ढलती उम्र और काफिला उम्मीदों का,
उम्र बढ़ती गयी,
फिर चश्मों का नंबर बदल गया।
हम बस बैठे थे सुकून से,
पर देखा,
मिज़ाज़ सबका बदल गया।
सोचा था कुछ पल ठहर के,
कर लेंगे विश्राम यहाँ,
उन्हें लगा बैठा है बूढ़ा, दो इसे काम यहाँ।
ढलती उम्र, झुकती कमर,
इस बूढ़े की,
किसी को दिखाई नहीं दी।
सब लगे फिर काम ढूंढ़ने,
इसके बहाने,
शायद ख़ुशी किसी को रास ना आयी ।
हम सपने सजोये थे,
कुछ पल,
खेलेंगे बच्चों संग इस उम्र में अब।
कभी सुना देंगे उनको,
कहानी,
कभी किस्से अपनों के संग।
पर, नहीं रास आये,
ये सपने हमारे,
इस जग में सबको आज।
लगे भगाने हमें,
यहाँ से वहाँ ले काफिला,
उम्मीदों का सभी यूँ हमारे साथ।
– प्रेरणा ( राजस्थान )