सोचता हूं जब, बड़ा सहम सा जाता हूं,
क्यों मैं अपनी संस्कृति को भुलाता हूं।
लोगों की देखा-देखी करके आजकल,
जलती हुई मोमबत्तियों को बुझाता हूं।।
दीपक के प्रकाश से अंधेरा दूर होता है,
बुझाकर दीया ये कैसा उत्सव होता है।
आखिर क्यों हमारा, विवेक मर रहा है,
अक्ल का घोड़ा क्यों, घास चर रहा है।।
दिखावे में आकर हम क्यों अंधे हो गए,
खुशियों के पल आज क्यों गंदे हो गए।
मार्डन संस्कृति की चाहत में आज हम,
घोंट रहे हैं अपनी ही,संस्कृति का दम।।
बुझाकर दीये हम जन्मदिन मनाने लगे,
अश्लील गानों पर, सबको नचाने लगे।
अपने बच्चों को हम क्या सिखाने लगे,
भूलकर संस्कृति को मार्डन बनाने लगे।।
पढ़े लिखे होकर भी अनपढ़ बनने लगे,
अपने संस्कार आज हमें अखरने लगे।
आखिर क्यों हम भेड़ चाल चलने लगे,
सोचना जरुर!हम ऐसा क्यों करने लगे।।
– सुमित जोशी ‘राइटर’