चुनौती कविता – जगदीश प्रसाद मंडल बिहार

सभ दिनसँ होइते एलैए

सभ दिन होइतो रहतै।

सभदिना जिनगी जीबैले

अपन चुनौती दइते रहतै।

अपन चुनौती…।

 

सभ जुग जोग जोगिया

स्थिति-परिस्थिति गढ़िते रहतै।

सम-विषम, विषम-सम बीच

अनुकूल-प्रतिकूल बनेबैत रहतै।

अनुकूल-प्रतिकूल…।

 

अनुकूल-प्रतिकूल बनैक पाछू

उठि जिनगी जीवन देखै छै।

जीवन जीव जीन बनैले

संघर्ष जिनगी करए पड़ै छै।

संघर्ष जिनगी…।

 

सभदिने अनुकूल-प्रतिकूल

रस्सा-कस्सी करैत एलैए।

रस्से-कस्सीटा किए

रग्गड़-घसो करैत एलैए।

रग्गड़-घसो…।

 

कहियो दिवा निशा दाबि-दाबि

तँ कहियो छाती फारि निशा कहैए ।

भलेँ जाठि जठिया जेठ

तँए कि निशाकर पाछू हटैए।

तँए कि निशाकर…।

 

राति-दिन एकबट्ट बटिया

दिन-राति नाओं धड़ैत रहैए।

कहियो विषुवत रेख मध्य

तँ कहियो मकर कहबैत रहैए।

तँ कहियो मकर…।

 

रीत-परिवर्तन होइत-होइत

कर्क सेहो पाशा बदलैए।

माघक हाड़ जाड़केँ

दण्ड काल हँ

सि हँसि कहैए

दण्ड काल हँसि हँसि…।

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