दहेज़ प्रथा पर आलेख / आर्टिकल – शुभम् कुमार निगम, प्रयागराज

भारतीय समाज में दहेज प्रथा उन प्रथाओं में से है जिसका चलन आधुनिकता के साथ समाप्त होने के बजाय अपेक्षाकृत अधिक बढ़ता जा रहा है। इस प्रथा पर आधुनिकता का सिर्फ इतना प्रभाव पड़ा है कि दहेज शब्द से निकलने वाले रूढ़ीवादिता के दुर्गंध को छिपाने के लिए अब इसे आधुनिक अँग्रेजी शब्दों जैसे कि, Blessings तथा Gifts से ढकने का असफल प्रयास किया जा रहा है। दहेज की रीति का समाज के सभी वर्गों से सीधा संबंध होता है, यही कारण है जो इस विषय की औचित्यता को बाकी सामाजिक मुद्दों से विशेष और चिंताजनक बनाती है। हाँ ये अलग बात है कि समाज के उच्चतम बिंदु पर बैठे आर्थिक वर्ग के लिए यह एक मामूली सी रस्म है, लेकिन भारत में लगभग तीन चौथाई (75%) से भी अधिक जनसंख्या मध्यम वर्ग और निम्न आर्थिक वर्ग की श्रेणी में ही आती है जिनके सामाजिक और आर्थिक जीवन पर दहेज की प्रथा का व्यापक और निर्णायक प्रभाव पड़ता है।

दहेज प्रथा के क्रमिक विश्लेषण में सबसे पहले इस प्रथा की प्रकृति का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। क्या यह प्रथा नकारात्मक प्रकृत्ति ही धारण करती है अथवा इसके सकारात्मक पक्ष भी हैं? जब भी दहेज की प्रकृति के सम्बन्ध में चिंतन करता हूँ, नकारात्मकता के अलावा कोई अन्य आयाम दिखाई ही नहीं पड़ता। भारतीय दर्शन के जैन परंपरा में जिस तरह से जीव हत्या को प्रत्येक स्थिति में त्याज्य, अस्वीकार्य तथा अवांछनीय माना गया है ठीक उसी प्रकार से दहेज प्रथा को किसी भी उचित साध्य के माध्यम से वांछनीय नहीं सिद्ध किया जा सकता है। हालाँकि इसकी नकारात्मकता को अनेकों आधार पर सिद्ध किया जा सकता है लेकिन सबसे मुख्य आधार मानवता तथा मानवीय मूल्यों का उलंघन है। मानवीय मूल्य अन्य सभी आधारों से सर्वोपरि इसलिए है क्योंकि मनुष्य स्वयं में साध्य है तथा निर्मित नियम, रीतियां एवं प्रथाएँ साधन हैं, जिनका उद्देश्य मानवीय मूल्यों का संरक्षण करना तथा उन्हें सुदृढ़ करना होना चाहिए। यदि इन्हीं रीतियों में से कोई नियम अथवा प्रथा मानवीय मूल्यों को क्षति पहुँचाता है तो निसंदेह वह नकारात्मक, त्याज्य तथा अवांछनीय है। दहेज प्रथा तो सीधे तौर पर मानवीय मूल्यों का उल्लंघन करता है। मनुष्य के भावनाओं को संपत्ति से तौलने से बड़ा उल्लंघन आखिर और क्या हो सकता है? ये ठीक वैसे ही है जैसे प्राचीन सभ्यताओं में गुलामों को वस्तु की भांति समझ कर उनका व्यापार किया जाता था, फर्क़ बस इतना है कि गुलामों को शक्ति के आधार पर संचालित किया जाता था और यहाँ संपत्ति के आधार पर किया जा रहा है। मनुष्य की मनुष्यता को शक्ति अथवा संपत्ति के द्वारा नियंत्रित करना ही तो मानवीय मूल्यों पर सबसे घातक प्रहार है। दहेज प्रथा न केवल एक नकारात्मक कुरीति है बल्कि यह कर्ज़, पारिवारिक कलह, महिलाओं के शोषण, नैतिकता का ह्रास जैसे अनेक प्रकार की बुराईयों को जन्म भी देती है। वैसे भी इसमे सकारात्मक तत्वों को ढूंढना मरुस्थल में तालाब ढूढ़ने जैसा है, अगर कोई सकारात्मक पक्ष मिल भी गया तो गहराई से अध्ययन करने पर उसमे भी नकारात्मकता ही निकलेगी, ठीक वैसे जैसे मरूस्थल में दूर से देखने पर मरीचिका पानी के तालाब जैसा प्रतीत होता है लेकिन नजदीक जाने पर तपते हुए रेत के सिवा कुछ हाँथ नहीं लगता।
समकालीन दौर में संभवतः हर वर्ग को यह ज्ञात है कि दहेज लेना और दहेज देना दोनों ही कानूनी तथा नैतिक तौर पर उचित नहीं है, बजाय इसके लोगों के मन में न तो कोई भय है और ना ही लज्जा का कोई अंश है। दहेज प्रथा को सम्पन्न वर्ग ने निर्मित किया, मध्यम वर्ग ने इसे पोषित किया तथा निम्न वर्ग इसका शिकार बन रहा है। लज्जा के विपरित लोग दहेज लेने में और कभी कभी तो दहेज देने में भी गर्व महसूस करते हैं, जबकि वास्तविकता तो यह है कि दहेज लेना और देना दोनों ही अधीनता के सूचक हैं। निश्चय ही दहेज लेना एक नैतिक अपराध है, लेकिन दहेज देने वाले भी इस अपराध में बराबर के भागीदार होते हैं।

