेल जे अखनेसँ लिखब शुरू करी। मुदा आसकैत लागि गेल कि की, कम्मल तरसँ निकलैक मन नहि भेल। मुदा मनो तँ असगर नहियेँ अछि। मनोवैज्ञानिक लोकैन तीन प्रकारक मनक चर्च केनहि छैथ। एक मन कहलक जे कम्मल तरसँ अखन नइ निकलैक मन होइए तँ नहियेँ निकलू। मुदा दोसर मन कहलक, तखन कथा केना हएत?
वास्तवमे, कोनो क्रियाक विरोधमे माने बदलामे विकल्प तँ चाहबे करी, नहि तँ शान्ति केना भेटत।
विकल्प ठाढ़ करैत तेसर मन कहलक- “लिखैक मन अखन नहि होइए तँ नहि लिखू मुदा लिखब की, अखन सएह विचारि लिअ, पछाइत लिखि लेब।”
मने-मन विचार तय कऽ लेलौं। ठीक छै अखन विषय-वस्तुकेँ ठिकिया लइ छी। कोनो रचनाक मूल तत्त्व ओकर विषय-वस्तुए ने होइत अछि। कम्मल ओढ़ने पड़ले-पड़ल कथाक विषय-वस्तु आ उद्देश्यक पाछू मन चलए लगल।
मन तँ मने छी। मनक विषयमे अही बीच, एकटा पोथीमे पढ़ने रही जे मनुक्खक मन हजारो बेर एक्को उखराहामे तरपैए। मोन पड़ि गेल भाय साहैबक गप।
एकटा नव मित्रसँ काल्हिखन मोबाइलपर गप-सप्प भेल छल। हुनका हम ‘भाय साहैब’ कहै छिऐन। भाषा आ साहित्यक विषयमे ओ बहुतो बात बाजल छला। जइमे एकटा बात ईहो बजला जे, जे भाषा एतेक मधुर अछि तइ भाषा-भाषीक बेवहारिक पक्ष किए एना कमजोर अछि, माने बेवहारमे ओहन मधुरता किएक ने छइ? देखै छी बजैकालमे केतेक नीक बाजि लैत अछि आ करैकालमे ठीक ओकर उन्टा करैत रहैत अछि। एना किए?
भाय साहैबक विचार तँ विचारणीय बुझिए पड़ल। तँए अखनो धरि मनमे बेर-बेर उझुक्का मारि-मारि कऽ उठि रहल अछि। कनेक असथिर भऽ जखन विचारए लगलौं कि आरो अनेको बातक संग अनेको परस्थिति नजैरिक सोझमे आबए लगल। मुदा तही बीचमे बुझि पड़ल जेना हमरो मन तरैप रहल अछि।
ओह.! एना जँ मन तरपैत रहत तखन कथा तैयार हएत? किन्नहुँ नहि कथा तैयार हएत.!
बिछौनपर सँ उठि मुँह-कान धोइ चाह दिस बढ़लौं। पत्नी बुझि गेली। जाबए अपने कपड़ा पहीरिकऽ कम्प्यूटर ऑन करबाक लेल अग्रसर भेलौं, तैबीच पत्नी चाह नेने लगमे एली। मन भेल पहिने चाह पीब लइ छी, पछाइत खनहन मने अप्पन चाहक काज करब।
चाह पीलाक पछाइत मन खनहन भेल। मुदा तेतेक खनखना गेल जे स्वभाविक तौरपर मन निर्णय कऽ लेलक जे आब तँ घुमै-फिरैक समय भऽ गेल। भिनसर भऽ गेल। अखुनका काज तँ घूमब-टहलबक छी। सभ काजक समय होइए किने।
टहलैले विदा भेलौं। बिछौनपर जहिना कथाक विषय-वस्तुपर विचार करब पहिल काज सोचि कम्प्रोमाइज कऽ लेने रही तहिना पुन: मन बना आगू बढ़लौं। घरसँ निकैल कनीए आगू बढ़लौं कि एकटा बेकती संग भऽ गेला। ओ हमर पड़ोसी छैथ। नाओं छिऐन धनपति। पुछलयैन- “की समाचार, धनपतिजी?”
ओ बजला-
“समाचार गड़बड़े अछि।”
हम अकचकाइत पुछलयैन-
“से की?”
