स्त्री; आश्रित या आश्रयदात्री , हिंदी आलेख ( आर्टिकल ) ? – जिज्ञासा

            स्त्री; आश्रित या आश्रयदात्री 

हमारे भारतीय कानून में सबको एक समान माना गया है। क्या स्त्री ? क्या पुरुष ? क्या हिंदू और क्या मुस्लिम ? लेकिन क्या व्यवहार में भी ऐसा होता है ? बहुत ही कम!

 

आज हम बात कर रहे हैं गांव में रहने वाली लड़कियों ,बहुओं, कामकाजी महिलाओं की। हर क्षेत्र में उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है , सिर्फ इसलिए क्योंकी वह एक स्त्री है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी स्त्रियां अपनी गुलामी की जंजीर तोड़ने के लिए संघर्षरत हैं। जो उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है वह भी उन्हें संघर्ष करके ही प्राप्त होता है। स्त्री – पुरुष का यह भेदभाव जन्म से ही शुरू हो जाता है। लडकों के पैदा होने पर उत्सव मनाया जाता है दावतें होती हैं और लड़कियों के पैदा होने पर कोई उत्सव नहीं होता। तब ” शादा जीवन उच्च विचार ” का ढोंग होने लगता है। शुरू से ही लडकों और लड़कियों को भिन्न – भिन्न संस्कार दिये जाते हैं

 

“तुम इतनी तेज नहीं बोल सकती , क्योंकी तुम लड़की हो।तुम्हें घरेलु काम करने हैं क्योंकी तुम लड़की हो। अरे! तुम ऐसे ठहाके मार के कैसे हंस सकती हो? तुम तो लड़की हो। कुछ तो शर्म करो। बचपन से ही लड़कियों को ” तुम लड़की हो ” का टैग मिल जाता है यही चीजें अगर लड़का करे तो पुरुषत्व की निशानी और अगर लड़की करें तो बेशरम। अरे वाह ! क्या दोगली रीत है ?

 

गांव में जब भी स्कूल में कोई वर्षिक उत्सव या आज़ादी का उत्सव मनाया जता है और उसमें नृत्य आदि के प्रतियोगितायें रखी जाति हैं तो उनमें भाग लेने के लिए लडकों को इजाजत की जरूरत नहीं होती लेकिन लड़कियों को ना जाने कितनी मेहनत करके घर वालों की इजाजत लेनी पड़ती है।” अरे तुम लड़की हो वहां इतने सारे लोगों के सामने स्टेज पर नाचोगी। तुम्हें हमारी मर्यादा का ख्याल तो है तुम्हें ? नृत्य जो एक कला है ,आत्म विकास का मध्यम है उसको भी मर्यादा से जोड़ कर उसका अर्थ ही बदल दिया जता है। वह भी सिर्फ लड़कियों के लिए। ” लड़का नाचे तो शान लड़की नाचे तो अपमान। ” हमारे गांव में लडकों का जब जी चाहता है तो घर से निकल पड़ते हैं घूमने के लिए। जब जी चाहता है तब घर आते हैं। लेकिन लड़कियां जब तक कोई जरूरी काम ना हो घर से बाहर नहीं निकल सकती और अगर कहीं जाते भी हैं तो कई सवालों के जवाब देने के बाद।

 