दहेज लेने वालों की बात किया जाए तो इनमें विशेषकर समाज का वो वर्ग ज्यादा आतुर दिखाई पड़ता है जो अभी अभी निम्न श्रेणी से निकलकर मध्यम वर्ग में दाखिल हुआ होता है। हालाँकि समाज का निम्न आर्थिक वर्ग भी दहेज के लेन-देन में पीछे कतई नहीं है, लेकिन उन्हें कोसना उचित नहीं होगा क्योंकि निम्न वर्ग अपने से उपर के वर्गों से ही सीखता है। मध्यम वर्गीय समाज में इस प्रथा का कुछ ज्यादा ही बोलबाला है। अगर लड़का सरकारी नौकरी में है तो उसके लिए चरित्र, स्वभाव, व्यक्तित्व तथा उम्र कोई मायने नहीं रखते, और दहेज को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान लेता है सो अलग। ऐसे घरों में ख़ासतौर से महिलाओं की उत्सुकता अगल ही देखने को मिलती है, आखिर उनको महिला मंडली में डींगे मार कर अपना कद ऊँचा करने का अवसर जो मिल गया। उधर पिता शादी में होने वाले व्यय तथा आय (प्रस्तावित दहेज) का हिसाब किताब कर के सबसे अधिक बचत देने वाले रिश्ते को आखिरी सहमति प्रदान कर देता है। हँसी तो इस बात पर आनी चाहिए कि पूरी व्यापारिक प्रक्रिया से तय होने वाले इस रिश्ते को ये लोग शादी का नाम देते हैं, जबकि इसे व्यापार या समझौता कहना ज्यादा उचित होगा। ख़ैर ऐसे लोगों का मानना होता है कि दहेज कोई भीख नहीं बल्कि लड़के को आर्थिक रूप से लायक बनाने के लिए किए गए निवेश और संघर्ष की कीमत होती है। निःसंदेह सफ़लता के लिए आर्थिक निवेश और संघर्ष की बृहद प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है लेकिन संघर्ष तो आपने अपने सुखों की वृद्धि के लिए किया था, आपके अपने हित के लिए किए गए संघर्षों का भुगतान कोई और क्यों करे? और अगर इतना संघर्ष करने के बाद आप ने अपने संघर्षों का मोलभाव कर लिया तो ये आपके ही संघर्षों का अपमान हुआ, इसमे गर्व करने जैसा कुछ नहीं है, इसके विपरित यह तो बेहद शर्म और लज्जा की बात है। स्वाभिमान तो इसमे है कि संघर्षों से प्राप्त सफ़लता के बाद आप बिना दहेज लिए विवाह करें। अगर योग्य होने के बाद भी आप किसी से कुछ प्राप्त करने की कामना करते हैं तो ये आपके नैतिक स्तर की दरिद्रता का परिचायक है। अपनी कामनाओं को आप अपनी योग्यता से पूरी कीजिए। दहेज लेना किसी भी तरीके से आपके सामाजिक और नैतिक स्तर को ऊपर नहीं उठाता, बल्कि स्वाभिमान की रक्षा तो दहेज न लेने में है। और यदि आपको समाज में अपना स्तर उठाना ही है तो दहेज माँगने के बजाय दहेज के लिए मना कर के देखिए, समूचे समाज के साथ साथ खुद की भी नज़रों में आपका स्तर उठ जाएगा।
अब बात करते हैं दहेज देने वालों की। दहेज देने वाले पिता से ज्यादा मुर्ख मैं किसी को नहीं मानता। प्राचीन मिस्र में लाशों को दफनाते समय उनके साथ दैनिक जीवन में प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं को भी दफनाया जाता था, मान्यता यह थी कि मरने के बाद आत्मा को परलोक में ये वस्तुएँ सुविधा प्रदान करेंगी, दहेज देने वाले पिता की स्थिति भी ठीक इसी प्रकार होती है। पिता अपनी बेटी के सुविधा के लिए तथा विवाह के उपरांत जीवन को सुखी बनाने के उद्देश्य से दहेज देता है। ऐसे पिता विवाह के लगभग दस वर्ष पहले से ही दहेज का बंदोबस्त करने में लग जाते हैं। इनका मानना होता है कि जितना ज्यादा दहेज होगा बेटी को उतना अच्छा परिवार मिल जाएगा। इनकी मूर्खता के क्या ही कहने, इन्हें इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि अगर परिवार अच्छा ही होगा तो वो दहेज लेंगे ही क्यों? और अगर दहेज देना ही पड़े तो फिर परिवार अच्छा कहाँ से हुआ? लड़की का पिता इतना भोला होता है कि दहेज से बेटी की खुशियों को खरीदना चाहता है, जबकि वास्तविकता यह है कि प्रेम आत्मा का विषय है और सच्चे प्रेम का सम्बन्ध पवित्र आत्मा से होता है, भौतिक वस्तुओं से नहीं। अगर प्रेम का कारण भौतिक है तो ऐसा प्रेम भौतिक वस्तुओं के विघटन के साथ साथ विघटित होने लगता है। बेटियों को दहेज के आधार पर विदा करना, बेटी के साथ भविष्य में होने वाले प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष शोषण का पहला चरण होता है। बस इतनी सी बात समझनी चाहिए कि दहेज के लिए विवाह करने वाले की पहली प्राथमिकता आपकी बेटी कैसे हो सकती है? और अगर आपकी बेटी ही पहली प्राथमिकता है तो फिर दहेज का प्रश्न ही नहीं उठता। दहेज शादी को समझौता बना देता है, और आपकी बेटी आजीवन उसी समझौते के नियमों का संरक्षण करती रहती और अंततः वह अपनी इच्छा, अपने सपनों और यहाँ तक कि अपने स्वतंत्र अस्तित्व को भी भूल जाती है।

