संवेदन के ताने-बाने तोड़ेगी,
अंतहीन ये दौड़ कहाँ पर छोड़ेगी?
सुख की छलनाओं ने सबको लूटा है,
पीड़ा-पगा निमंत्रण पीछे छूटा है।
बाहर कवच अहं का धारे फिरते हैं,
भीतर से हर कोई टूटा-टूटा है।
एकाकी पथ पर ही हमको मोड़ेगी
अंतहीन ये दौड़ कहाँ पर छोड़ेगी?
अपनी-अपनी सोच रहे हैं सब देखो,
लोलुपता के नए-नए करतब देखो।
भूल गए हैं भाषा त्याग-तपस्या की,
दौर सुहाना फिर आएगा कब देखो।
कपट-शिला यूँ ही नेह-गागर फोड़ेगी,
अंतहीन ये दौड़ कहाँ पर छोड़ेगी?
हो सकता है तेज़ लहर में बह जाएँ,
आदर्शों की प्रतिमाऐं भी ढ़ह जाएँ।
बीच भँवर से बचकर आना मुश्किल है,
ऐसा ना हो हम पछताते रह जाएँ।
टूटे प्रतिबंधों को विधि फिर जोड़ेगी
अंतहीन ये दौड़ कहाँ पर छोड़ेगी?
– डॉ. पूनम यादव