कहाँ जा रही हो ? वहां क्या काम हैं ? घंटे भर के अंदर वापस आ जाना। अकेले नहीं ,भाई को साथ लेकर जाओ, अच्छा उस सहेली के यहां जा रही हो, क्या जरूरत है जाने की? यह दोस्ती बस स्कूल तक सीमित रखो घर पर लाने की कोई जरूरत नहीं है। वगैरह – वगैरह इतने सवालों के जवाब देने के बाद भी इजाजत मिलेगी या नहीं , कोई पता नहीं होता। लड़कियों को बचपन से ही सीख दी जाती है की जब तक मायके में हो तब तक पिता और भाई के आश्रय में रहना है। ससुराल में पति के आश्रय में और बुढ़ापे में बेटों के। उनकी पुरी जिंदगी को आश्रित बना दिया जता है। अगर वो सक्षम भी हो तो बिना किसी पुरुष का साथ लिए उन्हें घर से बाहर कदम नहीं रखने दिया जाता है। लड़कियों की जिंदगी किराएदार की तरह होती है, उनका हिस्सा न मायके में होता है और ना ही ससुराल में। मायके वाले कहते हैं पराई अमानत है ,एक दिन चली जायेगी और ससुराल वाले कहते हैं पराय घर की है। हम सबके अपने होकर भी पराए रह जाते हैं। और तो और गांव में आज भी शादी सिर्फ़ समझौता होती है। अपनी पसंद चुनने का आपके पास कोई हक नहीं होता है। विवाह के क्षेत्र जाति – उपजाति में अत्यंत ही सीमित होते हैं और अगर गलती से किसी को दूसरी जाति या दुसरे उपजाति के ही लड़के या लड़की से प्रेम – प्रसंग हो जाए तो उसका अधिकार ,उसकी स्वतंत्रता सब छीन लिया जता है और अन्ततः समझौते की शादी करा दी जाति है। प्रेम जो खुद में ही पवित्र है ,शास्वत है अनंत और असिम है, जो हर जाति – पाति, ऊंच – नीच से परे है , उसको भी यहां एक कलंक के रूप में देखा जता है और प्रेम करने वालों को चरित्रहीन समझा जता है। मतलब अगर यहां किसी को प्यार करना हो तो कैसे करें? प्यार तो कोई सोच समझकर नहीं करते वो तो बस हो जाता है। या फिर हाथ में एक बोर्ड लेकर घूमें की “हिंदू ब्राह्मण कान्यकुब्ज प्रेमिका को उच्च व मान्य ब्राह्मण कुल का सजातीय प्रेमी चाहिए। तब जाकर कोई मिले और फिर उससे प्रेम करें।

 

“वाह ! सोच के भी कितना दुःख होता है की अनंत और असीम प्रेम को भी एक सीमा और क्षेत्र विशेष में बंध दिया गया है और इस बंधन को कुछ गिने – चुने लोग ही तोड़ पाते हैं। वह भी एक लंबे संघर्ष के बाद। लंबे अरसे के बाद। बहुओं की दशा तो और भी दयनीय होती है, उनका अस्तित्व बस पति की सेवा करने का, कामकाज करने और घर की चारदीवारी के अंदर ही होता है। और अगर औरत घर से बाहर निकलकर काम भी करना चहती है तो उस पर हजार पाबंदीयां लगाई जाती हैं।

 

” आदमियों से ज्यादा बोल – चाल मत रखना, अपने काम से काम रखना ,घर से कार्यालय और कार्यालय से घर। इसके आगे कदम मत बढ़ाना “नौकरी शुरू करते ही उसमें ऐसी कई पाबंदियां लगा दी जाती हैं ।अगर एक औरत भले ही काम के सिलसिले में ही किसी आदमी से बोल दे , दो – चार बातें कर ले तो उसको चरित्रहीन कह दिया जाता है। अगर किसी कामकाजी महिला के घर पर उस घर के मुखिया के बजाय उस महिला के नाम से निमंत्रण पत्र आ जाता है तब तो पूछो ही मत । तुरंत औरत को सवालों के कटखरे में खड़ा कर दिया जाता है। ” यह तुम्हारे नाम से क्यों आया है? तुम ठेकेदार हो ? घर के पुरुष मर गए हैं क्या ? “अरे भाई ! जब उस महिला की सह – कर्मचारी उसे ही जानती है तो उसी के नाम से निमंत्रण पत्र भेजेगी ना। जैसे किसी पुरुष का दोस्त पुरुष के नाम का निमंत्रण पत्र भेजेगा ना की उसकी पत्नी या मां के नाम का। सीधी सी बात है लेकिन इससे पुरुषों के ताथकथित आत्मसम्मान को ठेस पहुंच जाति है ,की कोई हमारी जगह कैसे ले सकता है ?

क्या स्त्रियों का मन नहीं होता ? उनकी प्रतिभा, प्रतिभा नहीं होती ? फिर क्यों उनकी प्रतिभाओं को दबा दिया जाता है ? क्यों उन्हें वो करने की आज़ादी नहीं मिलती जो वे करना चहती हैं ? क्या उनको हक नहीं की वह अपनी जिंदगी अपने तरीके से जिएं न की किसी और के निरंकुश नियमों का पालन करके।

 