अतः चंद शब्दों में कहा जाए तो दहेज लेना शर्म की बात है तथा दहेज देना सबसे बड़ी मूर्खता है। दहेज का लेन-देन करना मानवीय मूल्यों, नैतिक आदर्शों तथा प्रेम की धारणा के विरुद्ध हैं। निःस्वार्थ भाव से बने रिश्ते ही मजबूत और दीर्घकालिक हो सकते हैं। संबंधों में बढ़ती अस्थिरता, रिश्तों में भौतिक कारकों की बढ़ती प्रधानता का ही परिणाम है। दहेज जैसी कुरीति को रोकने के लिए समाज के शिक्षित और प्रबुद्ध वर्ग को आगे आना होगा। नैतिक आदर्शों को व्यवहारिक रूप दे कर ही दहेज जैसी कुरीति को समाज से समाप्त किया जा सकता है। कानून के भय से दहेज प्रथा का अंत होना होता तो अब तक हो चुका होता। कानून के भय से भयभीत हो कर दहेज न लिया जाए तब तो ये और भी घातक है, अपेक्षाकृत शोषण का स्तर अधिक बढ़ जाएगा। भय के आधार पर मजबूरी पैदा कर के दहेज प्रथा का अंत कर भी दिया जाए तब भी इसे सार्थक नहीं माना जा सकता, क्योंकि मजबूरी इच्छाओं को बाँध देती है, इच्छाएं समाप्त नहीं होती हैं, इसलिए इसकी सार्थकता दहेज की इच्छा ही को समाप्त कर देने में है जो कि विचारों में परिवर्तन के द्वारा ही संभव है। और ये विचार परिवर्तन माता पिता के साथ साथ युवा पीढ़ी के लिए भी अतिआवश्यक है, क्योंकि आज का युवा ही आने वाले कल का अभिभावक बनेगा, और यदि युवाओं में दहेज प्रथा को ले कर विचार परिवर्तन हो गया तो इस सामाजिक कुरीति को आने वाली पीढ़ी में फैलने से रोका जा सकता है।

अंततः लड़कों के माता पिता से कहना चाहूँगा कि बहू का चयन स्वभाव, चरित्र और व्यवहार जैसे आत्मिक गुणों के आधार पर करें तो ज्यादा बेहतर होगा, क्योंकि दहेज में मिलने वाली सम्पति और वस्तुएँ समय के साथ समाप्त हो जाएंगी, बचेगा तो सिर्फ बहू का स्वभाव और आत्मिक गुण। और आपके घर की इज़्ज़त और बुढ़ापे में आपकी स्थिति, बहू के स्वभाव पर निर्भर करती है, न कि बहू के साथ आने वाले दहेज पर। तथा विशेषकर ल़डकियों के माता पिता से मेरी यही अपील है कि बेटियों के लिए दहेज की व्यवस्था करने से बेहतर है कि बेटियों को शिक्षित करें तथा उनके हिस्से के दहेज की पूँजी का निवेश उन्हें योग्य बनाने में करें। आप के द्वारा दिया गया दहेज समय के साथ साथ समाप्त हो जाएगा लेकिन आपके द्वारा दी गई योग्यता आपकी बेटी के जिवन को आजीवन संरक्षित करता रहेगा। अच्छे घर और सुखी वैवाहिक जीवन के साथ साथ उन्हें स्वाभिमान, स्वावलंबन, निर्णय निर्माण की क्षमता, चयन करने की स्वतंत्रता और सामर्थ्य तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था से स्वतंत्रता भी मिलेगी, और आपकी तरफ़ से अपनी बेटियों के लिए इससे मूल्यवान दहेज कुछ और नहीं हो सकता।

    – शुभम् कुमार निगम

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