हमर अकचकाएबसँ आकि की, ओ बजला-
“ऐ बीच हमर पएर-हाथ झुनझुनाए लागल अछि। मन व्याकुल भऽ गेल तँए काल्हि डाक्टर साहैब लग गेल छेलौं।”
एतबे बाजि कऽ जेना ओ ठमैक गेला तहिना आगू किछु किछु बजबे ने केलाह। पुछलयैन-
“तखन की भेल? माने की सभ कहलैन डाक्टर साहैब?”
“पहिने तँ पुछलैन जे राति-के कए बेर लगही होइए। भूख-पियास केहेन अछि, नीन्न होइए कि नहि। कहलयैन सभ किछु। पछाइत रंग-बिरंगक जाँच लिखि देला।”
धनपतिजी पुन: पहिलुके जकाँ आगू बाजब बन्न कऽ मुँह चुप कऽ लेला। अपना बुझि पड़ल जाँचक बादक बात सुनौता। मुदा से किछु नहि, एकदम सकदम्मे रहला।
हम पुछलयैन-
“जाँच कराकऽ डाक्टर साहैबसँ देखौलिऐन की नहि?
“हँ, देखौलिऐन तँ.. मुदा.!”
“मुदा की?”
धनपतिजी जेना खूब चिन्तामे पड़ल रहैथ। अपना बुझि पड़ल जनु कोनो भारी बेमारी धनपतिजीकेँ पकैड़ लेलकैन अछि। एहेन बात लोक केतौ जल्दी बाजितो नहि अछि। मुदा अपने मन कहलक जँ तेहेन कोनो बात रहैत तँ धनपति बजबे करितैथ जे हम डाक्टरसँ देखेलौं, जाँच करेलौं अछि।
हिम्मत करि कऽ पुछलयैन-
“तखन की भेल?”
ओ बजला-
“यौ भाय, हमरा मुँहमे जाबी लागि गेल.! डाक्टर साहैब कहलैन अहाँकेँ डायविटीज भऽ गेल अछि।”
पुछलयैन-
“आरो की सभ कहलैन.?”
धनपतिजी बजला-
“पनरह-बीस दिन तक आलू-चीनी-चावल बिलकुल बन्न करू। एकबेरमे तीनटा सोहारी आ छोटकी कटोरी भरि दालि खा सकै छी। तरकारी कनी बेसियो खाएब तँ कोनो बात नहि। बीस दिनक पछाइत एकबेर फेर जाँच कराएब आ तेकर बाद कनी-मनी भात खा सकब। सेहो जाँच देखला बाद कहब। आलू-चीनी तँ सोल्हन्नी बन्ने कए दियौ।”
धनपतिजीक बात सुनि हमरा मोन पड़ि गेल अपन मित्रक एकटा बात। हमर एकटा मित्र डॉक्टर छैथ। ओ एकदिन हमरा बुझा कऽ कहने छला जे डायविटीज दू प्रकारक होइत अछि। टाइप वन आ टाइप टू। वर्त्तमानमे जे डायविटीज लोककेँ भऽ रहल छै ओ प्राय: टाइप-टू डायविटीज छी। ऐ मे वितरणक समस्या होइ छै, उत्पादनक नहि।
हलाँकि ऐ बातकेँ एक बेरमे हम नीक जकाँ नहि बुझि सकल रही। तँए डाक्टर साहैबकेँ पुछने रहिऐन-
“ई उत्पादन आ वितरण की..? नहि बुझलौं?”
तैपर कहलैन-
“टाइप-वन डायविटीजमे प्राय: इंसुलिन बनैमे दिक्कत होइ छै आ टाइप-टू डायविटीजमे इंसुलिनक प्रसारमे, माने वितरणमे समस्या अबै छै। माने टाइप-टू डायविटीजमे शरीरक पेनक्रियाज ठीक रहल। खाली जीवन-शैलीकेँ, माने रहन-सहन, खान-पान आ सोचै-विचारैक तरीका ठीक केलासँ ई पूरा कन्ट्रोल भऽ जाइ छै। एहेन रोगीकेँ बेसी चिन्ता नहि करक चाही। ओना, चिन्ता किनको नहि करक चाही। चिन्तासँ आरो समस्या बढ़िये जाइ छै।”
हम धनपतिजीकेँ कहलयैन
“दूर्र.! कोनो चिन्ता नहि करू। काज, भोजन आ आरामक सहतकेँ एकरंग करि लिअ, सभ समस्याक अन्त भऽ जाएत।”
❑
– डॉ. उमेश मंडल