हमेशा से कह दिया जाता है कि लड़कियां कमजोर होती हैं। इनके पास दिमाग नहीं होता है।अरे इस पुरूष प्रधान समाज में क्या लड़कियों को उतने अवसर उतनी सुविधाएं दिये गए जितने के लडकों को ? फिर बिना अवसर दिए ही आप यह कैसे कह सकते हैं की लड़कियां कमजोर होती हैं ? ये तो कुछ यूं बात हो गई जैसे कि किसी को लड़ाई के मैदान में उतारे बिना ही उसे पराजित घोषित कर दिया जाए। अगर लड़कियों को अवसर मिलता है और तब वह कुछ ना कर पाती तब आप उन्हें असक्षम कहें ,तब हमें कोई शिकायत ना होंगी। लेकिन मुझे यकीन है की जितने अवसर व सुविधाएं लडकों को दिये जाते हैं उसका आधा भी अगर लड़कियों को मिले तो निश्चित ही वह प्रगति करेंगी क्योंकि स्त्रियां इतनी भी कमजोर नहीं होती हैं। उनमें तो सहनशीलता का गुण हो होता है। वो अपनी जान पर खेलकर, तमाम चोट सहकर , तमाम मुसीबतों को सहकर, तमाम तकलीफों को झेलने के बाद भी, वह दूसरों की रक्षा करती हैं। अपना संपूर्ण जीवन अपनी इच्छायें सब कुछ अपनों के लिए समर्पण कर देती हैं।

 

एक औरत के कई रूप होते हैं एक बेटी माता-पिता के लिए उनके मान – सम्मान के लिए अपनी इच्छाओं को त्याग देती है। एक बहु अपने मायके को त्याग देती है और ससुराल में ही सर्वस्व ढूंढती है। एक पत्नी स्वयं की पहचान को त्याग देती है और पति के पहचान में ही ढल जाती है। एक मां अपने बच्चों के लिए अपने सपने त्याग देती है। खुद भूखी रह कर भी अपने हिस्से से बच्चों का पेट भरती है ।पर इतना त्याग करने के बाद भी उसको मिलता क्या है अपमान , कलंक, रोक – टोक इत्यादि।

 

क्या पुरुषों का कोई फर्ज नहीं है? क्या उनका फर्ज बस इतना ही है कि वो पैसे कमाएं और परिवार का पेट भरें। क्या पुरुष उन स्त्रियों लिए, उन सब के लिए जो इतना त्याग करती हैं थोड़ा सम्मान, थोड़ी स्वतंत्रता और बिना रोक – टोक किए उनको उनकी जिंदगी जीने अधिकार नहीं दे सकते ? जोकि उनका जन्मसिद्ध अधिकार है? क्या स्त्रियों की प्रतिभाओं की ऊंगली पकड़ कर उनको प्रोत्साहन नहीं दे सकते? उनकी इच्छाओं को पुरा करने का अवसर उन्हें नहीं दे सकते ?

 

मुझे नहीं लगता है कि स्त्रियां सिर्फ़ पिता, पति या बेटों पर आश्रित होती हैं। वह तो स्वयं हम सबको आश्रय देती हैं। अपने आंचल के छांव में सबको समेटे रहती है। खुद अत्याचार सह कर भी सबको प्यार देती हैं। अपनी इच्छाओं को मार कर सबकी छोटी-छोटी इच्छाओं का भी सम्मान करती हैं ।

इतिहास गवाह है कि जब – जब स्त्रियों की सहनशीलता टूटी है तब – तब उन्होंने अपनी वीरता का परिचय दिया है। और तब जाकर समाज में क्रांति व परिवर्तन हुए हैं। स्त्री तो एक शांत नदी की तरह है जो सबको शीतलता प्रदान करती है। सबकी प्यास बुझाती है। लेकिन अगर उस पर अत्याचार होगा ,अपमान होगा तो वही स्त्री नदी की भयानक बाढ़ की तरह सब कुछ तहस – नहस कर सकती है। जिस दिन स्त्रियों को सम्मान ,उनके प्रतिभाओं को अवसर और उन्हें उनके हिस्से की स्वतंत्रता मिलने लगेगी तभी यह देश प्रगति की सीढ़ी पर चढ़ते हुए और आगे बढ़ सकेगा। क्योंकि भारत की आधी आबादी महिलाऐं ही हैं। आज विश्व में किसी भी ऐसे देश का उदाहरण नहीं है जो अपनी महिलाओं को सम्मान और बराबरी का दर्जा दिए बिना केवल पुरुषों के बल पर विकसित हुआ हो। स्वामी विवेकानंद जी ने भी महिलाओं के प्रति कहा है कि – “जैसे किसी पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना आसन नहीं है उसी प्रकार बिना महिलाओं की स्थिति में सुधार किए इस समाज का कल्याण संभव नहीं है।”

       – जिज्ञासा

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