1 –
सिगरेट
यह आग की बात है
तूने यह बात सुनाई है
यह ज़िंदगी की वो ही सिगरेट है,
जो तूने कभी सुलगाई थी।
चिंगारी तूने दी थी
यह दिल सदा जलता रहा
वक़्त कलम पकड़ कर,
कोई हिसाब लिखता रहा।
चौदह मिनिट हुए हैं
इसका ख़ाता देखो
चौदह साल ही हैं,
इस कलम से पूछो।
मेरे इस जिस्म में
तेरा साँस चलता रहा
धरती गवाही देगी,
धुआं निकलता रहा।
उमर की सिगरेट जल गयी
मेरे इश्के की महक
कुछ तेरी सान्सों में,
कुछ हवा में मिल गयी।
देखो यह आखरी टुकड़ा है
ऊँगलीयों में से छोड़ दो
कही मेरे इश्कुए की आँच,
तुम्हारी ऊँगली ना छू ले।
ज़िंदगी का अब गम नही
इस आग को संभाल ले
तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ,
अब और सिगरेट जला ले ।
2 –
शहर
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें – बेतुकी दलीलों-सी,
और गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर।
हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियाँ,
ज्यों मुँह से झाग बहता है।
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते,
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते।
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता,
बहस से निकलता, बहस में मिलता।
शंख घंटों के साँस सूखते
रात आती,
फिर टपकती और चली जाती,
पर नींद में भी बहस ख़तम न होती,
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है।
3 –
तन भस्म गया
मन योगी तन भस्म भया,
तू कैसो हर्फ़ कमाया।
अज़ल के योगी ने फूँक जो मारी,
इश्क़ का हर्फ़ अलाया।
धूनी तपती मेरे मौला वाली,
मस्तक नाद सुनाई दे।
अंतर में एक दीया जला,
आसमान तक रोशनाई दे।
कैसो रमण कियो रे जोगी!
किछु न रहियो पराया।
मन योगी तन भस्म भया,
तू ऐसी हर्फ़ कमाया।
4 –
याद
आज सूरज ने कुछ घबरा कर,
रोशनी की एक खिड़की खोली।
बादल की एक खिड़की बंद की,
और अंधेरे की सीढियां उतर गया।
आसमान की भवों पर,
जाने क्यों पसीना आ गया ?
सितारों के बटन खोल कर,
उसने चांद का कुर्ता उतार दिया।
मैं दिल के एक कोने में बैठी हूं,
तुम्हारी याद इस तरह आयी।
जैसे गीली लकड़ी में से,
गहरा और काला धूंआ उठता है।
साथ हजारों ख्याल आये,
जैसे कोई सूखी लकड़ी।
सुर्ख आग की आहें भरे,
दोनों लकड़ियां अभी बुझाई हैं।
वर्ष कोयले की तरह बिखरे हुए,
कुछ बुझ गये, कुछ बुझने से रह गये।
वक्त का हाथ जब समेटने लगा,
पैरों पर छाले पड़ गये।
तेरे इश्क के हांथ से छूट गयी,
और जिन्दगी की हड्डियां टूट गयी।
इतिहास का मेहमान,
मेरे चौके से भूखा उठ गया।
5 –
मैं तुम्हें फ़िर मिलूंगी
मैं तुम्हें फिर मिलूँगी
कहाँ? किस तरह? नहीं जानती
शायद तुम्हारे तख़्ईल की चिंगारी बन कर
तुम्हारी कैनवस पर उतरूँगी ।
या शायद तुम्हारी कैनवस के ऊपर
एक रहस्यमय रेखा बन कर ,
ख़ामोश तुम्हें देखती रहूँगी
या शायद सूरज की किरन बन कर,
तुम्हारे रंगों में घुलूँगी
या रंगों की बाँहों में बैठ कर ,
तुम्हारे कैनवस को ।
पता नहीं कैसे-कहाँ?
पर तुम्हें ज़रूर मिलूँगी
या शायद एक चश्मा बनी होऊँगी
और जैसे झरनों का पानी उड़ता है ,
मैं पानी की बूँदें
तुम्हारे जिस्म पर मलूँगी
और एक ठंडक-सी बन कर
तुम्हारे सीने के साथ लिपटूँगी।
मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक़्त जो भी करेगा
इस जन्म मेरे साथ चलेगा।
यह जिस्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर चेतना के धागे,
कायनाती कणों के होते हैं
मैं उन कणों को चुनूँगी
धागों को लपेटूँगी,
और तुम्हें मैं फिर मिलूंगी।