और बुरा क्या हो सकता है कविता – हीरामणी वैष्णव, हास्यकवि, वाह भाई वाह, छत्तीसगढ़

और बुरा क्या हो सकता है आंखों का,

पत्ते ने दामन छोड़ा है शाखों का।

सच बेचारा घर में ही दम तोड़ गया,

झूठ ने कल व्यापार किया है लाखों का।

 

गलतफहमी में जिंदा थे, कि अब हम तुम सुलझ बैठे,

कभी सुलझे नहीं बल्कि उसी में उलझ बैठे।

जरा देखो यहां रिश्तों का मतलब, भूलकर कैसे ?

फ़कत ” मतलब के रिश्ते ” को ही हम अपना समझ बैठे।

 

ये करते हैं सियासत में, गुल – ए – गुलज़ार की बातें,

मुहब्बत की तरह झूठी है, इस सरकार की बातें।

समंदर भी करे कैसे यकीं उनकी हिफाज़त पर,

जो साहिल पर खड़ा होकर करे मझधार की बातें।

 

खुशी किस बात की हो या हो फिर किस बात का ग़म,

न बन पाया कभी कोई, हमारे ज़ख्म की मरहम।

गलत होकर सही साबित, जो करते रोज हों खुद को,

सही होकर सही साबित, न कर पाएं हमीं को हम।

    – हीरामणी वैष्णव 

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