बैठा था एक दिन भोर में,
कोई भी न दिख रहा था ।
हवाएं चल रही थी तूफानी,
दिल मेरा जोरों से धड़क रहा था।
विचार कर रहा था,
कि, मैं क्या कर रहा हूं ?
जिसने तोड़ दिया नाता,
क्यों उसे याद कर रहा था ?
दिया था कलम उसने मुझे ,
उसी से कुछ लिखने का मन कर रहा था।
गुजर गए थे कई महीने ,
फिर भी उसे न भूल पा रहा था ।
देखे उसे काफी दिन हो रहा था,
चेहरा उसी का सामने बार-बार आ रहा था।
खिलाया था उसने अपने हाथों से बनाकर ,
स्वाद उसका आज भी आ रहा था ।
वो नहीं आने वाला था फिर भी ,
बस उसी का इंतजार कर रहा था।
क्या उसके दिल में अब भी मैं हूं,
बस यही सोचे जा रहा था ।
उसे इतना नहीं चाहना था,
बस खुद को कोसे जा रहा था ।
इतना जल्दी सब खत्म हो गया
सोचकर यही आंसू गिर रहा था ।
उसके साथ बिताया एक – एक पल ,
बस याद ही याद आ रहा था ।
– दिव्य त्रिपाठी